Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार ।
अर्थ-ये नय सापेक्ष हों तो सुनय होते हैं और निरपेक्ष हों तो दुर्नय होते हैं, सुनय से ही समस्त व्यवहारों की सिद्धि होती है।
अध्यात्मभाषा में मूल नय दो हैं । (१) निश्चयनय और व्यवहारनय । निश्चयनय का अभेद विषय है और व्यवहारनय का भेद विषय है। निश्चयनय के दो भेद हैं-शुद्धनिश्चयनय, अशुद्धनिश्चयनय । व्यवहारनय भी दो प्रकार की है-सद्भूतव्यवहारनय और असद्भूतव्यवहारनय । एक ही वस्तु जिसका विषय हो वह सद्भूतव्यवहारनय। भिन्न वस्तु जिसका विषय हो वह असद्भूतव्यवहारनय है। उपचरित और अनुपचरित के भेद से इन दोनों व्यवहारनयों के भी दो-दो भेद हैं । ( श्रीमद देवसेन आचार्य विरचित आलापपद्धति )
समयसार में निश्चयनय के और व्यवहारनय के विषय में निम्न प्रकार कथन है१. निश्चयनय से द्रव्य में पर्यायकृत व गुणकृत भेद नहीं है । गाथा ६ व ७ व्यवहारनय से पर्यायकृत व गुणकृत भेद हैं । गाथा ६ व ७ २. निश्चयनय द्रव्याश्रित है और व्यवहारनय पर्यायाश्रित है । गापा ५६ की टीका ३. निश्चयनय स्वाश्रित है और व्यवहारमय पराश्रित है।
श्री गो. जीव. गाथा ५७२ में भी 'चवहारो य वियप्पो भेवो तह पज्जो त एचट्ठो' इन शब्दों द्वारा यह कहा है कि व्यवहार, विकल्प, भेद तथा पर्याय इन शब्दों का एक ही अर्थ है ।
यद्यपि वस्तु भेदाभेदात्मक है तथापि निश्चयनय अभेद को विषय करता है और व्यवहारनय का विषय 'भेद' है।
यद्यपि वस्तु सामान्य विशेषात्मक है तथापि सामान्य (द्रव्य) निश्चयनय का विषय और विशेष (पर्याय) व्यवहारनय का विषय है।
यद्यपि वस्तु स्वाश्रितपराश्रितधर्ममयी है। तथापि निश्चयनय स्वाश्रित है। और व्यवहारनय पराश्रित औजिसे केवलज्ञानी प्रात्मा को जानते हैं' यह कथन स्वाश्रित होने से निश्चयनय का विषय है। केवलज्ञानी सर्व को जानते हैं यह पराश्रित होने से व्यवहारनय का विषय है।
सभी नय अपने-अपने विषय के कथन करने में समीचीन हैं और दूसरे नयों का निराकरण करने में मूढ़ हैं। अनेकान्तरूप समय के ज्ञाता पुरुष 'यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है' इस प्रकार का विभाग नहीं करते हैं। गाथा इस प्रकार है
णिययवणिज्जसच्चा सव्वणया परवियालणे मोहा।
ते उण विटुसमओ विभयह सच्चे व अलिए वा ॥ जयधवल पु. १ पृ. २५९ सभी नय अपने-अपने विषय का कथन करने में समीचीन (सच्ची) हैं, किसी भी नय का विषय उस नय की दृष्टि से झूठा नहीं है।
इसीलिए श्री वीरसेन स्वामी कहते हैं कि व्यवहारनय को असत्य कहना ठीक नहीं है।
'च ववहारणओ चप्पलओ, तत्तो ववहाराणुसारि सिस्साण पउत्तिसणावो। जो बहुजीवाणुग्गहकारीववहारणो सो चेव समस्सिदम्वो त्ति मरणेणावहारिय गोदमथेरेण मंगलं तस्य कयं ।' जयधवल पु. १ पृ. ८
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