Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
१०)
तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
हैं। उपशांत कषाय, क्षीणकषाय और सयोग केवलियोंके योग ही एक बंध का कारण रह जाता है, जो कि एक समय ठहरकर दुसरे समयमें निर्जरा हो जानेवाले सातावेदनीय कर्म का मात्र बंधक है, नोकर्म वर्गग्णायें भी योगसे आती हैं, चौदहवे गुणस्थान में कोई आस्रव या बंध नहीं है । यों आर्ष आम्नाय अनुसार वाक्यों की परिसमाप्तीके अनुरोधसे सूत्रका उक्त अर्थ निकालना पडता है । मिथ्यादर्शन आदि के क्रियावादी, एकांतमिथ्यादर्शन, पृथिवी कायिक अविरति, विकथा भावाशुद्धी, अनुत्साह, अनन्तानुबंधी क्रोध, सत्यमनोयोग आदि भेद प्रभेदोंकी अपेक्षा विचार करने पर तो प्रत्येकको या असमग्रको बंध का हेतुपना समझा जाय कारण कि सभी मिथ्यादर्शन एक समयमे एक आत्माके साथ नहीं सम्भवते हैं। इसी प्रकार अविरति, प्रमाद, कषाय, योगोंके भेद प्रभेद भी सभी युगपत् नहीं संभवते हैं। पच्चीस कषायों मे से एक समयमे अधिक से अधिक अनन्तानुबंधी क्रोध १,अप्रेत्याख्यानावरण क्रोध२,प्रत्याख्यानावरण क्रोध३ संज्वलनक्रोध४ तथा हास्य५ रति६ इन चारमे दो एवं भय जुगुप्सा८ और स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसक वेदोमे से एक वेद यों नौ कषायें उदयरूप हैं, पन्द्रह योगों में से एक जीवके एक समयमे एक ही योग रहेगा। अत: भेदप्रभेदोंको व्यस्तरूपसे कारणपना है ।
___ अविरतेः प्रमावस्याविशेष इति चेन्न विरतस्यापि प्रेमावदर्शनात् । इति चेन्न, कार्यकारणभेदोपपत्ते :।
यहाँ कोई शंका उठाता है कि अविरति से प्रमाद का कोई अन्तर नहीं है ? अतः दोनोमे से एक का ग्रहण करना समुचित है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि विरत हो रहे मुनिके भी विकथा, कषाय, इन्द्रिय, निद्रा और स्नेह स्वरूप प्रेमाद हो रहे संभव जाते हैं। पुनः कोई आक्षेप करता है कि कषायों और अविरतियों में कोई भेद नही दीखता है, दोनो ही हिंसादि परिणामों स्वरूप हैं, आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि कार्य और कारणके भेदसे इनके पृथक् निरूपणकी सिद्धी हो रही है। क्रोधादिकषायें कारणस्वरूप हैं और हिंसादि की अविरतियां कार्य है अतः इनका भी न्यारा निरूपण करना उचित है । कोई कोई विद्वान प्रमाद पदसे उन्हीं विकथा आदि प्रमादोंको पकडते हैं जो कि छठे गुणस्थान मे ही पाये जाते हुँ शेष रहे तीव्र प्रमादोंको मिथ्यादर्शन और अविरति की मुख्यतासे ही गिन लिया जाता है, इसी प्रकार कषायपदसे सातवे गुणस्थानसे दशवे गुणस्थान तक सम्भव रहीं कषायें ही ली जाय अन्य अनन्तानुबन्धी आदि कषायोंको पहिले कारगोमे