Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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माने हैं जिस तरह जैन सिद्धांतमें कर्म पदार्थ माना है और उसके संबंधसे आत्माको संसारमें रुलना बताया है उसी प्रकार सांख्य सिद्धांतमें सत्त्वगुण रजोगुण तमोगुणरूप प्रकृति पदार्थ माना है।
और उसके संबंधसे पुरुष संसारमें रुलता रहता है यह बतलाया है । प्रकृति पदार्थको ही उन्होंने जगतका कर्ता माना है। बुद्धि सुख दुख अभिमान आदि गुणोंको धारण करनेवाली प्रकृति ही है। पुरुष तो चैतन्यमात्र है और जिस प्रकार कमलका पत्र पानी पर रहते भी निर्लेप रहता है। पानीका उस पर कोई भी असर नहीं रहता। उसी प्रकार पुरुष भी बुद्धि सुख दुःख आदिसे निलेप रहता है। प्रकृति के संबंधसे मैं ज्ञाता सुखी दुःखी आदि भावनायें पुरुषकी आत्मामें उत्पन्न होती रहती हैं और जबतक ये भावनायें उदित होती रहती है तभी तक पुरुष संसारमें फंसा रहता है किंतु जिस समयद स्वप्न अवस्थाके समान यह घर है किंवा कपडा और घर है इस प्रकार विवेक ज्ञान नष्ट हो जाता है। केवल चैतन्य मात्र अवस्था रहती है उसका नाम मोक्ष है। मोक्ष अवस्था में सांख्य मतके अनुसार आत्मा किसी भी पदार्थको जान देख नहीं सकता किंतु सोनेवाला पुरुष जिस प्रकार विवेक ज्ञान । शुन्य चैतन्यमात्र शक्तिका धारक रहता है वैसी ही दशा मोक्ष में रहने वाली आत्माकी होती है।
नैयायिक और वैशेषिक सिद्धान्तमें बुद्धि र सुख दुःख ३ इच्छा ४ द्वेष ५ प्रयत्न ६ अदृष्ट-धर्म ७ अधर्म ८ और भावना संस्कार ९ये नौ विशेष गुण माने हैं । उनका मत है कि जबतक ये गुण आत्मामें रहते हैं तब तक उसे संसारमें घूमना पडता है किंतु जिस समय इन समस्त धमाका सर्वथा अभाव होद जाता है उस समय आत्मा मोक्ष प्राप्त कर लेता है । शेष विशेष गुणों के साथ जो ज्ञान गुणका, अभाव माना है उसका आशय वे यह बतलाते हैं कि ज्ञान दुःखका कारण है। वालकपनमें ज्ञानकी
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