Book Title: Pragnapana Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रथम प्रज्ञापना पद अरूपी अजीव प्रज्ञापना
धर्मास्तिकाय - स्वभाव से ही गति परिणाम को प्राप्त हुए जीव और पुद्गलों के गति स्वभाव को जो धारण (पोषण) करता है, वह धर्म कहलाता है । अस्ति अर्थात् प्रदेश और काय अर्थात् समूह अस्तिकाय अर्थात् प्रदेशों का समूह। धर्म रूप अस्तिकाय धर्मास्तिकाय कहलाता है।
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धर्मास्तिकाय का देश - धर्मास्तिकाय के बुद्धि कल्पित दो, तीन संख्यात प्रदेशों का विभाग ।
धर्मास्तिकाय का प्रदेश - धर्मास्तिकाय का अत्यन्त सूक्ष्म निर्विकल्प (जिसके दूसरे भाग की कल्पना नहीं की जा सके ऐसा ) विभाग। धर्मास्तिकाय के प्रदेश असंख्यात हैं जो लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण है। इसलिए यहाँ 'पयेसा' (बहुवचन) शब्द दिया है।
अधर्मास्तिकाय - धर्मास्तिकाय का प्रतिपक्ष अधर्मास्तिकाय है । स्थिति परिणाम को प्राप्त हुए जीव और पुद्गलों की स्थिति में सहायक, अमूर्त असंख्यात प्रदेशों का समूह रूप अधर्मास्तिकाय है। अधर्मास्तिकाय का देश और अधर्मास्तिकाय का प्रदेश धर्मास्तिकाय की तरह समझ लेना चाहिये ।
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आकाशास्तिकाय - "आङ् इति मर्यादा अभिविधौ च "
अर्थ - आङ् अव्यय के दो अर्थ होते हैं - यथा - मर्यादा और अभिविधि । यहाँ पर दोनों अर्थों को लेकर टीकाकार ने "आकाश" शब्द की व्युत्पत्ति की है यथा
'आङ् इति मर्यादया स्वस्वभावापरित्यागरूपया काशन्ते स्वरूपेण प्रतिभासन्ते अस्मिन् व्यवस्थिताः पदार्था इति आकाशम् । यदा तु अभिविधौ आङ् तदा आङ् इति सर्वभाव अभिव्याप्त्या 'काशते इति आकाशम् ।'
अर्थ- जिसमें पदार्थ अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोडने रूप मर्यादा से प्रतिभासित होते हैं वह आकाश है। यदि "आ" अभिविधि व्याप्ति के अर्थ में हो तब जो सब पदार्थों में अभिव्याप्त होकर प्रतिभासित होता हो वह आकाश है। उसके प्रदेशों का समूह आकाशास्तिकाय है । आकाशास्तिकाय के देश और प्रदेश का अर्थ पहले की तरह जान लेना चाहिए किन्तु इतना फरक है कि आकाशास्तिकाय के प्रदेश अनन्त होते हैं। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय सम्पूर्ण लोकव्यापी होता है । उनके असंख्यात प्रदेश होते हैं । किन्तु आकाशास्तिकाय लोक और अलोक दोनों में व्याप्त हैं इसलिए उसके प्रदेश अनन्त होते हैं। क्योंकि अलोक अनन्त है । उसका अन्त नहीं आता है।
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अद्धा समय- अद्धा - यह काल की संज्ञा है । अद्धा रूप समय अद्धा समय है । अथवा अद्धाकाल का समय-निर्विभाग भाग अद्धा समय है । यह काल वास्तविक रूप से एक ही वर्तमान समय रूप
अतीत और अनागत समय रूप नहीं क्योंकि अतीत (भूतकाल ) काल तो बीत चुका है और अनागत (भविष्यत्) काल अभी उत्पन्न ही नहीं हुआ है। इसलिए दोनों अर्थात् भूतकाल और भविष्यत् काल अविद्यमान है।
क्योंकि काल के सबसे छोटे निर्विभाग अर्थात् जिसके फिर दो विभाग नहीं हो सके ऐसे
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