________________
जीवन ज्योति : साध्वी शशिप्रभाश्रीजी
सं. १६६६ का प्रथम वर्षावास-जयपुर यद्यपि शास्त्रीय विधान के अनुसार दीक्षा के बाद ही विहार कर देना चाहिए। किन्तु आप विहार न कर सकीं । उसका कारण यह था कि आषाढ़ शुक्ला २ सं० १९६६ को आपकी दीक्षा हुई और वर्षावास से पहले ही बरसात प्रारम्भ हो गई।
इसी कारण आपका प्रथम सं० १९६६ का प्रथम वर्षावास जयपुर में ही गुरुवर्या पू. प्र. श्री ज्ञानश्रीजी म. सा. की छत्रछाया में हुआ।
इसी वर्षावास में आपका शास्त्रीय अध्ययन प्रारम्भ हुआ। साधु-प्रतिक्रमण आदि तो आप पहले ही सीख चुकी थीं। इस वर्षावास में शेष साधुक्रियाएँ सीखीं और दशवकालिक सूत्र का अध्ययन किया। पं. मांगीलालजी से अवशिष्ट कौमुदी, अमरकोश तथा रघुवंश आदि भी संपूर्ण कर लिए।
दीक्षा ग्रहण करने के दिन उपरान्त ही आषाढ़ शुक्ला ११ को बड़े दादा जिनदत्तसूरिजी म. के जयन्ती समारोह के शुभ अवसर पर आपने सार्वजनिक प्रवचन दिया। यद्यपि सार्वजनिक प्रवचन का आपका पहला ही मौका था; लेकिन प्रवचन इतना प्रभावशाली रहा कि श्रोतागण झूम उठे। साध्वीवृन्द भी चकित रह गये।
पू. प्रतिनी श्री ज्ञानश्रीजी म. सा. का जयपुर में ठाणापति वास-पू. प्र. जी म. सा. की शारीरिक अस्वस्थता पिछले दो-तीन वर्ष से ही चल रही थी, इसी कारण वे जयपुर ही विराज रही थीं।
अस्वस्थता इतनी अधिक थी कि वे एक-दो मंजिल ही जातीं तो ३-४ डिग्री ज्वर हो जाता और उन्हें वापिस लौटना पड़ता। साधु-साध्वी के लिए भगवान की आज्ञा है-'विहार चरिया मुणीणं पसत्था' -मुनियों (साध्वियों) के लिए सतत् विहार करना ही प्रशस्त है। एक दोहा भी इस विषय में प्रसिद्ध है
बहता पानी निर्मला, बँधा गँदेला होय ।
साधु तो रमता भला, दोष न लागे कोय ।। इसी भावना से पू. प्र. जी म. सा. शरीरबल क्षीण होते हुए भी आत्म-बल के सहारे से विहार करतीं; लेकिन १-२ मंजिल चलते ही शरीर जवाब दे जाता और वापिस लौटना पड़ता।
इस बार भी उन्होंने विहार का प्रयास किया; किन्तु वही स्थिति सामने आ गई । बुखार चारपाँच डिग्री हो गया। चलने की आगे बढ़ने की सामर्थ्य न रही।
यद्यपि जयपुरसंघ आपश्री से पहले ही कई बार ठाणापति विराजने की प्रार्थना करता रहा लेकिन इस बार तो श्रावकसंघ का आग्रह बहुत बढ़ गया। प्रमुख श्रावक-श्राविकाओं ने यहाँ तक कह दिया कि आपश्रीजी जब तक ठाणापति विराजने की स्वीकृति नहीं देंगी; तब तक हम लोग मुंह में पानी भी नहीं लेंगे। आखिर अपनी शारीरिक अस्वस्थता और श्रावक-संघ की आग्रहभरी विनय को सम्मान देकर उन्हें ठाणापति विराजने की स्वीकृति देनी ही पड़ी।
इस प्रकार पू. प्र. जी म. सा. के लगभग ३० वर्षावास जयपुर में ही ठाणापति के रूप में हुए।
ठाणापति रहने पर भी उनका किसी के प्रति कोई लगाव नहीं था, यहाँ तक कि अपनी शिष्याओं के प्रति भी नहीं। उनकी इतनी इच्छा अवश्य थी कि जहाँ भी मैं रहूँ वहाँ व्यवस्थित रूप से व्याख्यान चौपी आदि होते रहने चाहिए। इस दृष्टि से योग्य साध्वीजी को अपने पास अवश्य रखती थीं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org