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खण्ड १ | जीवन ज्योति
को शांत करके क्रिया प्रारम्भ करवाई तथा सेठ सा० कल्याणमलजी एवं सर्व संघ की सहमति से वैरागिन सज्जनकुमारी को उपस्थित जनसमह के समक्ष चारित्रोपकरण शिरोमणि, चारित्रालंकार रजोहरण प्रदान किया। दीक्षोपकरणों के साथ आप साध्वी वेश धारण करने के लिए जली मई।
अब गुरुदेवश्री ने अपनी मधुर वाणी में त्याग-तप-संयम-दीक्षा के महत्व पर ओजस्वी प्रवचन दिया, जिसका संक्षिप्त हार्द इस प्रकार हैबन्धुओ!
जैन धर्म-संस्कृति में श्रमण-जीवन आदर्श माना गया है । यद्यपि श्रावक और श्रमण दोनों के ही जीवन का लक्ष्य त्याग है तथापि श्रेष्ठता और ज्येष्ठता में श्रमण अग्रणी है । श्रावक को श्रमणोपासक कहा गया है, उसका कारण यह है कि श्रावक श्रमणों के त्याग-तपस्यामय जीवन का अनुकरण करने वाला होता है, उसका आदर्श भी श्रमण-जीवन होता है।
श्रमणपरम्परा में स्वाध्याय, ध्यान, त्याग व तप ये चार चरण हैं। इन चारों का संगम ही श्रमण होता है।
श्रमण दीक्षा ग्रहण करना कोई सरल कार्य नहीं है । श्रमणव्रतों का पालन खांडे की धार पर चलना है। जिसका चित्त समाहित है, परित्यक्त भोगों को पुनः भोगने की जिसमें इच्छा भी नहीं, जो षटकाय (प्राणीमात्र) का प्रतिपालक है और पंचास्रवों से पूर्णतया विरक्त है, सम्यग्दर्शन, ज्ञान-चारित्र में जिसकी दृढ़रुचि, प्रतीति है, वही श्रमणदीक्षा ग्रहण करता है और साधुत्व का पालन कर सकता है ।
इस प्रकार लम्बी देशना चलती रही। इसी प्रकार पू० साध्वीजी म० सा० ने भी अपने उद्गार व्यक्त किये।
सज्जनकुमारीजी श्वेत वस्त्रों में ओघा डांडा पात्रों से सुसज्जित मंडप में पधारी । उस समय वे सरस्वती के समान प्रतिभासित हो रही थीं। सभी की दृष्टि उनकी ओर उठ गई।
शेष क्रिया प्रारंभ हुई । पूज्य गुरुदेव ने सज्जनकुमारीजी को प्रवर्तिनीवर्या श्रद्धया श्री ज्ञानश्री जी की शिष्या घोषित किया और नाम दिया--सज्जनश्रीजी।
दीक्षोपरान्त आपने थोड़े ही शब्दों में अपने दीक्षित होने की खुशी प्रगट की। इसके बाद दीक्षा कार्यक्रम सम्पूर्ण हुआ।
इसके साथ ही चौथीबाई कोचर की भी दीक्षा संपन्न हुई । उनका नाम विबधश्री रखा गया और आपको बसंतश्रीजी म. सा० की शिष्या घोषित किया गया।
सभी ने नूतन साध्वीजी को वन्दना की तथा पूज्य गुरुदेवश्री से मांगलिक और मोदक की प्रभावना लेकर अपने-अपने स्थान को प्रस्थान किया।
श्रावक-श्राविकाओं तथा साध्वीजी म. के साथ नूतन साध्वी सज्जनश्रीजी दादावाडी पधारी । उस दिन आपके चौविहार उपवास था। आप जैसी विदुषी साध्वी को पाकर गुरुवर्याजी को तो हर्ष था ही, समस्त साध्वीमंडल भी हर्षित था।
१. इस नाम का कारण यह था कि आपश्री द्वारा रचित २५०-३०० स्तवन सज्झाय आदि 'सज्जन' नाम से प्रसिद्ध
थे । और इन स्तवनों की रचना आपश्री ने १५-१६ वर्ष की आयु से शुरू कर दी थी। साथ ही नामानुरूप आपका जीवन भी था।
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