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सप्त कुव्यसन परित्याग ...: दशम अध्याय प्रश्न- जैनशास्त्रों ने आत्म-गुण-घातक कौन-कौन से भयंकर दोष बतलाएं हैं? उत्तर- एक बार एक प्राचार्य से पूछा गया कि "किं जीवनम् ! "
जीवन क्या है! नाचार्य ने सरल और स्पष्ट भाषा में कहा 'दोष वर्जित . : यत्" अर्थात दोषों का परित्याग करके जीना ही जीवन है। दोष .: जीवन के लिए कलंक है, काले धब्बे हैं । दोषयुक्त जीवन स्व और पर १. सब के लिए खतरनाक है। इसलिए दोषों की कालिख को धोकर .. जोवन-चादर को उज्ज्वल, समुज्ज्वल बनाना चाहिए। ऐसे दाष तो
• अनेक हैं। उनकी गणना करके निश्चित संख्या वताना कठिन है । फिर . भी पूर्वाचार्यों ने सात दोष भयंकर कहे हैं। उन से बच कर चला जाए ... तो मनुष्य अनेक दोषों से अपने आप को बचा सकता है,अपने जीवनको __ साधना के पथ पर आगे बढ़ा सकता है। यों भी कह सकते हैं कि सात
दोषों का परित्याग करने पर ही जीवन में आध्यात्मिक ज्योति जग सकती है, मनुष्य के अन्र्तमन में धर्म को भावना उद्बुद्ध हो सकती है।
अंतः साधना के पथ पर गतिशील व्यक्ति को सात दोषों का परित्याग .. करना जरूरी है। इन दोषों को जैन परिभाषा में सात कुव्यसन
कहते हैं । वे इस प्रकार हैं- १-जूना, २-मांस, ३-मदिरा, ४-वेश्यागमन
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