Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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निर्ग्रन्थ व निर्ग्रन्थियों के विहार क्षेत्र की मर्यादा पर चिन्तन किया गया है। पूर्व में अंगदेश एवं मगधदेश तक, दक्षिण में कौसाम्बी तक, पश्चिम में स्थूणा तक व उत्तर में कुणाला तक-ये आर्यक्षेत्र हैं। आर्यक्षेत्र में विचरने से ज्ञान-दर्शन की वृद्धि होती है। यदि अनार्यक्षेत्र में जाने पर रत्नत्रय की हानि की सम्भावना न हो तो जा सकते हैं।
द्वितीय उद्देशक में उपाश्रय विषयक १२ सूत्रों में बताया है कि जिस उपाश्रय में शाली, व्रीहि, मूंग, उड़द आदि बिखरे पड़े हों वहां पर श्रमण-श्रमणियों को किंचित् समय भी न रहना चाहिए किन्तु एक स्थान पर ढेर रूप में पड़े हुए हों तो वहां हेमन्त व ग्रीष्म ऋतु में रहना कल्पता है। यदि कोष्ठागार आदि में सुरक्षित रखे हुए हों तो वर्षावास में भी रहना कल्पता है।
__जिस स्थान पर सुराविकट, सौवीरविकट आदि रखे हों वहाँ किंचित् समय भी साधु-साध्वियों को नहीं रहना चाहिए। यदि कारणवशात् अन्वेषणा करने पर भी अन्य स्थान उपलब्ध न हो तो श्रमण दो रात्रि रह सकता है, अधिक नहीं। अधिक रहने पर छेद या परिहार का प्रायश्चित्त आता है।
इसी तरह शीतोदकविकटकुंभ, उष्णोदकविकटकुंभ, ज्योति, दीपक आदि से युक्त उपाश्रय में नहीं रहना चाहिए।
इसी तरह एक या अनेक मकान के अधिपति से आहारदि नहीं लेना चाहिए। यदि एक मुख्य हो तो उसके अतिरिक्त शेष के यहाँ से ले सकते हैं। यहां पर शय्यातर मुख्य है जिसकी आज्ञा ग्रहण की है। शय्यातर के विविध पहलुओं पर चिन्तन किया गया है।
निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को जांगिक, भाँगिक, सानक, पोतक और तिरिटपट्टक ये पाँच प्रकार से वस्त्र लेना कल्पता है और औणिक, औष्ट्रिक, सानक, वच्चकचिप्पक, मूंजचिप्पक ये पांच प्रकार के रजोहरण रखना कल्पता है।
तृतीय उद्देशक में निर्ग्रन्थों को निर्ग्रन्थियों के उपाश्रय में बैठना, सोना, खाना, पीना, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग करना नहीं कल्पता। इसी प्रकार निर्ग्रन्थियों को निर्ग्रन्थों के उपाश्रय आदि में बैठना, खाना, पीना आदि नहीं कल्पता। आगे के चार सूत्रों में चर्म विषयक, उपभोग आदि के सम्बन्ध में कल्पाकल्प की चर्चा है।
वस्त्र के सम्बन्ध में कहा है कि वे रंगीन न हों, किन्तु श्वेत होने चाहिए। कौनसी-कौनसी वस्तुएं धारण करना या न करना-इसका विधान किया गया है। दीक्षा लेते समय वस्त्रों की मर्यादा का भी वर्णन किया गया है। वर्षावास में वस्त्र लेने का निषेध है किन्तु हेमन्त व ग्रीष्म ऋतु में आवश्यकता होने पर वस्त्र लेने में बाधा नहीं है और वस्त्र के विभाजन का इस सम्बन्ध में भी चिन्तन किया है।
१. सुराविकटं पिष्टनिष्पन्नम् सौवीरविकटं तु पिष्टवअँगुंडादिद्रव्यैर्निष्पन्नम्। -क्षेमकीर्तिकृत वृत्ति, पृष्ठ १०९५२ २. 'छेदो वा' पंचरात्रिन्दिवादिः 'परिहारो वा' मासलघुकादिस्तपोविशेषो भवतीत सूत्रार्थः।
-वही ३. जंगमाः त्रसाः तदवयवनिष्पन्नं जांगमिकम्, भगा अतसी तन्मयं भांगिकम्, सनसूत्रमयं सानकम्, पोतकं कार्पासिकम् तिरीट: वृक्षविशेषस्तस्य यः पट्टो वल्कल क्षणस्तन्निष्पन्नं तिरीटपट्टकं ना पंचमम्।
-उ०२, सू०२४ ४. 'और्णिक' ऊरणिकानामूर्णाभिर्निर्वृत्तम्, 'औष्ट्रिकं' उष्ट्रोमभिर्निर्वृत्तम्, 'सानकं' सनवृक्षवल्काद् जातम् 'वाचकः'
तृणविशेषस्तस्य'चिप्पकः' कुट्टितः त्वगूपः तेन निष्पन्नं वच्चकचिप्पकम्, 'मुंजः' शरस्तम्बस्तस्य चिप्पकाद् जातं मुंजचिप्पकं नाम पंचममिति।
-उ०२, सू० २५