Book Title: Nal Damayanti
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Purnanandvijay

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ अदृश्य बनकर कन्या के महल में जा सकोगे / बाहर की कुछ भी बाधा तुम्हें सताने पायेगी नहीं। सूचना इतनी है कि यह मेरा कार्य सर्वथा निश्छल बनकर करना होगा। ऐसे अवसर पर इन्सान मात्र को चिन्तित होना स्वाभाविक है कि, जिस कन्या से मै विवाहित होना चाहता हूँ और दूसरे का दूत्यकर्म भी मुझे करना है भगवान जानें क्या होगा ? मुझे पूर्ण विश्वास है कि वरमाला पहिनाने में कनकवती भूल करेगी नहीं। फिर तो भवितव्यता वलवती है। स्वीकार किये हुए कार्य में सत्यव्यहवार ही भवितव्यता को पलटने में समर्थ है अत: कन्या चाहे किसी का भी वरण करें मुझे मेरा सत्यमार्ग नीतिकी मर्यादा तथा बोलने चालने में किसी भी प्रकार का सेलभेल नही करना है। - ऐसा निर्णय करके राजाशाही वस्त्र-आभूषण मेकअप आदि उतार दिये और दूत के योग्य वस्त्रादि का परिधान कर कुबेर के सामने उपस्थित हुए। वसुदेव' को उन्होंने कहा इतनी बढ़िया वेषभूषा उतार कर मामूली वेष परिधान क्यों किया ? वसुदेवने जवाब में कहा 'दूतकार्य में सुंदर वेषादि की आवश्यकता नही है परंतु बोलने की वाक्छटा ही कार्यकारिणी बनती है वह मेरे पास है आप निश्चित रहे / वसुदेव भी कन्या के महल की तरफ गये . राजकन्या का महल देखकर वसुदेव चकाचौंध हो गया, प्रत्येक वस्तु का निरीक्षण करता हूआ सातवें मंजिल पर पहुंचा जहां पर राजकन्या तस्वीर के सामने एकाग्र बनकर बैठी हुई थी अकस्मात् अपने महल में आये हुए पुरुष को देखकर आश्चर्य में डूबी हुई कन्या एक ने दृष्टि आगन्तुक पर और दूसरी दृष्टि तस्वीर पर डाली, हँस के कथनानुसार राजकन्या समझ गई की आनेवाला पुरुष वसुदेव ही है / तब वह राजकन्या लज्जालु बनकर आसन से खड़ी होती है और वसुदेव से कहती है, 'मेरे भाग्य का ही यह फल है, जिससे आप महलपर पधारे हैं। मैं आपकी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132