Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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"प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः ।" जयधवल पु० १ पृ० २१०
अर्थ--जो प्रमाण के द्वारा प्रकाशित किये गये अर्थ के विशेष का अर्थात किसी एक धर्म का कथन करता है, वह 'नय' है।
"सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीनः इति ।" सर्वार्थ सि० ११६
अर्थ-सकलादेश (सम्पूर्ण धर्मों को विषय करना) प्रमाण के आधीन है और विकलादेश ( एक धर्म को विषय करना ) नय के आधीन है। श्री स्वामिकातिकेय ने नय का लक्षण इस प्रकार कहा है
णाणा-धम्म-जुदं पि य एवं धम्म पि वुच्चदे अत्थं ।
तस्सेय विवक्खादो गस्थि विवक्खा हु सेसाणं ॥२६४॥ अर्थ-यद्यपि पदार्थ नाना धर्मों से युक्त है तथापि नय एक धर्म को ही कहता है, क्योंकि उस धर्म की विवक्षा है, शेष नयों की विवक्षा नहीं है।
उच्चारयम्मि दु पदे णिक्खेवं वा कयं तु वळूण । अत्थं णयंति ते तच्चदो त्ति तम्हा णया मणिदा ॥११८॥ जयधवल पु. १ पृ. २५९
अर्थ-पद के उच्चारण करने पर और उसमें किये गये निक्षेप को देखकर अर्थात् समझकर यहाँ पर इस पद का क्या अर्थ है इस प्रकार ठीक रीति से अर्थ तक पहुंचा देते हैं अर्थात् ठीक-ठीक अर्थ का ज्ञान कराते हैं इसलिये वे 'नय' कहलाते हैं।
इस पार्षवाक्य से इतना स्पष्ट हो जाता है कि निश्चयनय व व्यवहार नय इन दोनों नयों में से प्रत्येक नय अर्थ ( पदार्थ ) का ठीक-ठीक बोध कराता है।
___ वस्तु के किसी एक धर्म की विवक्षा से जो लोक व्यवहार को साधता है वह नय है। जो लोक व्यवहार की सिद्धि में सहायक नहीं, वह नय नहीं है । कहा भी है
लोयाणं ववहारं धम्मविवक्खाइ जो पसाहेदि ।
सुय-णाणस्स वियप्पो सो वि णओ लिंग-संभूवो ॥२६३॥ स्वा. का. अर्थ-जो वस्तु के एक धर्म को विवक्षा से लोक व्यवहार को साधता है वह नय है। नय श्रुतज्ञान का भेद है तथा लिंग से उत्पन्न होता है ।
'न्यायश्चर्यते लोकसंव्यवहारप्रसिद्ध्यर्थम्, यत्र स नास्ति न स न्यायः फलरहितत्वात् ।' ज.ध.पु. १ पृ. ३७२
अर्थ-नय का अनुसरण भी लोक व्यवहार की प्रसिद्धि के लिये किया जाता है। परन्तु जो लोकव्यवहार की सिद्धि में सहायक नहीं है वह नय नहीं है, क्योंकि उसका कोई फल नहीं पाया जाता है । समस्त व्यवहार की सिद्धि सुनय से होती है । सुनय और कुनय का लक्षण इस प्रकार है
ते सावेक्खा सुणया हिरवेक्खा ते वि दुग्णया होति । सयल-ववहार-सिद्धी सुणयादो होदि णियमेण ॥२६६।।
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