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खण्ड १ | जीवन ज्योति
यद्यपि तप करने और कराने वाले सभी प्रसन्न थे, किन्तु चकित भी थे । चकित होने का कारण थे-सेठ कल्याणमलजी। वे लोग सोचते-जो व्यक्ति कभी नवकारसी भी नहीं करता, रात्रि भोजन का भी जिसे त्याग नहीं; ऐसा व्यक्ति कैसे इस कठिन तपस्या को पार लगायेगा? लेकिन कल्याणमलजी ने सफलतापूर्वक उपधान तप की साधना तो की ही, साथ ही एक दिन का भोजन भी आपकी ओर से हुआ।
इसीलिए कहा गया है कि सन्तसंगति काँच को भी हीरा बना देती है। मानव को सदा ही ज्ञानियों की, चारित्रात्माओं की संगति करनी चाहिए।
उपधान तप की पूर्णाहति के दिन निकट आने लगे । अठाई महोत्सव, महापूजनादि शुरू हए । स्थानीय भजन-मण्डलियों ने प्रभु-पूजा-भक्तिपूर्ण सहयोग दिया। अन्तिम दिन कटले के विशाल प्रांगण में पू. गुरुदेवश्री और पू. साध्वीजी म. की निश्रा में खूब धूमधाम और हर्षोल्लास के साथ उपधानतप सानन्द सम्पन्न हुआ।
आज्ञा-प्राप्ति और भागवती दीक्षा यद्यपि कल्याणमलजी ने उपधान तप की साधना सफलतापूर्वक कर ली थी; फिर भी वे अभी तक अपनी पत्नी सज्जनकुमारी जी को दीक्षा की अनुमति देने का मन नहीं बना पाये थे। जब भी सज्जनकुमारी अपनी वैराग्य भावना को व्यक्त करतीं तो पारिवारिक वातावरण विषम बन जाता।
सज्जनश्री मन ही मन सोचकर रह जातों अभी काल-लब्धि नहीं आई है, समय परिपक्व नहीं हुआ है, चारित्रमोह का उदय है, इसीलिए दीक्षा में अन्तराय है। फिर भी धैर्य उन्होंने नहीं छोड़ा, यही सोचा धीरे-धीरे वातावरण अनुकूल हो जायेगा। यही सोचकर मन को समझा लेती
धीरे-धीरे रे मना ! धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय ॥ समय गुजरता रहा, और साथ ही फल आने के आसार दिखाई देने लगे, सम्भावनाएँ नजर आने लगीं।
वि. सं. १९६८ के माघ मास में परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री आनन्दसागरसूरिजी म. सा. पूज्या प्रवर्तिनी शान्तरसनिमग्ना श्री ज्ञानश्री जी म. सा. को दर्शन देने जयपुर पधारे। कारण यह था कि श्री ज्ञानश्रीजी म. जयपुर में ठाणापति के रूप में विराजित थीं। परम श्रद्धय सूरिजी म. सा. ने श्री सज्जनकुमारीजी की दृढ़ वैराग्य भावना को जाना तो बहुत प्रसन्न हुए। वे भी सज्जनकुमारीजी की शांत, निश्छल, सौम्य स्वभाव, विद्वत्ता, कवित्वशक्ति आदि से पूर्व ही परिचित थे, अतः उन्होंने भी सेठ कल्याणमलजी को दीक्षा की अनुमति देने के लिए प्रेरणा दी ।
___ जापपरायणा श्री ज्ञानश्री जी म. सा., परमोपकारिणी मंडलप्रमुखा उपयोगश्रीजी म. सा. आदि की सप्रेरणाओं और सत्प्रयत्नों तथा सेठ केसरीसिंहजी बाफना तथा सेठानीजी श्री गुलाबसुन्दरीजी के (भुआ सा.) के परिश्रम से सेठ कल्याणमलजी के मानस में परिवर्तन हुआ। उनके मन में विचार घुमड़ने लगे-मैंने हर सम्भव प्रयत्न करके देख लिया; लेकिन पत्नी की वैराग्यभावना दृढ़ है, उसकी सांसारिकता में बिल्कुल भी रुचि नहीं। कब तक उसे इस तरह रखा जा सकता है ? व्यर्थ है रोकना । मैं भी क्यों अन्तराय बाँधू । अब तक व्यर्थ ही रोकता रहा। ऐसा विचार करके उन्होंने दीक्षा की अनुमति दे दी, कहा
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