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__ हिंदी-ग्रंथ-रत्नाकर' और उसके मालिक
२१ काम के लोभ के कारण और प्रेस पर ध्यान बट जाने के कारण 'मनोरजन' जहाँ पहले एकाध महीना लेट निकलता था वहाँ अव दो-दो महीने लेट निकलने लगा और कार्याधिक्य और चिन्ता के कारण उनकी मृत्यु हो गई। यहाँ कर्नाटक प्रेस की वह मशीन वेकार पड़ी रही और कर्ज को चिन्ता के मारे गणपति राव की मृत्यु हो गई । इन घटनाओ ने दादा पर वडा प्रभाव डाला। उन्होने प्रतिज्ञा की कि अपनी ज़िन्दगी में मै कभी प्रेस नही करूँगा। घर का प्रेस होने पर उममे चाहे छपाई अच्छी हो या बुरी अपनी पुस्तकें छापनी ही पडती है। दूसरे उस पर ध्यान बट जाने पर अपना सशोधन वगैरह का कार्य ढीला पड़ जाता है। तीसरे प्रेस को हमेशा काम देते रहने की चिन्ता के कारण अच्छी-बुरी मभी तरह की पुस्तके प्रकाशित करनी पडती है और इस तरह यश मे धव्वा लगता है । नियमित काम देने पर जोरेट किसी भी प्रेस से पाये जा सकते हैं वे हमेशा उससे कम होते है, जो रकम का व्याज वाद देने पर घरू प्रेस करने पर घर में पड़ सकते है।
(४) सद्व्यवहार-दादा का व्यवहार अपने लेखको, अपने सहयोगी प्रकाशको और मित्रो मे अच्छा रहा है। इस व्यवहार की कुजी रही है गम खाना । पर वे कभी किसी ने दवे नहीं है, न कभी किसी की चापलूसी ही उन्होने की है । प्रकाशको को उन्होने अपना प्रतिस्पर्धी नहीं समझा । अनेक वार ऐमा'हुआ है कि कोई नई पुस्तक प्रकाशन के लिए आई है और उसी वक्त कोई प्रकाशक-मित्र उनके पास आये है । उन्होने कहा है कि यह पुस्तक तो प्रकाशन के लिए मुझे दे दीजिए और उसी वक्त खुशी-खुशी दादा ने वह पुस्तक उन्हें दे दी। कभी कोई पुस्तक खुद न छपा मके तो दूसरे प्रकाशको मे प्रवन्ध कर दिया। इसी तरह सव गर्ने त हो जाने पर लेखक का हक न रह जाने पर भी अगर कभी लेखक ने कोई उत्रित मांग की है तो उन्होने उमे तुरन्त पूरा किया है। किसी भी लेखक की कोई पुस्तक उन्होने दवाकर नहीं रक्खी । पढकर उसे नुरन्त वापिस कर दिया है। हमेगा उन्होने सव से निर्लोभिता और उदारता का व्यवहार रक्खा है।
अन्त मे अव मै 'हिन्दी-ग्रन्य-रत्नाकर' की कुछ विशेषतायो का दिग्दर्शन कराना उचित समझता हूँ।
'हिंदी-ग्रन्थ-रत्नाकर' मे हिन्दी के अधिकाश लेखको की पहली चीजे निकली है । स्वर्गीय प्रेमचन्द्र जी की सबसे पहली रचनाएँ 'नव निधि' और 'मप्तसरोज' करीव-करीव एक साथ या कुछ आगे-पीछे निकली थी। जैनेन्द्र जी, चतुरसेन जी शास्त्री, सुदर्शन जी वगैरह की पहली रचनाएँ 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' से ही निकली। 'हिन्दी-ग्रन्थरत्नाकर' के नाम की इतनी प्रतिष्ठा है कि हम अपनी पुस्तके बेचने के लिए न आलोचको की खुशामद करनी पडती है और न विशेप विज्ञापन ही करना पडता है । 'हिन्दी-अन्य-रत्नाकर' का नाम ही उसके लिए उत्तम चीज़ का प्रत्यय होता है । लेखक की पहले से विशेष प्रमिहि हो, इसकी भी जरूरत नहीं होती। हमारे यहाँ आकर लेखक अपने आप प्रसिद्ध हो जाता है । आलोचनार्थ पुस्तके भी हमारे यहाँ से बहुत कम भेजी जाती है। हिन्दी के बहुत से बडे आदमी अपना हक समझते है कि आलोचना के बहाने उन्हें मुफ्त मे कितावें मिला करे। ऐसे लोगो से दादा को बडी चिढ है । उन्हें वे शायद ही कभी किताव भेजते है । पत्रो के पास भी आलोचना के लिए किनावें कम ही भेजी जाती है। पहले जव आलोचनायो का प्रभाव था और ईमानदार समालोचक थे तव जरूर दादा उनकी बडी फिक्र करते थे और आलोचनामो की कतरने रखते थे और सूचीपत्र में उनका उपयोग भी करते थे। अब केवल खास-खास व्यक्तियो को, जिन पर दादा की श्रद्वा है, आलोचना के लिए किताबें भेजी जाती है । इसकी जरूरन नही समझी जाती कि वह आलोचना किमी पत्र में छपे । उनका हस्तलिखित पत्र ही इसके लिए काफी होता है और जरूरत पड़ने पर उसका विज्ञापन में उपयोग कर लिया जाता है । वम्बई]