Book Title: Nal Damayanti
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Purnanandvijay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *********** ************* // अहम् // शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्री विजय धर्मसूरीश्वराय नमः नल-दमयंती मा.श्री केलाममागर मृरि ज्ञान मंदिर श्री महामार जेन आगधमा न्द्र, कोबा मा.क. लेखक : शासनदीपक, मुनिराज श्री विद्याविजयजी म. के शिष्य पंन्यास पूर्णानन्द विजयजी (कुमारश्रमण) P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनधन की प्राप्ति कहां से और कैसे होगी ? - दुनिया भर के किसी भी बाजार से हीरे, मोती, सुवर्ण, चांदी, =आदि नगद नारायण की प्राप्ति करने में किसी को भी कठीन नहीं / है, परन्तु अपन सब जानते है कि, भौतिकवाद कभी भी विश्वासघात करने के साथ-साथ घर में, कुटुंव में, समाज में तथा देश में वैरविरोध, मारकाट, टंटे फिसाद तथा Man its Man को सत्यार्थ करने देर नहीं लगाता है / जब आध्यात्मिकवाद के जरिये जीवन- / . धन की प्राप्ति सरल और सुलभ बनेगी और साथ-साथ इन्सानियत मानवता, दैवी संपत्ति तथा सात्विक भाव का अमर वारसा भी आसानी से प्राप्त होगा / यदि आपको इसे प्राप्त करना है तो इस पुस्तक को आदि से अन्त तक पढे बिना दूसरा मार्ग नहीं है। खूब याद रखे कि, कथा तो केप्सुल है, जिसमें जीवनधन नाम का अमर औषध भरा हुआ है / वृद्धों का कहना है कि, नलदमयंती की कथा करना, सुनना और सुनाना पुण्यानुबंधी पुण्य का मौलिक कारण है। व्याख्यान, स्वाध्याय तथा जैनागम को जानने की इच्छा रखने-) वालों पू. साधु, साध्वीजी महाराजों के लिये तथा घर में बैठे-बैठे जैनशासन स्याद्वाद, अहिंसा, संयम, कर्मवाद, कर्मविपाक आदि तत्वों की जानकारी प्राप्त करने के लिये, अन्तिम पृष्ठ पर सूचित किये आगमीय ग्रन्थों को अपने घर पर वसाने की शीघ्रता करें। लेखक पंन्यास श्री पूर्णानन्द विजयजी (कुमारश्रमण) P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण सर्वथा अजोड़, नयनरम्य, चित्ताकर्षक, श्री राणकपूरजी के जिन मंदिर में विराजमान, अरिहंत परमात्माओं को द्रव्य तथा भावपूर्वक मेरा नमस्कार होवे / बावनजिनालय में विराजमान श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ परमात्मा को मेरा कोटिशः वन्दन होवे / सादडी की पवित्रभूमि से दीक्षित हुए मुनिराजों को तथा साध्वीजी महाराजों को मेरी भाव वन्दना होवे / ___मैं भी इसी भूमि की मिट्टी में जन्मा होने से सादडी (राजस्थान) संघ के करकमलों में यह पुस्तक समर्पित करते हुए मुझे पूर्ण आनन्द हो रहा है / 2046 पौष दशमी लि. पं. पूर्णानन्द विजय (कुमार श्रमण) C/o. शांतिनाथ जैन देरासर, दादर, बम्बई - 400 028. PP A Gunratnasuri M.S. -Jun-ComAaradurakes Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * लेखकीय निवेदन * कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य रचित त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र के 8-9 पर्व के सम्पादन समय में उसके तीसरे सर्ग में नलदमयंती का जीवन चरित्र देखा, पढा और ज्यों-ज्यों हृदयंगम होता गया, तभी से उसका भाषानुवाद करने की इच्छा प्राप्त हुई / वही अनुवाद आगरा (य. पी.) से प्रकाशित श्वेतांबर जैन साप्ताहिक पत्र के प्रत्येक अंक में प्रकाशित होता रहा है / एतदथं उसं पत्र के मालिक, श्रीमान् जवाहरलालजी लोढा और उनके सुपुत्र श्री वीरेन्द्रकुमार की सहृदयता तथा उदारता का मैं ऋणी हूँ। साप्ताहिक पढ़नेवाले सभी को यह कथा खूब . पसन्द पड़ी थी / आज उसे पुस्तकारूढ करने का अवसर मिला जो दूसरी आवृत्ति में आपके सामने है / . ... __कथा का अन्तस्तल रोचक तथा औपदेशिक होते हुए भी नारीजाति के आभ्यन्तर जीवन का सर्वग्राह्य आलेखन अपने ढंग में निराला ही प्रतीत होता है / वस्तुतः नारी केवल ढींगली या भोग्य नहीं है, अपितु जगदंबा है, नारायणी है तथा राम, कृष्ण, महावीर स्वामी, हनुमान, सीता, राजीमति, चन्दनबाला तथा वस्तुपाल-तेजपाल भामाषा महात्मा गांधी आदि को जन्म देनेवाली रत्नकुक्षि है। जिस देश में, समाज में, कुटुंब में नारीजाति तिरस्कृत तथा अपमानित होती हैं तथा गंदी नजर से देखी जाती है, इतिहास साक्षी दे रहा है कि, उस कुटुंब समाज तथा देश ने हर हालत में भी उन्नति का शिखर प्राप्त किया नहीं है, करता नहीं है और करेगा भी नहीं, क्योंकि पुरुष जाति के दुर्गुणों का निर्यात तथा सद्गुणों का आयात का मौलिक कारण ही माता है / सतीत्व सम्पन्न दमयंती का जीवन ही अपने को साक्षी दे रहा है कि, नारी जीवन में विकसीत शक्तियां बिगड़े हुए देश की, समाज की तथा कुटुंव की सेवा करने में कितना सफल बनने पाया है। फलस्वरुप आज भी इन्सान मात्र सती शिरोमणी नारीओं का बहुमानपूर्वक सत्कार करने में गौरव का अनुभव तो करता ही है, साथ-साथ ऐसी कन्याएँ मेरे खानदान में जन्मे ऐसी प्रार्थना भी परमात्मा से करता रहता है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुष यदि कम पढ़ेगा तो भी समाज, देश तथा कुटुंब को कुछ भी हानि होनेवाली नहीं है, परन्तु कन्याओं को सत्य, सदाचार तथा ग्रार्हस्थ्य जीवन की पवित्रता का शिक्षण नहीं मिलने पाया तो देशसमाज तथा कुटुंब की जो हानी होगी, उसकी भरपाई शताब्दीयों में भी होनेवाली नहीं है / प्रत्येक इन्सान अपना-अपना धर्म समझे इसी में ही मानव जीवन की यात्रा की फलश्रुति है / वह जिस प्रकार से भी प्राप्त हो उसी का नाम है, सम्यक्ज्ञान, विज्ञान, एज्युकेशन तथा सम्यक् चारित्र / नारी जाति के बहुमान तथा सत्कार का चरित्रार्थ यही है कि, अपनी विवाहित पत्नी को छोड़कर शेष, भाभी, साली, सहपाठिनी, विद्यार्थिनी, पडोसन, नौकरानी आदि नारीओं के प्रति मातृत्वदृष्टि, पवित्र भाव तथा उन्हें गन्दे इन्सानों से सुरक्षित रखता है। वह चाहे किसी भी जाति की हो, यदि पवित्र रहेगी अथवा रखी जायेगी, तो उसकी संतान भी पवित्र तथा चारित्र सम्पन्न बनेगी जो देश, समाज तथा कुटुंब की रक्षा करने में समर्थ बन पायेगी। "चिरंजीयात् चिरंजीयात् देशोऽयं धर्मरक्षणात्" धर्म की रक्षा करने में ही देश आवाद तथा आजाद है / धर्म का अर्थ संप्रदायवाद या कोरी तात्विक चर्चा नहीं है, परन्तु जीवन के रोम-रोम में से हिंसक भाव, मृषावाद, चौर्य, दुराचार, कुकर्म, गंदी चेष्टा का त्याग तथा परिग्रह को मर्यादित करना है / क्योंकि पाप का बाप (Father) ही लोभ परिग्रह है। "धारणाद्धर्म उच्चते" पापी भावनाओं से तथा पापमार्ग से आत्मा बुद्धि मन तथा इन्द्रियों को बचावे उसी का नाम है धर्म व धार्मिकता। "स्वधर्मे निधनं श्रेय" का तात्पर्य भी यही है कि, 'स्व' अर्थात आत्मा उसका धर्म, अहिंसा, संयम तथा सात्विक तपश्चर्या के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं है ।अर्थात् इन तीनों तत्वों को जीवन के अणुअणु में उतारना इसी का नाम है स्वधर्म / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "Do not kill any body' का सत्यार्थ भी यही है कि, जीवमात्र के प्रति मारकाट, ईर्ष्या, वैरझेर तथा गंदे भावों का त्याग करना। देव, देवल, मंदिर, मस्जिद तथा चर्च में जाने का कारण यही है कि, नर नारायण बने, जीव शिव बने, आत्मा-परमात्मा बने और खुद में से खुदा बने तदुपरान्त किसी भी जाति के, देश के, और संप्रदाय के इन्सान में से 'Dog' तत्व नाबुद होकर God भाव की प्रादुर्भूति होने पावे / “सीमाधरस्स वन्दे" की फलश्रुति है, पापमार्ग में, गन्दे भाव में, असभ्य चेष्टा में तथा जीवन के पतनमार्ग में गई हुई इन्द्रियों को, मन को, शरीर को बचाकर उन्हें Him Self अर्थात् कंट्रोल में लेने, मर्यादा में लेने तथा संयमित करने के अलावा दूसरा धर्म कौनसा ? बस ! यही है, देव दुर्लभ मानवावतार की मानवता जो मनुष्य शरीरधारी सभी के जीवन में विकसित बने इसी मानवीय भावना के साथ विराम लेता हूँ। ____ नलदमयंती का जीवन ही सभी का ध्येय बने, लक्ष्य बने तथा ध्रुव का तारा बने यही हितकामना है / पुस्तक छपवाने में द्रव्य सहायक बननेवाले भाग्यशालीयों को खूब-खूब धन्यवाद है / प्रेस के मालिक को भी धन्यवाद है / लि., पं. पूर्णानन्द विजय (कुमारश्रमण) C/o. श्री सुपार्श्वनाथ जैन मंदिर नवीचाल, भिवंडी (थाना) 421302 2043 कार्तिक पूर्णिमा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " M * अनुक्रमणिका - कनकवती का जन्म राजहंस का आगमण दमयंती का जन्म दमयंती का रुपगरिमा दमयंती का स्वयंवर कृष्णराज की धष्टता दाम्पत्य जीवन राज्याभिषक . सात व्यसन नलराजा का कनवास दमयंती विहवलता दमयंती का त्याग दमयंती को आया हुआ स्वप्न सतीत्व के प्रभाव से सार्थवाह का रक्षण राक्षस का पराजय | गफावासिनी दमयंती . . तापसों का हृदय परिवर्तन देव का आगमन नमस्कार महामंत्र का प्रभाव भयंकर राक्षसी के सामने दमयंती सार्थवाह से मिलन सतीत्व का अचिन्त्य प्रभाव ऋतुपर्ण राजा की दासीएँ दानशाला में दमयंती का आगमन / इन्सान के चार प्रकार चोर को फांसी से छुड़वाना राजा को राजनीति समझाती दमयंती नलदमयंती की खोज में राजबटुक का प्रस्थान पिता पुत्री का मिलन नलराजा की दशा MMMM - 7777 IIIIIEI 4560658 PIPA Gammatrnarstrinivine Jam-G itaranthali Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रक पंक्ति अशुद्ध 10 . ii - शुद्ध गुणोपेत क्योंकि कन्या की आजवह चिताविष्ट झंकार पापभीरुता जीव को आयुष्य आराधित is तथा worrrrrrrrrrr>>>>>>>>>>>> गणीपेत योंकि कन्या आज चिन्ताविष्ट झनाकार पापभीरता जीव की आमुष्य आधारित तथी भमंकर राजाओं की गय मुश्कली छोट पवित्र निकचित अपभ्राज कर्तव्य जंगल म M2MMor M2MMMr >> vur My 2009 942 भयंकर राजाओं के गये मुश्किली छोटे पवित्रता निकाचित अपभ्राजन कर्तव्य है जंगल में 15 41. 43. 44, करे 44. 45. 48. 49. वने पडाव से आयुष्यकर्स उतावली कर बनावे पडाव में आयुष्यकर्म उतावल * P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ S 54. 56. 56. & 1 ง **, * * 9 60. : करते 62. 63... .. .64... 74. 75. :: 76. 78. अशुद्ध नेजी तेजी द्वादशावर्ध द्वादशावर्त धम धर्म अवसर का का अवसर पतिक्रमण प्रतिक्रमण अपस्मित अपरिमित कन कव करण पति का पति की अव अतः, किलोत्तमा तिलोत्तमा अस्पता अल्पता विधान विधाने कलह / कल बदले में बदले में किस्मत बदकिस्मत मिथ्यात्य से घोरतिघोर मिथ्यात्व के घोरातिघोर पूर्वभव को पूर्वभव की जनता स जनता से दनाल दयाल जमीन से कपड़े से जोवित जीवित सावनानी सामने समान आदर्शनीय अदर्शनीय रास्ते के रास्ते के एक आ आप वृद्ध वक्ष आदर्शनीय अदर्शनीय 79. : 81. 10 12 6 01 Vvv or 25 100. 108.. 111. 114. सावधानी mr 120. Mr 125. 125. موسی 126. 127. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहम् // शास्त्र विशारद, जैनाचार्य श्री विजय धर्म सूरि गुरु देवाय नमः : कनकवती का जन्म : इसी भरत क्षेत्र में विद्याधरों की नगरी से स्पर्धा करनेवाला पेढालपुर नाम का नगर था। जिसकी शोभा, ऐश्वर्य तथा हाट हवेलीओं की बांधनी नयनरम्य थी। देवों की अमरावती भी यद्यपि स्मरणीय थी तथापि जैनधर्म की आराधना वहां पर न होने से उसकी अपेक्षा पेढालपुर नगर देवों के लिए भी सराहनीय था। यहां की जनता अहिंसा-संयम तथा तपोधर्म की अनुरागिणी थी / उसमें ऋद्धि-समृद्धियश-कीर्ति तथा लक्ष्मीदेवी और सरस्वती देवी का भी चिरस्थायी वास था। उस नगरीमें सत्य-सदाचारादि गणीपेत हरिश्चंद्र नामका राजा राज्य करता था, जो इन्द्रिय जय, न्यायनीति आदि गुणों से युक्त होने पर भी पराक्रमशाली था / लक्ष्मी की तरह यश तथा कीर्ति का भी वह स्वामी था। उस राजा की शील-लज्जा-प्रेम-दक्षता-उदारता तथा विनय विवेक संपन्न लक्ष्मीदेवी नाम की रानी थी, जो जंगमवल्ली के समान 64 कलाओं से पल्लवित, लज्जा आदि गुणों से पुष्पित तथा पतिव्रता धर्म से फलित थी। एक समय शुभमुहुर्त में उसने एक पुत्री को जन्म दिया। र प्रथमस्वर्ग के इन्द्रमहाराज के लोकपाल कुबेरदेव जो उत्तर दिशा पर प्रमुत्व रखते थे, वे जन्म लेनेवाली इस लड़की के पूर्वभवीय पति होने के नाते स्नेहवश हरिश्चंद्र राजा के महल में हीरे, मोती, सुवर्ण-रजत आदि की वर्षा की। अतः राजा रानी को पुत्री का जन्म आनंदमय बन गया / बारहवें दिन उसका नाम कनकवती रखा गया, दूज के चंद्र के समान बड़ी हुई और शस्त्र तथा शास्त्र विद्या उपरांत तर्क, कर्मग्रंथव्याकरण कोषादि के ज्ञान सम्पादन में वह प्रथम अग्रेसर रही। रुप लावण्य भी अद्वितीय था। जब वह यौवनवती हुई तब उसके लिए वर की खोज में अपने दूत चारों तरफ भेजकर राजकुंवरों के फोटो मंगवाये गये / परीक्षण करने के पश्चात एक भी राजकुंवर पसंद नहीं आया था। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजहंस का आगमन एक दिन अपनी सखियों के बीच आनंद- प्रमोद करती हुई राजकन्या की गोद में एक राजहंस आकर बैठ गया / सवको आश्चर्य हुआ। राजकन्याने बड़े प्रेम से उस पक्षी पर हाथ फिराया / हंस बहुत ही सुन्दर, शोभनीय तथा देवताई गुणों से युक्त होने के कारण राजकन्या को उसपर मोहित होना स्वाभाविक था। जूदे-जूदे आभूषणों से सज्जित उस राजहंस को देखकर कन्या ने विचारा कि, यह हंस किसी बड़े पुण्यशाली के विनोद का पात्र है अन्यथा जिस पशु-पक्षी का कोई स्वामी नहीं होता वह आभूषण से युक्त भी नहीं होता है। यह चाहे किसी राजा महाराजा का हो तथापि मेरा मन भी चाहता है कि, यह हंस मेरे भी विनोद का कारण बने / ऐसा सोचकर अपनी दासी को काष्ठपिंजर लाने का आदेश दिया जिससे राजहंस को उसमें रख दिया जाय। योंकि पक्षी प्रायः एक स्थान पर स्थिर नहीं रहने पाता है। दासी पिंजर लाने गई, तब मनुष्यभाषा में वह हंस बोला, राजपुत्री ! तुम विवेकवती हो धर्म-कर्म को जानती हो इसलिए पिंजरे में कैद करने का प्रयत्न मत करो / मैं तुम्हें तुम्हारे हित की कुछ बात सुनाने आया हूँ / पक्षी को मनुष्यभाषा में बोलते देखकर विस्मित हुई राजकन्याने कहा- हंस ! तुम्हारा स्वागत हो, तुम मेरे लिये अतिथि हो / अब आप जो बात मुझसे करना चाहते हो उसको कहिए क्योंकि अधूरी बात पूर्ण करनी वह शक्कर से भी ज्यादा मीठी होती है। हंसने कहा कि, इस समय पूरे भारत देश में वसुदेव के समान दूसरा कोई भी रुपवान बलवान, तेजस्वी युवक नहीं है, और तुम भी रुपसंपत्ति से पूर्ण हो अतः तुम दोनों का मिलन ईश्वर का आशीर्वाद ही माना जायेगा। क्योंकि P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम दोनों के वैभव-रुप-लावण्य का में प्रत्यक्ष साक्षी हूँ। इसीलिए मेरी सलाह है कि, स्वयंवर के समय तुम्हारी वरमाला वसुदेव के गले में पड़े। कनकवती खुश हुई, हृदय आनन्द से भर गया। आंखों में नई रोशनी आई. रोमराजी विकसित हुई। हंस ने कहा कि, वसुदेव भी तुम्हारे स्वयंबर में आयेंगे जो ताराओं के बीच चन्द्रमा मै समान पहचान में आने में तुम्हें समय नहीं लगेगा। अब मुझे छोड़ दो और पक्षी को पकड़ने के अपवाद से मुक्त बनो / राजपुत्री ने हंस को छोड़ दिया, तब उसने एक फोटू राजकन्या की गोद में फेका, आश्चर्यचकित बनी हुई कन्याने कहा कि, "वसुदेव को मेरा संदेश देना कि, तुम्हारे बिना कनकवती का जीवन सुरक्षित रहना संभव नहीं है / अतः स्वयंवर में जरुर पधारें।" जाते हुए भी विद्याधर ने कहा कि, 'हे कन्या! जो तुम्हारे महल में दूसरे का दूत बनकर आयेगा उसी को तुम वसुदेव' जानना और विद्याधर जैसे आया था, वैसे ही गया / आँख बंद कर कनकवतीने शासनदेव से प्रार्थना में कहा कि, विद्याधर का मार्ग अविघ्न बने और मेरा कार्य निर्विघ्न सफल बने / तदन्तर वसुदेव की तस्वीर के सामने तन्मय बन गई। सुखशथ्या पर सोये हुए वसुदेव राजा को असभ्य प्रकार से जगाना ठीक न समझकर विद्याधर ने पैर दबाना चालू किया और ज्योंही दूसरे का स्पर्श हुआ वसुदेव जागृत होकर विचारने लगे कि, रात के समय में मेरे महल पर आनेवाला कौन हो सकता है ? पगचंपी से मालूम होता है कि यह मेरा शत्रु नहीं है फिर भी सावधानी रखना गलत नहीं है। रतक्लांत सोई हुई धर्मपत्नी की नींद में विघ्न न पड़े इस प्रकार वसुदेव ने पलंग छोड़ा और विद्याधर से वार्तालाप किया, अन्त में इतना ही कहा कि, आज कृष्ण पक्षीया दशमी है और आनेवाली शुक्लपंचमी को स्वयंबर है, अतः आपका पधारना नितांत आवश्यक है, अन्यथा कनकवती का जीवित रहना असंभव है। वसुदेवने कहा कि, तुम P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदृश्य बनकर कन्या के महल में जा सकोगे / बाहर की कुछ भी बाधा तुम्हें सताने पायेगी नहीं। सूचना इतनी है कि यह मेरा कार्य सर्वथा निश्छल बनकर करना होगा। ऐसे अवसर पर इन्सान मात्र को चिन्तित होना स्वाभाविक है कि, जिस कन्या से मै विवाहित होना चाहता हूँ और दूसरे का दूत्यकर्म भी मुझे करना है भगवान जानें क्या होगा ? मुझे पूर्ण विश्वास है कि वरमाला पहिनाने में कनकवती भूल करेगी नहीं। फिर तो भवितव्यता वलवती है। स्वीकार किये हुए कार्य में सत्यव्यहवार ही भवितव्यता को पलटने में समर्थ है अत: कन्या चाहे किसी का भी वरण करें मुझे मेरा सत्यमार्ग नीतिकी मर्यादा तथा बोलने चालने में किसी भी प्रकार का सेलभेल नही करना है। - ऐसा निर्णय करके राजाशाही वस्त्र-आभूषण मेकअप आदि उतार दिये और दूत के योग्य वस्त्रादि का परिधान कर कुबेर के सामने उपस्थित हुए। वसुदेव' को उन्होंने कहा इतनी बढ़िया वेषभूषा उतार कर मामूली वेष परिधान क्यों किया ? वसुदेवने जवाब में कहा 'दूतकार्य में सुंदर वेषादि की आवश्यकता नही है परंतु बोलने की वाक्छटा ही कार्यकारिणी बनती है वह मेरे पास है आप निश्चित रहे / वसुदेव भी कन्या के महल की तरफ गये . राजकन्या का महल देखकर वसुदेव चकाचौंध हो गया, प्रत्येक वस्तु का निरीक्षण करता हूआ सातवें मंजिल पर पहुंचा जहां पर राजकन्या तस्वीर के सामने एकाग्र बनकर बैठी हुई थी अकस्मात् अपने महल में आये हुए पुरुष को देखकर आश्चर्य में डूबी हुई कन्या एक ने दृष्टि आगन्तुक पर और दूसरी दृष्टि तस्वीर पर डाली, हँस के कथनानुसार राजकन्या समझ गई की आनेवाला पुरुष वसुदेव ही है / तब वह राजकन्या लज्जालु बनकर आसन से खड़ी होती है और वसुदेव से कहती है, 'मेरे भाग्य का ही यह फल है, जिससे आप महलपर पधारे हैं। मैं आपकी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है आज देव हैं, मैं मनुष्य-स्त्री हूँ। जहाँपर मनुष्य की गंध भी देवों के लिए, असह्य है / नमनपूर्वक उनको कहना यद्यपि कनकवती आपके नाम पर मोहित है, अतः आपकी मूर्ति बनाकर आपकी पूजा कर सकती है परंतु इस भव' में आपके साथ मेरा संबंध नहीं बन सकता। निरुतर बने हुए वसुदेव जैसे आये थे वैसे ही चले गये / कुबेर से मिले तथा सब समाचार कह दिये / प्रसन्न होकर देवने कहा वसुदेव आप धन्यवाद के पात्र हो, आपकी सत्यता, निर्भयता और वफादारी पर मुझे अनहद | विश्वास हो चुका है, तदंतर अपने शरीर पर रहे हुए बहुत कुछ आभूषण वसुदेव' को दिये, वस्त्र दिये, सुगंधी पदार्थ भी दिये, जिसको -वसुदेव ने अपने शरीर पर धारण किया तब उनकी शोभा द्विगुणित हो गई। कनकवती के पिता हरिश्चंद्र राजा को जब मालूम हुआ कि, - मेरी पुत्री के स्वयंवर को देखने के लिए कुबेर देव पधारे हुए हैं, तब खुशी का मारा राजा उद्यान आया और प्रसन्नचित से बोला, जम्बूद्वीप के भारत देश में हीरे, मोती, पन्ने, पुखराज, माणिक्य, नील- मणि, स्फटिक मणि, सुवर्ण, रजत आदि मूल्यवान धातुओं पर आपका प्रभुत्व होने से तथा आप सम्यग्दृष्टि सम्पन्न होने से शुभ तथा शुद्ध अनुष्ठानों में दशदिक्पाल के पाटले पूजनमें आपकी पूजा, जाप आदि होते ही हैं, अतः आप सम्माननीय तथा आदरणीय है, आप इतने बड़े - वैमानिक देव होनेपर भी हमारे यहाँ पधारे हैं उसका हमें गौरव है / उसके पश्चात् स्वयंवर मंडप बनवाने की आज्ञा अच्छे कारागिरों को दी और उन्होंने नयन तथा हृदयरम्य मंडप का निर्माण किया। उससे - कुबेरदेव के योग्य सुवर्णासन रखवाया और भी स्वयंवर में आनेवाले राजा-महाराजाओं के योग्य सिंहासन रखवाये / इन्द्रसभा की तरह अतीव शोभायमान मंडप में कुबेरदेव अपने सम्पूर्ण परिवार के साथ आये P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . और सिंहासन पर आसीन हुए। वसुदेव राजा भी आये और देव के पास में रखे हुए सिंहासन पर बैठ गये और भी राजा तथा राजकुंवर अपनी-अपनी योग्यतानुसार विराजे / अभी भी कदाच विस्मृत तथा विस्मय बनकर राजकन्या मेरे गले में वरमाला डाले उस आशय से रत्नजडित मुद्रिका (वीटी) अपने हाथ से निकालकर वसुदेव की अगुली में पहिना दी तब उनका रुपरंग-वेष बोलना तथा देखावा सव देव के जैसा हो जाने से आश्चर्य से जनता ने निर्णय किया कि, देवने अपने दो रुप बनाये हैं अर्थात् देव तथा वसुदेव एक से ही दिखने लगे। उसी समय संपूर्ण श्रृंगार से सुशोभित राजकन्या हाथ में वरमाला लेकर मंच पर आई और चारों तरफ दृष्टि घुमाकर देखा परंतु हृदय का सम्राट, आंखों का तारा, मस्तिष्क का मुकुट वसुदेव राजा जब दृष्टि गोचर न हुआ तब हिरणी सी विहवल बनी हुई राजकन्या रोने की स्थिति में आ गई / दासी ने कहा कि, राजपुत्री! शीघ्रता से किसी भी राजकुंवर को पसंदकर अपनी वरमाला उनके गले में स्थापित करने में देर लगाना ठीक नहीं है / तब कन्या ने कहा कि, 'हे दासी !' जिसको मैं वर बनाना चाहती हुँ वे दिखाई नहीं दे रहे हैं / क्योंकि वर की पसंदगी इच्छानुसार होती है, ऐसा कहकर चिताविष्ट कन्या ने सुवर्ण सिंहासन पर आसीन कुबेर को देखा तव आँखों में पानी लाती हुई कन्या प्रणामपूर्वक बोली, 'हे देव ! मैं आपकी पूर्वभवीय पत्नी हुँ ऐसा मानकर आप मेरी मश्करी न करें। लग्नेच्छु कन्या की मश्करी करना आप जैसे विवेकी और समझदार को उचित नहीं है / मैं हृदय से वसुदेव को ही वर बनाने के लिए इच्छुक हैं। अतः आप मेरे पर का मोह छोड़ दीजिए क्योंकि आप भी दूसरे भव में मोक्ष पधारनेवाले P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं तथा मैं इसी भव में मोक्ष प्राप्त करुंगी। अतः आपका मेरा छ:-छः भवों का संबंध इस सातवें भव' में छूट जावे तो भी आप अपनी उदारता मत छोड़िये, ऐसा कहकर राजकन्याने अपना मस्तक कुवेर को झुका दिया / समझदार देवने भी वसुदेव से अपनी मुद्रिका ले ली। तब वसुदेव भी अपने असली स्वरुप में परावर्तित हो गये / यह देखकर दिल में खुशीयां मनाती हुई राजकन्या ने झांझर की झनाकार के साथ अपनी वरमाला वसुदेव के गले में स्थापित की तब आकाशस्थ देव देवीओंने भी कनकवती के मस्तकपर पुष्पों की वर्षा की। प्रसन्नचित्त कुबेरने भी राजकन्या के घर पर सुवर्गमुद्रा की वर्षा की और विधि विधान पूर्वक राजकन्या का हस्तमिलाप वसुदेव के साथ सम्पन्न हुआ। तदन्तर वसुदेव ने कुबेर से पूछा कि, मनुष्य कन्या के स्वयंवर में आप जैसे देव को आने का प्रयोजन मुझे कुतुहलसा लग रहा है, अतः कृपाकर आपके आनेका कारण बतलावें जिससे कुछ भी जानने को मिलेगा / तब कुबेर ने अपना तथा कनकवती का पूर्वभवीय संबंध इसप्रकार कहा : इसी भारत देश में स्थित 24 तीर्थकरों के शरीरप्रमाण अर्हत् बिम्बों में समलंकृत अप्टापद महातीर्थ के समीप संगर नामका नगर है। उसमें मम्मण नाम का राजा तथा वीरमती नाम की राणी थी। एक दिन अपनी वीरमती पत्नी के साथ वह राजा शिकार करने के लिए जिस रास्ते से जंगल में जा रहा था, उसी मार्ग पर से एक बड़ा भारी सार्थवाह (व्यापारी) अष्टापद तरफ जाते हुए दृष्टिगोचर हुआ। सम्यग्दृष्टि और सम्यग्बोध न होने के कारण हाथी, घोड़े, उंट, बलद, बैलगाड़ीएँ तथा पैदलचलनेवालों को जाने दिया, परंतु सब के पीछे चलनेवाले एक मुनिराज को देखकर राजारानी के मन में दुर्भाव हुआ, और सोचा कि शिकार के वास्ते जाते हुए मुझे इस साधु का अपशकुन हुआ, ऐसा समझकर परमपवित्र मुनिराज को सार्थवाह के टोले से छूटा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कराने हेतु रोक लिया, इसप्रकार बारह घड़ी (24 मिनिट 1 घड़ी) तक मुनि को उपसर्ग किये / परंतु राजारानी लघुकर्मी होने से मुनिजी को दिया हुआ कष्ट उनके दिल में खटकने लगा। मुनिओं का तिरस्कार अपमान तथा उनके धर्मानुष्ठानों में किया हुआ अंतराय पाप ही है, ऐसा ख्याल जब दंपती के मन में आया तब मुनिराज की माफी मांगी। और पूछा कि, आप कहां से पधारे हैं ? और कहां पर पधार रहे हैं / जवाब में मुनिजी ने कहा कि, रोहितक नगर से विहार कर में इस सार्थवाह के साथ अष्टापद पर्वत पर रहे हुए अरिहंत परमात्माओं की प्रतिमाओं को वंदन करने हेतु जा रहा था. परंतु आप श्रीमानों ने मेरा साथ छुड़वा दिया। क्योंकि धर्मकार्यों में, सत्य तथा सदाचार के सेवन में अंतराय कर्म का आना स्वाभाविक ही है। राजारानी ने पश्चाताप पूर्वक आश्वासन दिया और पुन: पुन: मन, वचन तथा काया से माफी मांगी / दंपती की भद्रिकता तथा पापभीस्ता देखकर मुनिजी को आनंद आया और दयाप्रधान जैनधर्म का उपदेश दिया। अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करते इस जीवात्मा के कान में धर्म-धार्मिकता-दयाअहिंसा तथा सत्य और सदाचार आदि शब्द नहीं पड़ने के कारण ही जीव की धर्माभिमुख होना दुर्लभ माना गया है, परंतु राजारानी की भवितव्यता पक गई होने से वे धर्माभिमुख बने तथा भक्तिपूर्वक भोजन पानी का दान देकर उत्तमोत्तम लाभ लिया। फिर तो मुनिराज का सान्निध्य ही उनका परमधर्म बन गया। तथापि सात्त्विक भाव जैसा होना चाहिये था वैसा न होने से राजसवृत्ति के मालिक राजाने सब परिजनों को दूर किया और स्वयं ने ही आहारपानी का लाभ और स्वयं ने ही धर्म का लाभ प्राप्त किया। इसप्रकार कर्म के रोगों से पीडित दंपती को धर्म के ज्ञान का औषध देकर राजा के भेजे हुए इन्सानों के साथ मुनिराज ने अष्टापदतीर्थ की तरफ विहार किया। - TILI 10 P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदंतर राजारानी ने भी व्रतधारिओं के साथ अपना संसर्ग बढा दिया, बारह व्रतों की आराधना में मन को लगा दिया। कृपण इन्सान जैसे अपने धन में हानि नहीं होने देता है, उसी प्रकार राजारानी ने अपने व्रतों में अतिचारों को लगने नहीं दिया, कदाच प्रमादवश अतिचार लगे ही तो सामायिक प्रतिक्रमण पूर्वक मिच्छामि दुक्कडं और फिर से अतिचार लगने न पावे उसके लिए सावधानी पूर्वक व्यवहार करने का निर्णय किया। एक दिन रानी वीरमती को जैनधर्म में ज्यादा स्थिर करने के लिए शासनदेवी आई और रानी को अष्टापद पर्वत पर ले गई। वहाँ पर देव-देवेंद्रों से पूजित भगवंतो की भव्यातिभव्य प्रतिमाओं को देखकर तथा भावपूर्वक वन्दन कर प्रसन्नीभूत रानीजी पुनः अपने महल में आई। भविष्य में केवल ज्ञान की मर्यादा में आनेवाले जीवों को तपश्चर्या आदि द्वारा अपने कर्मों का घात करने का भाव अत्युतकट हो जाता है। तभी एक-एक परमात्मा की आराधना हेतु 24-24 आयंवील किये अर्थात् 24424 = 576 आयंबील तप तथा बीच बीच में बेला तेला भी करने में प्रमाद नहीं किया / तीर्थस्थानों की यात्रा जिनबिबों का पूजन, मुनिओं का सेवन साते क्षेत्रों में धनव्यय तथा दया, दान आदि सत्कार्य जैनत्व में स्थिर कराने के हेतु माने गये हैं / एक दिन रानीजी को विचार आया कि. यद्यपि भरत चक्रवर्ती ने निर्माण किये जिन मंदिर में तथा बिंबों में अब कुछ भी करने का शेष नहीं रहा है, तथापि उनके ललाट पर रत्नजड़ित सुवर्ण तिलक यदि गवा दिये जाय तो मूर्ति की चमक द्विगुणित हो जायगी, ऐसा नमझकर राजा से कुछ भी लिए बिना अपने में से ही अच्छे कारीगरों = पास तिलक करवाये और शासनदेवी की सहायतासे परिवार सहित P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ पर जाकर अपने हाथों से चढते परिणामों में रानीजीने एक-एक भगवान को तिलक लगाकर आभूषण पूजा का अद्भुत लाभ प्राप्त किया। मंदिर से बाहर आने पर चारण मुनिराज भी तीर्थयात्रा करने पधारे हैं, ऐसी जानकारी मिलने पर राजारानी ने मुनिराजों को आहार पानी देने का अभूतपूर्व लाभ लिया। और पुनः अपने महल में आये / धर्म की आराधनामें एकमत वाले राजारानी ने समाधिपूर्वक मनुष्यावतार पूर्ण किया और देवलोक में देवदेवीं का अवतार धारण किया, क्योंकि अरिहंत परमात्माओं की जल, चन्दन, दीप, धूप, फल, फुल तथा आरती मंगल दीप करनेवाला भाग्यशाली गृहस्थ भी वैमानिक देवयोनि प्राप्त करते हैं / वहाँ देवसुखों को भी क्षण विनश्वर मानकर तीर्थकरों के पंच कल्याणक की आराधना करते हैं / तथापि आयुष्यकर्म की बेड़ी के बंधन में बंधे हुए होने से "क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति" इस न्याय से उनका भी पतन सर्वर्था अनिवार्य है। तीसरा भव इसीलिए मम्मण राजा का जीव देवलोक को छोड़कर पोतनपुर नगर में धम्मिलास नाम के आभीर (रवारी) के यहाँ अवतरित हुआ जिसका नाम 'धन्य' रखा गया है, तथा वीरमती का जीव देवलोक से च्यत होकर घुसरी नामं की रवारी कन्या बनी जो धन्य के साथ विवाहित हुई / पुण्यकर्मी जीव होनेसे रबारी के अवतार में भी दम्पती, सुख सम्पन्न, हास्यशील परोपकारी, भद्रिक तथा विनीत थे / फिर भी उनका मूलपेशा (धंधा) गाय आदि जानवरोंका पालन तथा उनको चराने के लिए जंगल में जाना और सायंकाल पुनः घर पर आना। इसी नित्य क्रमानुसार वह धन्य जानवरों को चराने के लिए जंगल में जाता था। एक दिन वर्षा ऋतु का आगमन हुआ और तीन-चार दिनों तक लगातार मुसला. धार वर्षा हुई , नदीनाले भर चुके थे तथापि जंगलमें गया अपनी -C...RAaradhakTrus Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लकडी केआधार पर खड़ा रहा और छत्ते (अंब्रेला) को मस्तक पर धारण किया। कर्मसंयोग था, उसी समय घुटण तक के कीचड में ध्यानस्थ एक मुनिराज को देखा और भाव से दयार्द्र बना हुआ वह रवारी मुनिराज के नास जाकर अपना छत्ता मुनि के मस्तक पर धारण कर खड़ा रहा। काफी समय होने पर भी मन में कुछ भी कंटाला लाये विना उसने मुनिराज को उपसर्ग से बचाया / जो परमधर्म है / बडी देर के बाद बारिश स्थगित हुई तब धन्य बोला कि, गुरुदेव ! चारों तरफ कीचड़ ज्यादा है आपको चलना कठिन होगा, अत: मेरे भैंसे पर आप बैठ जाईए जिससे आपको आसानी से निरुपद्रव स्थान पर पहुँचा दूंगा। मुनिजीने कहा कि, भाग्यवान् ! इस भैंसे में जीव है, जो अपने समान ही है, इसलिए अपने मुख के खातिर किसी भी जीव को पीड़ा देना अच्छा नहीं है। अपन धीमे धीमे आगे चल पडेंगे और धन्य ने बडी आसानी से मुनिजी को अच्छे स्थान पर लाया और बडी ही श्रद्धा से उन मुनि के हाथपैर तथा नीठ दबाई, फिर उसने कहा कि प्रभो ! आप जरा विश्रांति करें में घर पर जाता हूँ और भैंसों का दूध शीघ्र लाता हूँ। तब तक आप विहार न करें / धन्य गया और मटका भरकर ताजा दूध लाया मुनि को पारणा करवाने का अभूतपूर्व लाभ लिया और उसका मनमयूर त्य करने को लगा क्योंकि इतना सुंदर अवसर कम भाग्यवालों को या कच्चे भाग्यवालों को प्राप्त नहीं होता है / यह रबारी जैन धर्म के योग्य ई ऐसा जानकर मुनिजीने बारह व्रतों का उपदेश दिया और धन्य ने नतमस्तक होकर व्रत स्वीकारे तथा जीवनके आखिरी श्वास तक उसका ालन किया। धर्म के प्रभाव से वह समझने लगा था कि, 'ब्रेक बिना की सायकल, बस, मोटर, ट्रक, ट्रेन कभी भी बडा भारी खतरा उत्पन्न कर सकती है, उसीप्रकार इन्सान चाहे श्रीमंत या रंक, गोरा या काला, =डित या अपंडित, बाल या वृद्ध, स्त्री या पुरुष आदि उनके जीवन में =तों की मर्यादा न रही तो वह इन्सान कभी भी हिंसा, झूठ, दुराचार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्त्री या वेश्यागमन, शराबपान या भांग गांजा का सेवन आदि भयंकर से भयंकर पापाचरण कर सकेगा अतः व्रतमय जीवन ही मानवता है, खानदानी है, तथा जैनत्वयुक्त जैनधर्म को प्राप्त करने का मौलिक कारण है। खुश होता हुआ धन्य अपने घर गया और धर्मपत्नी घूसरी से सब जिक्र किया और उसने भी श्रद्धापूर्वक व्रत स्वीकार किय और आजीवन पाले। पापमार्ग के संपूर्ण द्वारों को अवरुद्ध करने वाले मुनिराजों के सत्पात्र में दिये दान के प्रभाव से उपाजित पुण्यकर्मो को भोगने के लिए हैमवत क्षेत्र में वह दंपति युगलिक बने, जहाँ पर इस प्रकार के कल्पवृक्ष उनको भोजन, पान, वस्त्र, औषध आभूषणआदि सदैव देने वाले होते हैं , अर्थात् युगलिकों के मन में जो भी अभिलाषा होती है, तब वे कल्पवृक्ष के नीचे आते हैं और इच्छित पदार्थ उनको प्राप्त होता है / अतः किसी भी वस्तु का परिग्रह रखने की आवश्यकता न होने से जीवन में राग, द्वेष क्रोधकषाय आदि की संभावना नही होती है / क्योंकि परिग्रह स्वयं पाप है। मनुष्य क्षेत्र के इन्सानों का पुण्य कमजोर होने के नाते अभिलाषित पदार्थ उनको व्यापार-रोजगार के द्वारा ही प्राप्त करना होता है. इसीलिए उनको परिग्रह बढाये बिना दूसरा मार्ग नहीं है और इसी के पाप से इन्सान को राग, द्वेष मोह, माया, स्वार्थ, तथा दूसरों से अधिक खाने पीने के पदार्थ वस्त्र, आभूषण व रोकड रकम एकत्र करने के भाव होते हैं, बढते हैं और दुष्कर्मों की उपार्जना कर दुर्गति में जानेकी योग्यता प्राप्त करते हैं। परंतु युगलिकोंको किसी भी पदार्थ को संग्रहित करने का न होनेसे राग द्वेषादि होने की संभावना नहीं होती है, अतः कषायाभाव में देवगति सुलभ बनती है / वह दंपती भी युगलिकत्व को त्याग कर देवयोनि में देव-देवी बने / 14 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust - Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठठा भव वहाँ से च्युत होकर कोशल देश की राजधानी कोशलानगरी में इक्ष्वांकुकुलज निषधनाम के राजा के यहाँ पुत्र रुप से अवतरित हुए जिनका नाम 'नल' रखा गया उनके छोटे भाई का नाम कुबर था। इस तरफ विदर्भ देश में कुंडिनपुर नाम का नगर था, तथा भीम पराक्रमी 'भीम' नाम का राजा राज्य करता था, उनके मायारहित, अप्सरातुल्य पुष्पदंती नामकी रानी थी। अर्थ तथा धर्म पुरुषार्थ को बाधा न आवे उस रीतसे काम पुरुषार्थ का सेवन करते हुए रानीजी की कुक्षी में वीरमती का जीव जो देवलोक में था, वह पुत्रीरुप में अवतरित हुआ / उसी समय रानीजी ने रात्री के अंत में "दावानल से भयग्रस्त एक सफेद हाथी अपने महल के आंगन में आ रहा है, ऐसा स्वप्न देखकर जागृत हुई" रानीजी ने अपने पति से यह बात कही। सर्वशास्त्रपारंगत राजाने कहा “कोई पुण्याधिक जीव तुम्हारे गर्भ में आया है।" यह बात चल ही रही थी उसी समय दासी ने आकर कहा कि, इन्द्र के ऐरावत हाथी के सदृश एक सफेद हाथी राजमहल के प्रांगण में आया है / तब प्रसन्न होते हुए राजारानी वाहर आये और हाथी ने अपनी सूंड़ से उठाकर दंपती को अपनी पीठपर बैठाया तथा नगर की परिक्रमा की, राज्य के रहवासी जनता ने आनन्द में आकर हाथी का स्वागत किया, तथा गले में पुष्पमाला पहिनाई, सुगंधी पदार्थों का लेप किया। तदन्तर वह पुनः महल तरफ आया और राजारानी को नीचे उतारा, और स्वयं हाथीशाला में आया / दमयंती का जन्म गर्भ के योग्य खानपान रहनसहन पूर्वक रानीजी ने गर्भ का पोषण किया / तथा व्यतिपात, गंडांत, मूलादि नक्षत्र, अशुभदिन और योग को त्यागकर अच्छे समय में पुत्री को जन्म दिया। ... P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म लेनेवाली कन्या अपने पूर्वभव में अष्टापद तीर्थपर रहे हुए 24 तीर्थकर परमात्माओं के ललाट पर रत्नजडित सुवर्ण तिलक लगाये थे, उसी पुण्य का कारण था कि, कन्याके ललाट पर अंधकारमें भी फुललाइट के माफिक प्रकाशित तथा सूर्य के समान चमकता हुआ तिलक था। मानो सुवर्ण मुद्रिका में जडा हुआ हीरा हो / गत भवों में मुनिराजों को दिये हुए दान के प्रभावसे पुण्याति शायी संतान जिस घर में भी जन्मती है, उसके घर में सब प्रकार से वृद्धि ही होती है। राजा भी धन्य, धान्य, यश, कीर्ति तथा प्रताप से द्विगुणित हुआ। . रानीजी को आये हुए स्वप्न के अनुसार पत्री का नाम दवदंती रखा परंतु आगे जाकर दमयंती के नाम से प्रसिद्ध हुई।। / दमयंती का रुपगरिमा . अहिंसा, संयम तथा तपोधर्म की पूर्वभवीय आराधना का वल ज्यादा होने से दमयंती का रुपरंग प्रशंसनीय था, लावण्य अपूर्व था, श्वासोश्वास कमलसा सुगंधी था, वेणी कालीनागण सी थी, हाथ और कान लंबे थे, ललाट अष्टमी के चंद्र के समान था, मध्यभाग मुष्टिग्राहय था, देहयष्टि शोभनीय तथा मनोहरणीय थी, दाडम के दाने के समान दांत थे, चाल हाथनी सी तथा आँखें हिरणी को शरमिंदी बनावे वैसी थी / आमुष्य तथा शरीर से दूज के चंद्र के समान बढती हुई वह कन्या जब आठ वर्ष की हुई, तब चरित्र सम्पन्न कलाचार्य (पंडित) के पास पढने का प्रारंभ हुआ। पढ़ाने वाला पंडित केवल साक्षी मात्र ही था, क्योंकि निरतिचार देशविरति धर्म आधारित होनेसे कन्या का मतिज्ञानवरणीय कर्म लगभग समाप्त था और पुनः उसके बंधन का भी लगभग अभाव' था। यही कारण था कि, दमयंती को देखते देखते सव कलाएँ हस्तगत होने में देर न लगी। शस्त्र तथा शास्त्रविद्या उपरांत कर्मग्रंथ की प्रकृतिएँ गिनने में प्राविण्य, स्याद्वाद सिद्धांत में नैपुण्य P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वज्ञान में तैक्ष्ण्य, सामायिक पूजा आदि सदनुष्ठानों में कौशल्य प्राप्त करने में देर न लगी। पठन-पाठन में दमयंती की तीव्रता देखकर भीम राजा बड़े प्रसन्न हुए। एक दिन शासनमाता निवृत्तिदेवी दमयंती के पास आई और सुवर्णमयी अरिहंत परमात्मा की मूर्ति को अर्पण करती हुई शासनमाता ने कहा कि, हे दमयंती ! भविष्य में होनेवाले सोलहवें शान्तिनाथ परमात्मा की यह प्रतिमा है, अत: रोज पूजा करना यह कहकर देवी अन्तर्धान हुई / मूर्ति की देखकर राजकन्या खुश हुई और श्रद्धापूर्वक अपने महल में अच्छे स्थान पर स्थापित की। इसप्रकार सखिओं के साथ खेलती कूदती वह दमयंती 18 वर्ष की हुई / राजघराने में जन्म लेने पर भी कन्या सत्य तथा सदाचार पूर्ण थी / खेलने कूदने में भी असभ्य मश्करी तथा झूठ प्रपंच से दूर थी। जबान में मिठास, हृदय में स्वच्छता, दिमाग में शीतलता, हाथों में उदारता आदि के गुण होने से राजकन्या सर्वत्र विश्वसनीय तथा आदरणीय बनी। ... ... दमयंती का स्वयंवर / दमयती का स्वयंवर , _____ उम्र लायक होने से भीमराजा को उसके विवाह की चिंता हुई / अपने दूत भेजकर कितने राजा तथा राजकुंवरों की तस्वीर मँगवाई, परंतु कन्या के योग्य एक भी कुंवर पसन्द न आनेसे स्वयंवर के लिए तिथि निर्णय कर सर्वत्र निमंत्रण भेज दिये गये / यथासमय स्थानस्थान के राजा तथा कुंवर आये / निषधराज भी अपने दोनो पुत्रनल तथा कुबर को लेकर पधारे / भीमराजा ने सभी का स्वागत किया। स्वयंवर के लिए भव्य मंच का निर्माण करवाया, जिसको सुशोभित बनाने में एक भी कमी राजाने रहने नहीं दी। समय होने पर अपनी योग्यतानुसार सब आये और सिंहासन पर आसीन हुए / उसी समय 16 प्रकार के शृंगार से देवकन्या, सी बनी हुई दमयंती हाथ में वरमाला P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में वरमाला न डालो इस काम हताश बनकर क्षत्रियधर्म से पतित बने हुए तुम जो अवाच्य भाषा बोल रहे हो वह तुम्हारे खानदान के लक्षण नहीं है / स्वयंवर में तो कन्या चाहे किसी का वरण कर सकती है, उसमें दखलगिरि करना अत्यंत निदनीय कर्म है / दमयंती ने मेरे गले में वरमाला डाली है, अतः वह तुम्हारे लिए परस्त्री बन गई है, और परस्त्री तरफ नजर करना, हर हालत में भी अच्छा कार्य नहीं है। तथापि क्षत्रिय धर्म की मर्यादा का उल्लंघन कर यदि तुमने कुछ भी किया तो भी तुम्हे निराश होने के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी हाथ में आनेवाला नही है / आपको यदि तलवार लेना आता है, तो हमने हाथ में चूड़ियाँ पहनी नहीं है / इतना कहकर नलराजने भी अपने म्यानसे यमराज की जीभ के समान तलवार निकाली और दोनों राजकुमार आपस में रण मैदान पर उतर गये / नलराजा का धर्म युद्ध है, तब कृष्णराज का अधर्म युद्ध है। अरिहंत परमात्माओं का धर्म इसीलिए उत्कृष्टतम तथा वंदनीय है कि, 'सीमाधरस्स वंदे आर्हत धर्म यदि जीवन में परिणत हो गया होता है, तो जीवात्मा अपने आप ही इन्द्रियों के भोगविलास से तथा मन की शैतानीसे दूर हो जाता है / यद्यपि गृहस्थाश्रमीको शादी करना निषेध नहीं है, तो भी जो कन्या अपने को चाहती नहीं है, बोलना तथा देखना भी पसंद करती नहीं है, तो फिर उसको मोहित करने का कार्य करना सर्वथा अधर्म कार्य है, इससे मानसिक जीवन उत्तेजित बनता है, इन्द्रियों में तूफान बढ़ता है, बुद्धि में गंदापन आता है, ज्ञान विज्ञान परद्रोही बनता है, चालाकी चतुराई अपने को ही खतम करनेवाली होती है / वडिलों की शरम तथा शरीर के रुपरंग तेजओज पर कालिमा लगती है उपरोक्त विचार किये बिना ही दोनों राजकुमारों का युद्ध एक दूसरे को मरने और मारने की मर्यादा में आ गया था। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को नल ने माफ कर दिया। क्योंकि अपराधी जब माफी मांग रहा है, तब उसको माफ करने वाला ही सज्जन-महाजन तथा ज्ञानगंभीर है। तत्पश्चात् भीमराजाने अपनी पुत्री दमयंती का नलराज के साथ बड़ी धूमधाम से हस्तमिलाप किया, तथा हस्तमोचन के साथ हाथी, घोड़े, | रथ, हीरे, मोती के आभूषण आदि भी खूब दिये / गोत्र की वृद्ध स्त्रियों / ने धवल मंगल के गीत गाये और छेड़ाछेड़ी बांधी हुई दम्पति सबसे पहिले राजा के घर में रहे हुए अरिहंत परमात्मा के चैत्य (मंदिर) में गये तथा भावपूर्वक देवाधिदेव भगॅवत को वन्दन किया। लग्नांतर भीम राजा ने निषधराजा तथा कुबर कुमार का भी सत्कार किया और सानन्द विदाय दी। राजा ने अपनी पुत्री को शिक्षा देते हुए कहा कि, 'पुत्री !' सुख तथा दुख में भी अपने पति का पड़छाया मत छोड़ना / गांव की नदी तक भीमराजा भी पहुँचाने के लिए आये और हर्षपूर्वक सबों का मुंह मीठा करवाकर विसर्जित किया, रास्ते में जाते हुए सूर्यास्त होने के बाद भयावह अंधकार छा गया, जिससे सैन्य को आगे बढने में अन्तराय पड़ा, तब नल ने दमयंती को प्यार से कहा कि, प्रिये ! स्वदेश जाते समय अंधकारने अपना रास्ता स्थगित कर दिया है। अतः तुम्हारे ललाट में रहे हुए तिलक का प्रयोग कर सैन्य को आगे बढने में सहायता की जाय / अपने पति की आज्ञानुसार दमयंती ने अपने ललाट पर हाथ फिराया और दोपहर के सूर्य के प्रकाश तुल्य प्रकाश ने अंधकार को भगा दिया। अपनी पुत्रवधु की इसप्रकार की अद्वितीय चमत्कारिता से निषधराज तथा सैन्य आदि खूब प्रभावित बने / कारण कि, प्रकाश तथा हवा के विना जीवित मानव भी मरे हुए समान है। सैन्य आगे बढा / जिस मार्ग से सैन्य जा रहा था, उसी रास्ते पर भ्रमरों से तथा मदोन्मत हाथी से उपद्रवित कुछ दूरी पर ध्यान मुद्रा में स्थित एक मुनिराजपर अचानकही नलराजकी दृष्टि पड़ी और पिता निषधराजको कहा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल तथा फलों से पल्लवित हुआ उद्यान / धीमी तथापि तेज चाल से सभी के तन तथा मन को खुश करनेवाली नदी। इधर देखो वह झवेरी बझार, सुवर्ण बझार जिसमें लाखों करोड़ो का व्यापार प्रतिदिन होता है। इस तरफ भी देखो वह धान्यमंडी, जिसमें सब प्रकार के धान्य के व्यापार से राज्य खजाना तर रहता है और इस तरफ भी देख लो उतंग ध्वजाओं से देव विमान की प्रतिस्पर्धा करनेवाला शान्तिनाथ प्रभु का, इस बाजू युगादि देवाधिदेव आदीश्वर परमात्मा का जिन मंदिर, सामने दिखाई देनेवाला अष्टापद तीर्थ का मंदिर तथा इस तरफ भी नजर घुमा लो वह सामने जैन उपाश्रय जिसमें प्रतिदिन मुनिराजो का गमनागमन होता ही रहता है / दमयंतीने चारों तरफ दृष्टि फिराई और अपने भाग्य की सराहना करती हुई वोली, 'स्वामिनाथ ! ' मेरा जीवन धन्य बना, शरीर तथा आँखें पवित्र बनी, मनमयूर नाच उठा तथा रोम रोम में आनन्द की सीमा न रही / आप जैसे को पति बनाकर मेरी -आत्मा, मन तथा बुद्धि भी धन्य बनने पाई है / आपके साथ वीत्त-. राग परमात्माओं के मंदिर में जाने का अवसर तथा परमपवित्र मुनिराज तथा साध्वीजी म. को वन्दन करने का लाभ मिला। इतना कहकर मस्तक झुकाया और 'नमो जिणाणं' कहकर द्रव्य तथा भाव वन्दन किया। - दाम्पत्य जीवन कोशला नगरी के नागरिकों ने निषधराज नल तथा दमयंती आदि का भव्य स्वागत किया तथा नगरप्रवेश करवाया। पांच पांच भवों का रागसंबंध इस छठे भव' में सीमातीत बढा फलस्वरुप नल काम पुरुषार्थ का सेवन करते थे, तथापि दोनों को इस बात का पूर्ण ख्याल था कि, अर्थ तथा काम अपने पूर्वोपार्जित पुण्य के कारण चाहे जितने वृद्धिंगत हुए हो तो भी उसका आखिरी परिणाम दुर्गतिदायक P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा कुबर जो नल से छोटा पुत्र था उसे युवराज पद से अलंकृत कर स्वयं ने मुनिराज के चरणों में पंचमहाव्रत धर्म का स्वीकार किया और अपनी पिछली अवस्था को सफल बनाई। राज्यधुरा को को संभाले हुये नलराजा ने अपने संतान के समान ही प्रजा का पालन किया, जिससे राजा तथा प्रजा में दुर्गुणों का प्रवेश होने न पावे / प्रजा के सुखदुःख को न समझने वाला राजा, कभी भी यशस्वी तो न बनेगा परंतु सत्ता संभालने के पहिले जो कुछ भी उसके सद्गुण थे वे भी दुर्गुणों में परिवर्तित हुये बिना रहने नही पाते, इसीलिए " राजेश्वरी सो नरकेश्वरी" कहा गया है / नलराजा को इस बात का पूरा ध्यान था कि, बडे आदमिओं में जब सत्ता का मोह बढ जाता है तब उनका आध्यात्मिक जीवन, यश तथा कीर्ति भी नष्ट हो जाते है / इसीलिये बुद्धि तथा पराक्रम से युक्त नलराज को जीतने के लिए दूसरा कोई भी राजा समर्थ नही था / / ऐसा होने पर भी एक दिन अपने सामंतों से पूछा कि, मेरी राज्य संचालन की व्यवस्था कैसी है ? प्रजा दुःखी तो नही है ? किसी भी प्रकारके दुसनों से मेरी प्रजा मुक्त है ! या युक्त ? तथा राज्य की सीमा जो मेरे पिता के समय मे थी उसमें कुछ वृद्धि हुई है / या नहीं ? तब बुद्धिवैभव सम्पन्न मंत्रियों ने कहा, / राजा जी ! -- आपके पिता के पास तीसरा भाग कम अर्ध भरत था, जव आपके पास दक्षिणार्थ भरत पूर्ण है, यही कारण है कि आप अपने पितासे भी अधिक है, परंतु यहाँ से दो सौ योजन दूर तक्षशिला नाम की नगरी है, वहाँ का कदंब. नाम का राजा आज भी आपकी आज्ञा माननेसे इन्कार करता है / अतः भरतार्थ को जीतनेसे प्राप्त हुए आपके यशरूपी. चंद्रमें वह दुविनीत राजा कालिमा के तुल्य बना हुआ है / वेदरकार रहने पर जैसे व्याधि बढ़ जाती है, उसी प्रकार वह राजा आपके प्रमादस ही खूब आगे बढ जा चुका है / इसलिए उसको जीतना आपके सैन्य के लिए कष्टसाध्य है, तथापि आप यदि अपना मन रोषपूर्ण कर ले तो P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust 25 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरफ प्रस्थान किया और चारों तरफ से उस नगरी को घेर लिया कदंब राज भी ससैन्य बाहर आया और दोनों राजाओं की सैन्य एक दूसरे पर टूट पड़ा। "इस रण मैदान में कितने ही निर्दोष मनुष्यों के तथा मूक प्राणीओं के संहार में मैं निमित्त बनूंगा। यह समझकर दयालू नलराजा ने कदंबराज से कहा. निरर्थक इतने प्राणीओं के हनन से लाभ क्या होगा? अतः अपन दोनों ही आपस में लड़े. क्योंकि अपने दोनों के युद्ध से हारजीत का निर्णय हो जाता हो तो इससे उत्तम दूसरा क्या ? कदंबराजने भी मान लिया और जंगम पर्वत के समान दोनों ही आपस में मुष्टि-मुष्टि हाथा-हाथी, तलवार, आदि से लड़े / कदंबराज ने जैसा भी कहा नलराजाने मंजूर किया फिर भी नलराजा के सामने कदंब को हार खाने की नौबत आने लगी, तब उसने सोचा, यद्यपि मैं नलराजा से हारा = जा रहा हुँ तथापि निरर्थक मृत्यु को प्राप्त होने की अपेक्षा पलायन होकर महाव्रतों का स्वीकार करना सर्वश्रेष्ट है “भविष्यकाल सुधरता हो , महाव्रतों की प्राप्ति होती हो तथा जन्म जरा और मुत्यु से छुटकारा होता हो तो पलायन भी कल्याणकारी है "ऐसा सोचकर कदंबराज रगमैदान से पलायन हुए तथा महाव्रतधारी बनकर कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा धारण की और एक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ हो गये। नानाविध झंझटों से पूर्ण इस संसार में हार, द्रव्य हानि, पत्नीमरण, मातापिताओं का वियोग आदि तत्व सबों के लिए एकसे ही है / किसी को जीवन के आदि में दूसरे को जीवन के मध्य में और तीसरे को जीवन की सन्ध्या में आपत्तियें आये बिना रही नही है। ऐसे प्रसंगों में रोते चिल्लाते जीवन बिगाडने की अपेक्षा जिन जिन कारणों से विपत्ति आई हो वे सब कारणों को मान-अपमान की परवा किये बिना छोड़कर दीक्षित, संयमधारी बनकर परमात्मा श्री अरिहंत देव की शरण स्वीकार करना ही ज्ञान, विज्ञान तथा समझदारी का फल है / कदंबराज ने बड़ी 27 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझदारी पूर्वक संयम स्वीकारा और संसार की माया को सर्वथा भूलकर ध्यानस्थ बने। __नलराजा को जब विदित हुआ कि, ' युद्ध से विरक्त (पलायन) होने पर भी कदंबराज महाव्रतधारी बनकर कायोत्सर्ग में स्थित हो गय है, तब खूब प्रसन्न बने हुये नलराज ने कदंब मुनि को प्रदक्षिणा तथा वन्दन करके कहा 'हे मुनिराज ! ' निश्चित है कि, आपश्री से में हार कबूल करता हूँ कि, आँखोंके सामने की पृथ्वी पर से मोह उतारकर परलोकरुपी पृथ्वी पर आसक्त बने हुए, आपसे मेरी प्रार्थना है, आप अपनी पृथ्वीको पुनः स्वीकार करें और मुझे माफी बक्षावे / महाव्रतों की आराधना में मन को एकाग्र किये हुए धीर-वीर-गंभीर मुनिराजने नलराजा की लरफ देखा भी नहीं और जवाब भी दिया नहीं। क्योंकि "दृष्टि बदल जाने के बाद सृष्टि भी बदल जाती है " इस न्याय से कदंबराज की पाँच मिनिट के पहिले संसारपर विजय प्राप्त करने की दृष्टि थी और अब अपनी आत्मा पर ही विजय प्राप्त करने की दृष्टि हुई है इस कारण से सांसारिक इच्छाओं से सर्वथा पर हुए मुनि के लिए राजा और रंक सुवर्ण तथा पत्थर, मान तथा अपमान में कुछ भी अन्तर नही होता है / नलराजा ने भी कदंव मुनि की स्तुति की और उनके ही जयशक्ति नामके पुत्र को राज्यगादी पर बैठा दिया उसके पश्चात् दक्षिणार्ध भरत के सब राजा महाराजाओं ने नलराजा का भरतार्धपतिरूप से अभिषेक किया / जयजयकार की ध्वनिओं से आकाश भी गूंज उठा। भक्तिसभर देश देश के राजा, नलराजा के चरण में आये और अपना दासत्व स्वीकार करके, उपहार में जो भी लाये थे वह समर्पित किया। अपनी धर्मपत्नी दमयंती के साथ आनंद पूर्वक समय पसार करते हुए राज्यधुरा को बड़ी सावधानी से चला रहे थे। चाणाक्य के नीतिसूत्र में स्वाभाविक दुश्मन के रूप से सगे भाई को ही संबोधित किया है, अर्थात् स्वार्थ की. माया बीच में आते ही अपवाद (CP.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को छोड़कर सगा भाई, सगेभाई का शत्रु शीघ्रता से बन जाता है। इसी सूत्र को सत्यार्थ बनाने का इरादा रखनेवाला छोटा भाई कुवर दिन प्रतिदिन बड़ेभाई नलराजा के प्रति ईर्ष्यालु, द्वेषी तथा छिद्रान्वेषी बनता गया / उत्पन्न हुए दुर्गुणों को उसी समय यदि दबाया न जाय तो बढ़े हुए या बढाये हुये दुर्गुण मानव की मानवता तथा खानदान की खानदानी को दानवता तथा दुर्जनता में परिणत करने में देर करते नही है। शास्त्रकारोंने लज्जाको गुणोंकी माता कहा है, जब बडी मुश्कली ओं से उपार्जित गुणोंको नाश करानेवाली ईर्ष्या है / दूसरोंकी अच्छी बात श्रीमताई, सत्ता, अच्छे पुत्र-पुत्री, विद्या, वैभव बंगले तथा उजले वस्त्रों को देखकर जिसके दिल में उनको गिराने की, अपमानित करने की तथा निदित करने की भावना हो उसे ईर्ष्या कहते हैं / नलराजा का यश, वैभव तथा राज्योत्कर्ष को देख देखकर कूबर अपने मन में जलने लगा। राक्षसी के माफिक जलन एक ऐसा दुर्गुण है / यदि उसको मर्यादित न किया जाय तो जलनेवाले को ही जलाकर राख कर देती है। _ नलराजा के जीवन में दो भवों की संयमाराधना है, अरिहंतो के पंचकल्याण की सेवा है, मुनिराजों की वैयावच्च द्वारा उपार्जित पुण्यकमाणी है तथा निकट भविष्य के भवों में केवलज्ञान प्राप्त करने की योग्यता है, तथापि एकभव में मुनिराज को अपमानित करने का पाप भी स्टोक में पड़ा हुआ है, इसलिए तो उस पापफल को भुगतने के लिए ही सर्वगुण सम्पन्न नलराजा में जुगार खेलने का शौक भी भारी मात्रा में था। सात व्यसन जुगार, मांसभोजन, शराबपान, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन, चौर्यकर्म तथा शिकार ये सात महाव्यसन कहे गये है संस्कृत कोषमें व्यसन 29 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अर्थ ही दुःख होता है / जिनके सेवन से इन्सान की धार्मिकता, सदाचारिता तथा सत्य भाषिता समाप्त होकर जीवन के अणुअणु में पापा चरण बढ़ता है तथा भूलों के ऊपर भूल, अपराध के ऊपर अपराध ही करता रहता है / फलस्वरुप उसको दुःखी-महादुःखी बनना अनिवार्य हो जाता है / जब तक इन्सान कर्मों के आवरण से युक्त है तब तक उसके वाल्यकाल की, यौवनकाल की भूलें वटवृक्ष के माफिक बढ़ जाती है। पूरे संसार को प्रकाशित करनेवाला चन्द्र भी कलंकित है तथा रत्न में भी कुछ न कुछ कसर रहती है, तो फिर इन्सान में कुछ न कुछ कसर रहने पावे इसमें कौन सा आश्चर्य ? नल राजा के जीवनमें भी यही कमजोरी थी इसीलिए तो उनको जुगार खेलने में मस्ती आ जाती थी। - छोटा भाई कुबर ये सब बाते जानता था अतः बड़े भाई के सामने जुगार खेलने का प्रस्ताव रखते ही नलराजा ने स्वीकार कर लिया। चौपट बिछा दी गई पाशे (सोगठी) तैयार कर रख दिये / आज कुबर भी खुशमिजाज मे था उसे पूरा विश्वास हो गया था कि, भाई के साथ जुगार में मैं जीत जाऊँगा जभी तो लुच्चाईपूर्वक नलराजा से कहा 'भैया ! जुगार के प्रत्येक दाव पर कुछ न कुछ रखा जाय तो खेलने के मजे में चार चांद लग जायेंगे। राजा ने प्रस्ताव मान्य रखा, जुगार चालू हो गया, ऊपरा ऊपरी पाशें फेंके जा रहे हैं, परंतु सब प्रकार से होशियार नलराजा के दाव आज सब विपरीत पड रहे है / गांव, नगर, कोश, हाथी, घोड़ों को भी नलराजा हार गये / पूर्वोपार्जित पापकर्म का उदय आता है, तब वह पापकर्म इन्सान को डंडे से नहीं मारता है, परंतु उसकी बुद्धि में गंदापन जिद्द तथा असद्ग्राहिता आदि स्थापित कर देता है / नलराजाने आखिरी दाव में अपनी प्राण प्रिया दमयंती को भी रख दिया / सामंतो में, मंत्रीओं में तथा प्रेक्षकों में हाहाकार मच गया, तब कोलाहल सुनकर दमयंती भी दौड़ती दौड़ती 30 P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ गई, और बोली 'नाथ ! आपसे मेरी करबद्ध प्रार्थना है, आप मेरे पर दया करो और पापफल को भुगताने वाला जुगार तथा जुगारी को छोड दीजिये क्योंकि ये दोनों इस समय आपके दुश्मन बनें रहे हैं / यद्यपि छद्यस्थ जीबन में व्यसन होना अस्वाभाविक नहीं है, तथापि वह केवल शौक की पूर्ति के लिए ही होना चाहिए, परंतु जिस व्यसन से इन्सान अंधा बन जाय घरवाली का भी रहने न पावे, ऐसी आदतें भयंकर हानिप्रद होने से अरिहंतों के शासन ने उसको सर्वथा त्याज्य कही है। ताश (गंजीफा) खेलना, रमी खेलना, या चौपटबाजी खेलना ये खतरनाक व्यसन होने से आपके लिए भी त्याज्य है / कुबर आपका छोटा भाई है, इसलिए उसको यदि राज्यगादी चाहिए तो मेरा कहना मानकर इसी समय यह राज्यधुरा उसके कंधे पर रख दीजिए। क्योंकि हारने के बाद किया हुआ दान, दान नहीं है, किन्तु जीवन का कलंक है। सैकड़ों युद्ध करके आपने इतना बड़ा साम्राज्य प्राप्त किया है उसको जुगार के जरिये खतम कर देना ठीक नहीं है। - ... __ दमयंती के उपरोक्त कथन को नलराज ने सुना भी नहीं तथा उसकी तरफ दृष्टिपात भी नहीं किया। महाकाय हाथी को दशमी मदावस्था प्राप्त होने पर वह किसीका भी रहने नहीं पाता है, उसी प्रकार जुगार के मद ने नलराजा की सुध बुध को खतम कर दी थी, इसीलिए रुदन करती हुई दमयंती तथा अमात्य और महाजनों ने भी राजा को समझाया, परंतु सन्निपात के रोगी को एक भी औषध जैसे कामयाब नही होती है. उसी प्रकार पूर्वोपार्जित पापकर्मका उदय ललाट में आकर बैठ चुका हुआ होने से राजाजी के कान किसी की भी बात सुनने के लिए तैयार नही थे / आखिरी फल जो मिलनेवाला था वही मिला, नलराज ने सम्पूर्ण पृथ्वी के साथ अपनी प्राणप्यारी दमयंती को भी जुगार में गमा दी। सर्वस्व हारे हुए नलने अपने शरीर से सब 31 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओं को मश्करी से भी परेशान करना बुरा है, तो फिर जानबूझकर दुष्ट इरादे से दिये हुए दुःख के बारे में पूछना भी क्या ? दूसरी बात यह है कि, स्कूल ये पहिला पाठ यही पढाया जाता है,"बड़ा भाई छोटे भाई के लिए पिता के तुल्य है" और उनकी धर्मपत्नी माता के तुल्य है, इसी प्रकार बड़े भाई के लिए छोटा भाई तथा उसकी धर्मपत्नी पुत्र-पुत्री के रुप में है, अतः माता के समान बड़े भाई की पत्नी पर तथा पुत्री के तुल्य छोट भाई के पत्नी की तरफ नजर बिगाडना बड़ा भारी पाप माना गया है, जिसका फल, आपस में बैर, विरोध, मारकाट तथा लक्ष्मी और सरस्वती देवी का अभिशाप ही भाग्य में रहता है / / 1. आप जैसे उच्च खानदान में जन्मे हुए के लिए तो इस पाप का प्रायश्चित भी मिलना असंभव है। तथा प्रायश्चित बिना के मानव इन्सान के ऊपर 33 करोड देवों की नाराजी अनिवार्य रहती है। राज मंत्री, सैनिक तथा महाजनों का प्रथम धर्म यही है कि, 'परस्त्री मातेव पर स्त्री को माता के समान समझे, इस कारण से आप हमारी बात माने और व्यभिचार, दुराचार आदि पापों से मुक्त होकर अपनी इन्सानियत तथा खानदान का रक्षण करें / बलात्कार द्वारा साधारण स्त्री का भी किया हुआ ब्रह्मचर्यखंडन, ज्ञान, तप, तेज तथा विज्ञान को समाप्त करता है, तो फिर सतो शिरोम गो नारी के प्रति पाप भावना करने क' अनिष्ट फल कितना भयंकर होता है उसका माप निकालना भी असंभव है फिर भी आपने यदि दमयंति पर बलात्कार किया तो यह सती शाप के जरिये आपको जलाकर भस्मावशेष कर देगी, क्योंकि सतिओं के लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है। पर स्त्रीओं को सताकर निरर्थक सोये हुए सांप को जगाने जैसी अनर्थ परम्परा से आप बच जाइयेगा तथा अपने पति के पीछे जाती हुई, दमयंती को बड़े आराम से जाने दीजियेगा / कुबर राजा न बात मान ली तथा मार्ग में जो भी सामान काम मैं आवे, तथा दो घोड एक सारथी सहित रथ भी दिया। नलराजा ने कहा, भरतार्ध भूमि तक P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhal Trust Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की लक्ष्मी मैंने मेरे हाथ से उपार्जित की है उसे भी मैं हँसता हुआ छोड़ रहा हूँ तो रथ की स्पृहा से भी मुझे मतलब क्या ? सामंतों ने कहा, 'प्रभो ! हमारी विनंती से भी आप रथ को स्वीकार करें, क्योंकि, मक्खन के पिंड के समान सुकोमल पैरवाली दमयंती को जंगल के रास्ते में पैदल चलना मुश्किल होगा अतः रथ को ग्रहण करके देवी के साथ रथाधिरुढ होकर वन में पधारियेगा। कर्मों की गति जटिल होने से पांच मिनिट के पहिले जो राजरानी थी, हीरे मोती के आभूषण तथा मुलायम वस्त्रों का परिधान करनेवाली थी, आज वही दमयंती रानी केवल एक ही वस्त्र पहिनी हुई अपने पति के साथ रथ में बैठी है / अदृश्य दृश्य देखकर अश्रुपूर्ण आँख से नागरिक अपने प्राणप्रिय राजा तथा रानी की यह दुर्दशा देखकर चित्कारने लगे तथा सोचने भी लगे कि, केवल एकही जुगार के व्यसन से राजा की यह दुर्दशा हुई, तो जो इन्सान सातों व्यसनों में जीवन यापन करता होगा उसकी वाय तथा आँतर दुर्दशा का क्या पूछना ? कौरवों को नेस्तनाबूद करनेवाले यादवों को शराब पान ने समाप्त किया / पाण्डु तथा श्रेणिक राजा ने शिकार के कारण दुर्दशा प्राप्त क परस्त्रीमें मोहांध बनकर तीन खंडके राजा रावण तथा दुर्योधन इतिहास के पानेपर काले मुंहवाले बनने पाये / वेश्यागमन से कौन सुखी बना? आज भी ताश पाने तथा रमी के खेल में अपने धर्म कर्म खोकर बैठे हुए श्रीमंतों के पुत्रों का आंतर जीवन कितना निकम्मा बना हुआ है, इसीलिए अरिहंत परमात्माओं ने कहा इन्सान ! पसीने की रोटी तेरे घर में सदाचार का संचार करेंगी जब हराम की रोटी दुराचार को आमंत्रण देनेवाली बनेगी, अतः तेरे भाग्य का तुझे मिलेगा ही इतना विश्वास रखकर ग्रार्हस्थ्य जीवन को पवित्रतम बनाने का प्रयत्न करना ही मानवता है / इतना भी ख्याल रखना चाहिए कि, मूल्यवान वेषभूषा, फर्नीचर से सजा हुआ रंगमहल, भाषा की सफाई, या लाखों करोड़ों रुपयों 34 P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से भरी हुई तिजोरी में मानवता नहीं रहती है, परंतु सत्य सदाचारमया जीवन, परस्त्री का त्याग, न्यायोपार्जित धन तथा परोपकारिता ही मानवता है, और उसी मानवता में धार्मिकता का आना सुलभ है। किये हुए कर्मों के चक्कर में फंसे हुए नलराजा का रथ वन की तरफ आगे बढ़ रहा है / ऐसी अवस्था में आया हुआ छद्मस्थ इन्सान शोकमग्न बने यह स्वाभाविक है, क्योंकि इन्सान चाहे कितना ही वैभव शाली तथा बुद्धिशाली हो अथवा पुण्यकर्म की चरमसीमा उसके चरणों में समाप्त हो जाती हो, तथापि किये हुए कर्मों का भुगतान तो तीर्थकर चक्रवर्ती, वासुदेव आदि सभी के लिए सर्वथा अनिवार्य है, तो फिर नल दमयंती को वनवास भुगतना पड़े उसमें क्या आश्चर्य ? परमपवित्र मुनिराज को 12 घड़ी तक किया हुआ धर्मान्तराय, नलराजा को भुगतना ही पड़ेगा / 70 कोडाकोडी का मोहनीय कर्म है, जिसमें तीर्थकरों की सात चौवीसी पूर्ण होती है, तव तक किसी भी भव' का किया हुआ पाप वैर, अंतराय आदि कर्मों का उदयकाल कभी भी आ सकता है महावीर स्वामी के जीवात्माने 18 वें भव में शय्यापालक के कान में गरम -सीसा डलवाया था, वह बैर 80 सागरोपम के ऊ पर कितने ही वर्ष 'वितने के बाद तीर्थकर के अवतार में उदय आया और ग्वाले ने परमात्मा के कान में लकड़ी के टुकड़े डाल दिये।। - इस भव से छठे भव में नल दमयंतीने मुनिराज को सताया था - इतना लंबा काल बितने पर भी कर्म का भुगतान अनिवार्य हो रहा है हजारों प्रकार के पुण्यकर्मों के बीच में भी एकाद पाप की बदली जब आती है तब राजा भी रंक सा बन जाता है नलराजा जिस रास्ते से जा रहे थे, वहाँ पांच सौ हाथ प्रमाण एक भारी स्तंभ जमीन में गड़ा हुआ दिखाई दिया / कुतूहलवश रथ से उतरकर नलने उसे जमीन से वाहर निकाला तथा पुनः जैसा था वैसा ही जमीन में गाड़ दिया नाग P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिकों ने बड़े कुतुहल से यह देखकर बोले, दिग्गजों को भी परास्त करनेवाला यह नल कहाँ और मस्तक पर आई हुई यह विपत्ति कहाँ, मानो ! नियति ही सर्वाधिक बलवती है / एक दिन महाज्ञानी मुनि-- राज ने भी कहा था कि, एक भव में तपस्वी ज्ञानी-ध्यानी मुनिराजको खीर का पारणा करानेवाला नलराजा दक्षिणार्थ भरत का राज्य करेगा, तथा इस स्तंभ को चलित कर फिर से स्थिर करेगा। मुनिराज की ये दोनों बातें सत्य सिद्ध हुई है, परंतु आज तो राज्यभ्रष्ट हुए नल निरवधि वन में जा रहे हैं, तो ये राजा कैसे बन पायेंगे ? अथवा नियतिवश कदाच पुनः राजगद्दी के वारसदार बन सकेंगे। नाग-! रिकों की ये बात सुनते हुए नलराजा ने वन में प्रवेश किया। एक स्थान पर स्थित होकर नलने दमयंती से पूछा / उद्देश्य के बिना प्रवृत्ति नहीं होती है, अतः तुम ही बतलाओ कि, अपन कौनसी दिशा तरफ जायें। तब कुछ थकान, कुछ भूख, कुछ तरस आदि की उपाधि को सामने देखकर दमयंती बोली, 'नाथ ! अपना रथ कुंडनपुर की तरफ ले जाना अच्छा रहेगा, जिससे मेरे पिताजी को आपका आतिथ्य करने का अवसर मिलेगा और समय भी आराम से पूर्ण होगा। नलने भी अपने सारथी को कुंडनपुर तरफ रथ को ले जाने का आदेश दिया। अनुभवियों का कथन है, इन्सान में यदि बात करने की तथा दूसरों को बनाने की चालाकी है तो वह बड़े से बड़े गंभीर इन्सान के पेट में रही बात को आसानी से बाहर ला सकता है, परंतु दुनिया भर के ज्योतिषी इकठे हो जाय तो भी कुदरत के पेट की बात को जानने में समर्थ नहीं होते हैं / नल तथा दमयंती ने एक भव में मुनिराज का जो अपमान किया था वह निकाचित पापकर्म अब उत्तरोत्तर फल देने को सन्मुख हुआ है / जभी तो नगर की सीमा को त्याग कर जहाँ एक तरफ वाघ, सिंह और चित्ते की आवाज है, तो दूसरी तरफ काले भयंकर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्पो की दौड़ धाम है, तीसरी तरफ जंगली श्व पदों से युक्त तो चौथी तरफ सिंह के द्वारा फाड़े हुए हाथिओं के हाड चाम से वीभत्स इसलिए मानो ! यमराज के क्रीड़ा करने के स्थान सदृश वन में नलराजा का रथ आ पहुँचा / पृथक् स्थान पर टोले में मिले हुए अनार्य जाति के वाघरी, कोली तथा भील आदि के लड़के हाथ में धनुष, तलवार, भाला गोफन के ताने हए तथा नल के रथ को घेरे में डालने का इरादा रखनेवालों को देखा और नलराज भी रथ से नीचे उतरकर हाथ में तलवार को नृत्य कराने लगे, और भील के ऊपर टूट पड़ने की तैयारी की. तब दयार्द्र बनी हुई. दमयंती भी रथ से उतरकर नलराज से बोली स्वामिनाथ ! पशुओं के माफिक जीवन यापन करनेवाले दयापात्र इनके ऊपर गुस्सा करना बेकार है, आप लीलामात्र में दक्षिणार्थ भरत को जीतनेवाले हैं. अतः इन अनाथों पर प्रत्याक्रमण करना शर्म लाने जैसा बनेगा। इतना कहकर सती दमयंती ने जोर से हुँकार किया. और डर के मारे वे अपनी अपनी दिशा में भागने लगे। जिसके जीवन में सत्यसदाचार-खानदानी तथा पवित्र सुरक्षित है. उनकी प्रत्येक चेष्टा में शूरवीरता चमके विना रहती नहीं है / भागते हुए भीलों के पीछे नलराजा भी गये. दमयंती भी गई। परंतु वे जब वापस अपने रथ की तरफ आये तब दूसरे मार्ग से आये हुए भीलों ने उनके रथ का अपहरण कर लिया था। भाग्यदेवता ही जब नाराज हो चुके हो तब इन्सान का पुरुषार्थ भी वन्ध्य बन जाता है। राजारानी की यही दशा था . क्योंकि निकचित कर्मों के उदय में भाग्य के आगे पुरुषार्थ की एक भी चलती नहीं है, फिर भी राजारानी को इसकी चिंता नहीं थी क्योंकि जब पूरा राज्य ही हाथ से चला गया. तो रथके लिए चिंतातुर होकर रोने वैठनेवाले नलराजा नहीं थे / मोहमिय्यात्व का जोरदार अंधकार जब जीवन में होता है. तब पांच पैसों के लिए भी इन्सान शोक संताप से व्याप्त होकर आर्तध्यान तथा रौद्र ध्यान तक भी पहुँच जाता है. परंत P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान के प्रकाश में 'यह मेरे किये हुए कर्मों का फल है' यह समझकर सम्यगद्रष्टा अपनी आत्मा को नीचे नहीं पड़ने देता है। राजा रानी पैदल चले और बहुत थकने के बाद एक वृक्ष के नीचे बैठे / दमयंती भी थक गई थी, भूख, प्यास भी सता रही थी, वन के काले वृक्षों को देखकर भय से व्याकुल थी फिर भी मेरे पति का वियोग न होने पावे इसकी चिंता में गुमसुम बैठी हुई दमयंती को देखकर राजा भी बड़े दुःखी हुए, पेड़ के पत्तों से पवन किया तथा पलास के पत्तों का ग्लास बनाकर उसमें पानी लाया और पिलाया। हताश हुई दमयंती ने कहा 'चारों तरफ से भयानक जंगल कितना लंबा है ? जिसे देखकर मेरा हृदय धूज रहा है, मानो ! मेरे कलेजे के टुकड़े हो रहे हैं / आश्वासन देते हुए नल बोले, प्रिये ! तुम मत घबराओ जंगल चाहे छोटा हो या बड़ा मेरे शरीर में जब तक श्वास है तब तक तुम्हें चिंता करने की आवश्यकता नहीं है, इतना बोलते हुए राजाजी की आंखों में पानी भर आया, तब पश्चाताप करते हुए राजा ने सोचा अरिहंत परमात्माओं ने जुगार को बड़ा भारी पाप कहा है, प्रारंभ में वह मजेदार लगता भी हो परंतु दीमक के कीड़े की तरह जब वह व्यसन इन्सान की बुद्धि तथा आत्मा को व्याप्त कर लेता है, तब प्राय: कर सबों की दशा मेरे जैसी ही होती होगी ? का , दमयंती की विहवलता अरिहंत परमात्माओं के शासन को श्रद्धापूर्वक मानते हुए भी मैं मेरी आत्मा को दुर्व्यसन से रोक न सका, तब मोह तथा मिथ्यात्व के नशे में उन्मत बने हुए इन्सानों के किये जा रहे पापों का फल कितना भयंकर होगा। इसकी कल्पना भी हैये को घूजा देती है / नलराजा ने कहा, 'प्रिये ! सौ योजन की इस भयंकर अटवी में केवल पांच योजन का रास्ता अपन पार कर सके हैं। तम धीरज धरो! तेरे मेरे पाप P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust 38 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मों का उदय इस मनुष्य भव में आया है तो शांतिपूर्वक इसे अपन उतार दें इसी में फायदा है। इस प्रकार दोनों बात कर ही रहे थे, तब सूर्यनारायण भी अस्ताचल पर चलने को तैयार हुए, मानो ! अस्त होते होते भी संसार के इन्सान को कह रहे हैं कि, "सुख, संपत्ति, यौवन संयोग आदि भौतिक पदार्थ कभी भी हमेशा रहनेवाले नहीं होते हैं। मेरा ही उदाहरण प्रत्यक्ष है कि मेरे उदयकाल में संसार ने मेरा स्वागत किया था, श्रद्धापूर्वक अर्घ्य दिया था, परंतु अब मेरे सामने आकर मुझे सत्कारना तो दूर रहा, परंतु सामने देखनेवाला भी कोई नहीं है। इतना होते हुए भी मुझे दुःख, शोक. संताप आदि का अनुभव नहीं होता है, क्योंकि संसार की माया सबों के लिए एक समान ही रहती है, अतः इन्सान के जीवन में दुःखादि तो कसोटी स्वरुप है, उसमें चिन्तित होकर दुःखों की वृद्धि करने की अपेक्षा, हँसते हुए दुःखों के समुद्र को पार करना ही निहायत अच्छा है / अंधकार भी धीरे-धीरे बढ़ने लगा, तब नलराजाने वृक्ष के बड़े-बड़े पत्तों को एकत्र कर उसकी शय्या बनाई और बोले कि, प्रिये ! रात का समय होने से इस पथारी पर विश्राम करना चाहिये, मस्तिष्क पर आये हुए दुःखों को भूलने का उपाय निद्रा है / तव भयभीत (दमयंती) बोली स्वामिनाथ ! आज मेरा हृदय धड़क-धड़क हो रहा है / मन में अशान्ति है। हाथ पैर शिथिल हैं। शरीर मृत प्रायः जैसा है और निद्रा मानो, कह रही है, दमयंती ! “न जाने जानकी नाथ प्रभाते कि भविष्यति " राजाने कहा कृतकर्मों का भुगतान सर्वथा अनिवार्य होने से अनागत दुःखों की कल्पना करके वर्तमानकाल को बिगाड़ना बहुत ही बुरा है / जव तक उन कर्मों का उदयकाल आया नहीं है, तब तक उसका प्रतिकार करवाने वाली तथा आध्यात्मिक शक्ती को कमजोर करानेवाली चिंता करने का कुछ भी अर्थ नहीं है आश्वासित दमयंती लेट जाने की तैयारी करने लगी। कुछ दूरी पर गायों तथा भैंसों की आवाज कान में पड़ते ही दमयंती बोली कि, स्वामिनाथ ! यहां से P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिम दिशा तरफ चार पगे पशुओं की आवाजसे जाना जाता है कि, वहाँ पर गांव होना चाहिए, आप भी कान लगाकर सुनिये / मेरा कहना है कि, अपन' वहीं पर चले जिससे वसंती के सहारे निद्रा भी सुखकर रहेगी। नलने कहा 'हे डरपोक दमयंती !' वहां तापसों का आश्रम है, जिनका दैनिक विधिविधान अज्ञानपूर्वक होने से उनका सम्पर्क भी अपने सम्यकत्व में मालिन्य लानेवाला है / हे कृशोदरि! अति सुंदर दूधपाक में थोड़ी सी खटास पड़ जाने से वह खराव और त्याज्य बनता है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि का ज्ञान तथा चारित्र भी मिथ्याविशेषण से विशेषित होने के कारण त्याज्य है / इसलिए तुम यहीं पर निरांत से निद्राधीन बनो, मन में कुछ भी भय मत रखो, मैं तुम्हारा चौकीदार बनकर तुम्हारी रक्षा करने में पूर्ण सावधान हूँ, इतना कहकर अपने वस्त्र का आधा भाग काटके शय्यापर बीछा दिया, मानो। रेशम की गद्दी पर सफेद चादर बिछाई गई है / सो जाने के पहिले दमयंतीने अरिहंत परमात्मा को गाद किया तथा 'नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं नमो उवज्झायाणं, नमो लोप सव्वसा' अर्थात् मैं अरिहंत सिद्ध, आचार्य उपाध्याय तथा मुनिओं को भावपूर्वक वन्दन करती हैं, और उनका शरण स्वीकार करती हूँ। इस प्रकार जैसे गंगानदी के किनारे हँसी विश्राम करती हैं, उसी प्रकार दमयंती निद्राधीन हो गई। मानसिक चिंताओं से भी शरीर की थकान' ज्यादा होने से निद्रा आने में देर नहीं लगती है। - दमयंती का त्याग : 2राजमहलों में रही हुई रेशम की गद्दी पर सोनेवाली दमयंती आज भीलनी की तरह मेरे सहारे जमीन पर सोई हुई है, इस दृश्य को देखकर राजाजी की आँखें पानी से भर आई / मन में सोचा कि. मेरे जुगार का यही फल है. जिससे मेरी धर्मपत्नी की यह दशा कर पाया हूँ न मालूम किसी भव का पाप मुझे आज सता रहा है तो मेरी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्नी के साथ किया हुआ विश्वासघात का पाप आनेवाले भवों में मेरी दशा कैसी करेगा ? इतना विचार सद्बुद्धि तथा विवेक से आया, परंतु कर्मों का भारा जिसके मस्तिष्क पर हो, उसे सद्बुद्धि का सहारा कब तक मिलनेवाला है ? एक भव में 12 घड़ी तक तपस्वी मुनिराज का किया हुआ अपमान, अप्रभाज तथा धर्मातराय का निकाचित पापकर्म राजारानी के मस्तक पर उदित होने की पूर्ण तैयारी करके बैठ, चुका होने से दुर्वद्विवश राजा ने सोचा कि घरवाली के कहने से ससुराल जाकर उनके शरण में समय विताना अधम इन्सान का कर्तव्य तो मैं दमयंती के पिता के घर कैसे जाऊँ ? क्योंकि मैं कौशल देश का राजाधिराज हूँ। इसलिए हृदय को वज्र जैसा बनाकर इसी जंगल में सोई हुई दमयंती को छोड़कर दूसरे स्थान पर जाना यही मेरे जैसे मानी के लिए उत्तम है / अपने शियल ब्रम्हचर्य तया सतीधर्म के प्रभाव से दमयंती अपनी रक्षा स्वयं करने में समर्थ है, शास्त्रों ने भी पुकारा है कि, सतीओं का "शिलधर्म ही उनके शरीर का रक्षक हैं ऐसा सोचा कर नलने छुरी द्वारा अपनी अंगुली से लोही निकाला और दमयंती के वस्त्र पर लिखा कि , जिस वटवृक्ष के नीचे तुम भर निद्रा में सोई हुई हो उसी दिशा की तरफ तुम्हारे पिता का नगर है, और उसके विपरीत दिशा तरफ तुम्हारा ससुराल है, इन दोनों स्थानों में से जहाँ पर तुम्हारा मन साक्षी दे वहीं पर चली जाना, मैं दोनों देश तरफ जाने की इच्छा नहीं रखता हूँ" इसप्रकार लिखकर तथा शब्द बिना पेटभर रो लेने के बाद चोर के माफिक नलराजाने भी विश्वास से सोई हुई दमयंती को छोड़ कर चलने की तैयारी की। थोड़ी दूर पर जाने के पश्चात् नलने पीछे देखा दमयंती अभी भी निद्राधीन थी अतः राजा जल्दी से आगे बढ़ने लगा अभी तक दमयंती पूर्णरूप से अदृश्य नहीं थी फिर से नल को विचार आया, भया वह इस जंगल में सर्वथा एकाकिनी तथा सर्वथा निःसहाय दययंती को देखकर भूखा वाघ, सिंह तथा दूसरे और भी क्रूर पशु इसे जरुर खा 41 P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायेंगे जब ये बाते मैं भविष्य में श्रवण करूँगा तब मेरी कैसी विचित्र गति होगी ? फिरतो मुझे भी जीवित रहने का क्या प्रयोजन ? इसलिए जब तक प्रातःकाल होने न पावे तब तक यहीं पर खडा रहकर दमयंती की रक्षा करूँ, तत्पश्चात् वह चाहे कहीं भी जा सकती है। राजा दमयंती तरफ मुंह घुमाकर चौकी करने लगे। धरती पर निर्नाथ पड़ी हुई उसे देखकर राजाने पुनः सोचा केवल एक ही वस्त्र पहिनी हुई दमयंती रास्ते की भीखारिण के माफिक सोई हुई है, जो नल की पटरानी है जिसके भाग्य में सूर्यनारायण को भी देखना पाप माना गया है, आज पूरी दुनिया असूर्यम्पश्या दमयंती को देखने लगेगी तब मुझे धिक्कार मिलने के सिवाय मेरे भाग्य में शेष कुछ भी नहीं रहेगा। मेरे ही कर्मों का दोष का कारण है कि, उचे खानदान में जन्मी हुई इसकी यह दशा हुई है। मैं यदि जुगार न खेलता तो मेरे सामने अंगूली भी कौन उठा सकता था / आज मैं हताश, हतप्रभ तथा किर्तव्यविमूढ बन गया हूँ जिससे इस महासती को छोड़ने की दशा में आ गया हूँ जभी तो हतपुण्यकर्मी मेरे जैसे पति के कारण पलंगो में पोढनेवाली दमयंती जमीन पर पड़ी है फिर भी मैं जीवित हूँ अथवा इसके वियोग में मैं जीवित भी नहीं रह सकुंगा तथा एकाकिनी दमयंती भी मेरे वियोग में जरुर कुछ कर बैठेगी। हाय रे? मेरी दुर्दशा कैसी विचित्र बन गई है, इन कारणों से मेरे चरणों की दासी को त्यागने का विश्वासघात करना पड़ा है अब जीना और मरना दोनों का साथ ही रहेगा। निकाचित कर्मों की सत्ता तथा उदयकाल ने जब आने की तैयारी कर ली है तो मानव मात्र के पवित्र विचार कहाँ तक टिकने वाले है ? अतः बुद्धि में वैपरित्य आया और राजा ने पुनः सोचा कि नरक के समान इस भयंकर वन का मुसाफिर मैं एकाकी रहूँ तथा मृगाक्षी दमयंती मेरी आज्ञा से चाहे अपने पिहर या ससुराल तरफ जाकर अपने स्वजनों के मध्य आराम से अपने दिन बीता सकेगी। यह 42 P.P.Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोचकर प्रातःकाल होते ही नलराजा ने अश्रुपूर्ण आँखों से दमयंती की तरफ देखे बिना ही वन की तरफ आगे बढ़ गये / . दमयंती को आया हुआ स्वप्न विकसित कमलों के सुगंधपूर्ण प्रभात का पवन जब चल रहा था तब दमयंती ने एक स्वप्न देखा कि, " मैं आम के झाड पर आरुढ होकर पके हुए आम खा रही हुँ भ्रमरों का संगीत सुन रही हूँ, परंतु एक वनहस्तीने आकर उस वृक्ष को मूल से गिरा दिया और मैं पक्षी के अंडे के समान नीचे पड़ी" स्वप्नांतर जागृत हुई दमयंतीने चारों तरफ नजर करने पर भी अपने पति नल को नहीं देखा, तब अनिष्ट, प्राणोंपघाती, अमंगल की शंका से बेचैन बनकर बोली, "ऐसे भयंकर वन में मेरे प्राणनाथ ने भी मेरा त्याग कर दिया" अथवा दयामय नल ऐसा अपकृत्य करे वह मानने में नहीं आता है, कदाच प्रातः समय में हाथपैर तथा मुंह प्रक्षालन के लिए गये होंगे ? अथवा रुपलुब्ध किसी विद्याधर कन्या ने मेरे नाथ का अपहरण किया होगा ? अथवा क्रीडा करन अन्यत्र गये हों और कुछ हार भी गये हो तो वहाँ के व्यवस्थापकों ने उनको रोक लिया होगा? इस प्रकार चितासागर में प्रविष्ट दसो दिशाओं को, पर्वतों को, नदी-नालों को झाड़ तथा डालों को देख देखकर थक जाने के बाद अपने स्वप्नार्थ का विचार करने लगी, जिस वनहस्ती न आम वृक्ष को निर्मुल किया था उसका फल हमारे भाग्य ने हमको राज्य म्रष्ट कर वनवास दिया। मैं जो वृक्ष से गिर गई थी उसके फल का अनुमान है कि, मेरे पतिने भी मेरा त्याग कर दिया है। जिससे उनके दर्शन भी मेरे भाग्य में दुर्लभ बन गया है इस प्रकार स्वप्नार्थ का निर्णय = कर पति के वियोग में दमयंती संतप्त बनी और मुक्तकंठ से रो पड़ी, - क्योंकि स्त्री चाहे कितने ही दुःखों को सहन कर सकती है, परंतु पति वियोग उसके लिए दुःसहय बन जाता है / जीवन का उपार्जित धैर्य भी = चला जाता है, ऐसी परिस्थिति में वह बोली, 'हे नाथ आपने मेरा त्याग P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यों किया ? क्या आपके लिए भारभूत थी ? यदि आप मेरा मजाक करने हेतु कहीं पर चले गये हो तो आप मेरे पर कृपाकर के प्रकाश में पधारिये क्योंकि आत्मीयजन के साथ प्राणघातक मजाक या मश्करी सज्जनों के लिए त्याज्य मानी गई है / वन देवदेविओं से हाथ जोड़कर बोली, 'हे क्षेत्र देवों तथा देविओं ! मेरे पर प्रसन्न होकर मेरे पति को यदि तुमने छुपा दिया हो तो उनको प्रकाशित करें मेरा मार्ग सरल वने अथवा मुझे उनके पास ले जाकर छोड़ दो / अथवा हे हृदय / तू स्वयं ही चीभडे के माफिक टूट फूट क्यों नहीं जाता है, जिससे मेरे दुःखों की निवृत्ति हो जाय / इस रुदन करती दमयंती को जल में स्थल में, छाया में तथा धूप में ज्वर से पीड़ित इन्सान के माफिक शांति असंभव रही है / यूथ भ्रष्ट हरिणी के समान इधर उधर भटकती उसने अपने वस्त्र के अंचल पर लिखे हुए अक्षर देखे, पढे और कुछ प्रसन्न होकर विचारने लगी, 'मैं जरूर अपने पति के मनरुपी तलाव की हंसी हूँ अन्यथा मुझे इतनी भी आज्ञा का प्रसाद देने की उदारता वे कैसे कर पाते, अव मेरा धर्म एक ही है कि इस आदेश को गुरु आदेश से भी ज्यादा मानूं , क्योंकि स्त्री के लिए पति परमेश्वर है, गुरु है, पूज्य तथा सत्करणीय है / अतः उनकी आज्ञा के अनुसार मुझे मेरे पिता के घरपर ही जाना उचित है / पति के लिखे अक्षरों में पतिभाव की. स्थापना करती दमयंती वटवृक्ष के मार्ग से आगे बढ़ने लगी / मानसिक जीवन के अणु अणु में अरिहंत का वास, सिद्ध चक्र भगवंत की श्रद्धा तथा गुरुदेवों का बहुमान था। इसी कारण से मार्ग में आते हुए बाघ, सिंह, अजगर भी शांत हो जाते थे, दरों में रहे हए सर्प भी दमयंती को कुछ भी कर न पाये, वन हाथी भी शांत थे तथा और भी उपद्रव सती को सताने में समर्थ नहीं थे। वाल बिखरे हुए थे / पसीना आ रहा था। पैरों में कांटे चुभने के कारण रक्तधारा भी वह रही थी। शरीर रास्ते की धल तथा रेत से भर गया था, इसलिए दावानल से त्रस्त हस्तिना का YY P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरह दमयंती तेजगति से आगे बढ़ रही थी। सतीत्व के प्रभाव से सार्थवाह का रक्षण का - वन की एक तरफ बड़ा सार्थवाह अपने सैकड़ों हजारों आदमियों के साथ पड़ाव डालकर स्थित था जिसको दमयंती ने देखा और सोचा कि, यदि मुझे भी कोई साथ मिल जाय तो इस भयानक वन से मेरा छुटकारा हो जायेगा / ऐसा सोच ही रही थी उतने में चोरों का टोला सेठ। की छावनी पर लूटने के इरादे से टूट पड़ा। पड़ाव से हाहाकर मचा, जिसको जो रास्ता मिला वह उसी तरफ दौडधूप करने लगा / सार्थवाह भी बड़ा चिंतित था, क्योंकि डाकुओं के पास शस्त्र सामग्री ज्यादा थी दया से भरी हुई दमयंती अपनी आँखों के सामने किसी की दुर्दशा कैसे देख सकती है ? तब वह दौड़ी और भागते हुए इन्सानों को कहा, आप मत भागे मैं आपकी रक्षा करूँगी ऐसा कहकर दमयंती ने डाकुओंसे कहा, तुम लोग अभी के अभी चले जाओ, भाग जाओ, जिस सार्थवाह की मैं रक्षा कर रही हूँ, उसको लूटने का साहस तुम्हारे लिएआपत्ति खडी कर देगा / इसप्रकार दमयंती की अवगणना करते हुए डाकु लोगों ने -सार्थवाह को लूटने का कार्य जव वंद नहीं किया तब दमयंतो ने जोर से हुंकार किया जो सिंहनाद के समान होता है / जिसको सुनकर रणमैदान में खेलनेवाले योद्धा. भी डर जाते हैं, तो साधारण इन्सान का क्या पूछ ना ? डाकुओं ने सोचा कि, यह स्त्री, सामान्य नहीं है क्योकि - जिसकी आवाज में इतनी ताकत है तो समयपर यह क्या नहीं कर सकती है। डाकू भागने लगे और सार्थवाह (सेठ) निर्भय बना / जिन डाकुओ से अपनी तथा साथवालों की रक्षा करना भी मुश्किल बन गया था, उसे अपनी हुँकार मात्र से इस स्त्री ने सरल बना दिया, तब प्रत्यक्ष बात पर दूसरे तर्क करने निरर्थक है / यह समझकर दयापूर्ण, धर्मप्रेमी सार्थवाह दमयंती के पास आया और जय जिनेंद्र पूर्वक हाथजोड़कर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोला, दमयंती ! इस भयंकर वन में तुम कहाँ से आई हो ! कौन हो ? और किन कारणों से वनवासिनी बनने पाई हो? तब सेठ के श्रध्यय शब्दों को सुनकर दमयंती की आंखें अश्रुपूर्ण बनी और नलराजा के जुगार से लेकर सारा वृत्तांत सुना दिया। सेठ ने कहा आज मेरा पुण्योदय है कि, मेरे श्रध्येय, पूज्य नलराजा की धर्मपत्नी को आंखो से देख रहा हूँ अतः तुम भी मेरे लिए पूज्य हो / परिचय बिना भी चोरों स मेरा तथा मेरे साथियों का रक्षण करके आपने उपकार द्वारा मुझे खरीद लिया है। अतः मेरे आवास में पधारे जिससे आपकी सेवा भक्ति द्वारा मैं यत्किचित् अंशो में ऋग मुक्त बन पाऊं ! इस प्रकार वह सेठ दमयंती को अपने आवास पर ले आया और वनदेवी के माफिक उनकी सेवा में लग गया। - कुछ दिनों के बाद वर्षा ऋतु का प्रारम्भ हुआ। नाटक के प्रारंभ में जिस प्रकार नांदी होती है, उसी प्रकार मेघो की गर्जना तथा विजली की चमकपूर्वक मेघराज का नाटक भी जोरदार रहा / नदी, नाले भर गये / मेंढको का संगीत चालू हुआ / वराह तथा उनकी मादाओ को मजा देनेवाला कीचड़ तथा छोटे-छोटे गढे पानी से भर गये। मुसाफिरों के लिए गमनागमन कष्टप्रद बन गया। इस प्रकार तीन रात तथा दिन तक विश्राम लिए बिना ही वर्षा का तांडव जोरदार रहा। जब वर्षा का जोर कम पड़ा, तब महासती दमयंती ने सार्थवाह का आवास छोडकर एकाकिनी बनी और वन में आगे की तरफ चलने लगी। 1. जिस दिन से नलराजा का वियोग हुआ है, तब से उपवास आदि तपश्चर्या का प्रारंभ किया हुआ होने से धीमे-धीमे चलती हुई बहुत आगे निकल गई। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - राक्षस की पराजय / रास्ते में एक राक्षस मिला जिसका शरीर निम्नलिखित था, बालपीले थे / हाथ के नाखुन कातर जैसे थें / तालवृक्ष के तुल्य लंबे तथा पतले पैर थे। अमावस्या की रात जैसा शरीर श्याम था। सिंह के चाम से शरीर आवृत्त था। ऐसे भीषणाति भीषण राक्षस को देखकर दमयंती को भय लगना स्वाभाविक था, परंतु जो आत्मसंयमी है / इन्द्रीय स्वाधीन है / मन, धर्म की मर्यादा में है / व्यापार तथा व्यवहार सत्यमय है। भाषा में विवेक तथा जीवन में विनय है / तथा लोही की बूंद बूंद में धार्मिकता है। उसके पास भय भी लाचार तथा बेचारा बन जाता है। राक्षसने दमयंती से कहा, तीन चार दिनों से मैं भुख के मारे पीडित हूँ और विना परिश्रम के आज तुम मिल गई हो तो में तेरे शरीर का भक्षण करके पारणा करूँगा / और संतुष्ट बनुंगा / तुम्हारे जैसा कोमल शरीर आज तक किसी का भी देखने में आया नहीं है, अतः तुम्हारा भक्षण करते हुए मुझे देर भी न लगेगी। तब धैर्य की धारण करती हुई दमयंती ने कहा, 'राक्षस ! प्रथम मेरी बात सुन लो फिर उसका विचार करो उशके बाद तुम्हें जो उचित लगे वही करना इतनी प्रस्तावना के बाद बड़ी मक्कमतापूर्वक दमयंती बोली, . जातस्य हि ध्रुवं मृतुरकृतार्थस्य मृत्यु भीः / आजन्म परमार्हत्याः कृतार्थास्तु सा न मे // परस्त्रियं माँ स्पृश मा स्पृशन्नपि न नंदसि / मामाकोशेन मूढात्मन्नेषास्मि विमृश क्षणम् // राक्षस पहिले तू इतना समझ ले कि, " राक्षस, देवयोनि का देव होने से वह कभी भी पशु का या नर का मांस खाता नही है "फिर भी निकृष्टतम व्यंतरयोनि का देव यदि कुछ करे तो वह केवल पशु या नर हत्या का ही भागीदार बनेगा, परंतु मांस का खानेवाला वह कभी भी बनता नहीं है, इस प्रकार की जैनी वाणी को मिथ्या करने की ताकत किसी में P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी नहीं है / बेशक ! मनुष्यावतार को प्राप्त करने पर जो अविवेकी है वे ही मांस भोजी है, अब मुझे मालूम नहीं कि, तुम देव हो या नराधम / फिर भी मेरे शरीर का पारणा करने से प्रथम कान लगाकर सुन लो / म (1) जन्मे हुए इन्सान की मृत्यु सर्वथा निश्चित है, उसे संसार का पुरुष विशेष भी टाल नहीं सकता है। जीवमात्र के हाथ में आयुष्य कर्म की हथकड़ी पड़ी है, वह जितनी मर्यादा कि होगी तब तक उस जीवको तेरे जैसे एक यहीं परंतु हजारों राक्षस, यक्ष आदि भी मार नहीं सकते। आयुष्कर्स मर्यादा ज्यादा से ज्यादा 33 सागरोपम की है, इतने लंबे आयुष्यवाले को छोटे आयुष्यवाले पिढी दरपिढी भी देख सकते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि, वह अमर है। इस संसार में युग युग में ब्रह्मा भी आते हैं और जाते हैं, इन्द्रपद पर रहा हुआ इन्द्र भी अमर नहीं है, बेशक ! आयुष्य कर्म उसका दीर्घकालीन होने से वह अमर सा अनुमनित होता है, फिर भी उसका अंत आने पर उसको वह स्थान छोड़ना सर्वथा अनिवार्य है / तो फिर मेरी बात क्या करनी ? क्योंकि मैं भी जन्मी हुई हूँ, तुम भी जन्मे हुए हो, अतः एक दिन में भी और तुम भी मृत्यु के मुख में जानेवाले हैं। काम (2) यह तथ्य सर्वथा निश्चित होने पर भी इन्सान को मृत्यु का भय इसलिए है कि, मायाग्रस्त बनकर हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार और परिग्रह के पापों को उपार्जित किये हुए होने से कृत्य कृत्य नहीं, है इसलिए तो कहा जाता है, वही मरने से डरता है, जो पापी है अधर्मी है राक्षस मेरे जीवन में दृश्य या अदृश्य एक भी पाप नहीं है अतः कृत्यकृत्य बनी हुई मुझे मरने का भय स्वप्न में भी नहीं है / (3) जन्म से ही मैंने अरिहंत परमात्माओं की आज्ञा के अनुसार व्रतों का पालन किया है, अतः पाप का एक भी द्वार मेरे जीवन में खुला हुआ नहीं होने से मैं कृत्यकृत्य अर्थात् किसी भी जीवात्मा से मेरा बेर 8 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरोध मारकाट तथा हिंसादि कर्म नहीं किये हुए होने से मुझे मरने का भय क्यों लगेगा ? 1 / (4) उपरोक्त वचन बड़ी मक्कमता से कहने पर निर्भय बनी हुई, दमयंतीने पुनः कहा कि, 'हे नराधम राक्षस ! मैं तेरे लिए परस्त्री हूँ अतः मेरा स्पर्श तो दूर रहा परंतु मुझ पर खराब विचार करना भी महापाप है / तमाम धर्माचार्यों ने भी कहा है, अपनी विवाहित पत्नी को छोड़कर दूसरी कन्या, विधवा, सधवा, सहपाठिनी, विद्यार्थीनी शिष्या साली, भाभी, पडोसन तथा विश्वासु स्त्रियां सव परस्त्री है, अतः उनके विश्वास का घात करना ही मृत्यु है, इसलिए मेरा स्पर्श करके तुम स्वय ही मत्य के मेहमान बनने की उतावली मत करो। (5) फिर भी बल जबरी से मेरा स्पर्श किया तो भी राक्षस ! तेरे हाथ में कुछ भी आनेवाला नहीं है। प्रत्युत मेरा भक्षण करते कहीं तुम्हारा ही भक्षण यमराज करने न पावे / हे मूढात्मन् ! ऊपर की सब बातों पर एक वार विचार कर लो, और मेरे ऊपर से नजर हटाओ। इस प्रकार दमयंती की धीर-वीर तथा गंभीर वाणी को सुनकर राक्षस स्वयं ही भयभीत बना और बोला, 'भद्रे !' मैं तुम्हारे पर खुश हूँ। अब वतलाओ कि, मैं तुम्हारा भला कैसे करूँ ? तब दमयंती बोली, देवयोनि के निशाचर / यदि तुम मेरे पर प्रसन्न हो तो अवधिज्ञान का उपयोग रखकर बतलाओ 'मेरे पति नलराजा का संगम मुझे कब होगा?' तब देव बोला है कल्याणी ! जिस दिन से तुम्हारा वियोग हुआ है, तब से द्वादश (बारह). वर्ष पूर्ण होने के पश्चात् जब तुम अपने पिता के घर होगी तब कुशलतापूर्वक तुम्हारा सम्मेलन होगा / अतः धीरज धरना ही उत्तम है / इतना कहकर फिर वोला, यदि तुम मुझे आज्ञा दो तो मैं तुम्हें आंख की पलक मारते ही तुम्हारे पिता के घर 49 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहुँचा दूं। जिससे इस भयंकर वनवास का दःख हलका भी हो जायगा। अब जैसा तुम कहो उससे मानने के लिए मैं तैयार हूँ। __दमयंती ने कहा, 'देव !' तुम्हारा कहना गलत नहीं है, परंतु सब जीवों की आचारसंहिता एक नहीं होती अतः तुमने मेरे पर कृपा करके मेरे पति की बात कही उसी से मैं वड़ी प्रसन्न हूँ, इसके अतिरिक्त दूसरी प्रसन्नता से मैं विमुख हूँ, क्योंकि मेरे लिए तुम परपुरुष होने से तुम्हारे साथ आना यह मुझे तथा मेरी खानदान की आचारसंहिता को मंजूर नहीं है / अव रही वनवास के दुःख की बात सो तो भैया / दुःख ही इन्सान के जीवन की, उसके ज्ञानविज्ञान की तथा उसकी खानदान की कसौटी है। मैं तो परमात्मा से प्रार्थना करती हूँ, 'हे प्रभो !' इसी मनुष्यावतार में मुझे हजारों प्रकार के दुःख देना परंतु उस दुःख को सहन करने की शक्ति भी देना / इसलिए तुम जाओ / मार्ग में तुम्हारा कल्याण हो। इस प्रकार शुभाशीर्वाद पूर्वक दमयंती ने राक्षस को विदा दी। उसे भी बड़ी भारी खुशी थी, अपने जीवन में स्त्रियां तो बहुत देखी थी, परंतु दमयंती जैसी नहीं, जो महासंकट में फँसी हुई है, तो भी बड़े चैन से अपने दिन को काटने में समर्थ है / धन्य है, पतिव्रत धर्म पालनेवाली को जिसके पुण्य प्रभाव से संसार में सुख, शांति तथा समाधि है / शास्त्रों में लवण समुद्र के मध्य रहे हुए शाश्वत पातल कलशों का वर्णन आता है, वे सब पवन के वेग से समय पर चलित होते है, तब उसमें रहा हुआ पानी समुद्र में गिरता है और तूफान आता है, उसे भरती (ज्वारभाटा) कहते हैं, जो बड़ी भारी खतरनाक तथा पूरे संसार को जलसमाधि कराने में पूर्ण समर्थ होती है। परंतु धर्म, धार्मिक महाव्रतों और देशविरति धर्म तथा शियल संपन्नमहापुरुषों के पुण्यप्रभाव से करोड़ों की संख्या में देवता उस समुद्र के वेग को रोक लेते हैं, अन्यथा जलप्रलय होने में कितनी देर ? यही कारण है कि, रुपवान, श्रीमंत तथा सत्ता संपन्न इन्सान से भी इन्सानियत बड़ी है / दमयंती ने P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी मोक्षार्थ साधिनी पुरुषार्थ शक्ति के बल से स्त्री शरीर का नहीं, अपितु सतित्व की आराधना की थी इसी कारण से भूत, प्रेत व्यंतर, देव, दुर्जन, सांप, बाघ आदि सतीओं के सामने आने की हिम्मत करते नहीं हैं / राक्षस ने शरीर का रुपांतर किया और बिजली के पुंज के समान चमकता हुआ देव दमयंती को नमस्कार कर अपने स्थान पर गया। बारह वर्ष के बाद पति का मिलन होगा, तब तक धैर्य रखना ही अच्छा है, यह समझकर पति के सम्मीलन की मर्यादा पर्यंत लाल वस्त्रों का परिधान, तांबुल का भक्षण आभूषण, शरीरशृंगार तथा रोज के भोजन में दुध, दही, घी, तेल, गुड़ तथा शक्कर का खाना बंद किया क्योंकि नियमबद्ध जीवन में ही परमात्मा का आशीर्वाद साक्षात्कार होना संभावित है / चाहे कितनाही मूल्यवान घोड़ा हो उसे लगाम, हाथी को अंकुश तथा सायकल, मोटर आदि को ब्रेक का होना अत्यंत - जरुरी है अन्यथा दूसरे से टकराना (एक्सीडेंट) अवश्यंभावी है / तो - फिर मानवावतार तो देव दुर्लभ है, अतः नियमबद्ध जीवन ही उसमें चार चांद लगा सकेगा। जिसके जीवन में कुछ तत्व है, उसी पर संकट आयेगे, गुंडे, बदमाश तथा भिखमंगों पर आपत्ति आकर के क्या करेगी? क्योंकि उनके जीवन में एक भी अज्छा तत्व नहीं है / इस प्रकार तीब्र मानसिक वेदना की विद्यमानता होने पर दमयंती ने अपनी आत्मा तथा परमात्मा का विश्वास टिकाये रखा और वन के रास्ते को पार करती हुई, एक पर्वत पर चढ़ने लगी। गुफावासिनी दमयंती = थोड़ी ऊँचाई पर जाने के बाद एक गुफा देखने में आई / जो वर्षा ऋतु को समाप्त करने की मर्यादा तक सर्वथा सुरक्षित थी। दमयंती ने उस गुफा को साफ-सूफ करके रहने लायक कर दी। तथा खेत की पवित्र मिट्टी लाकर इसी चौवीसी के सोलहवें तीर्थकर श्री P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्तिनाथ भगवंत की मूर्ति बनाकर पवित्र स्थान में स्थापित की। अपने आप गिरनेवाले ताजे तथा सुगंधी पुष्पों से परमात्मा का पूजन तीनों टाइम ध्यान वन्दन आदि शुद्ध अनुष्ठानों में अपने मन को लगा दिया / एकान्तर उपवास रखती हुई सती दूसरे दिन जंगल से फल लाती, उसे बीजरहित कर उससे उपवास का पारणा करती थी। - इस तरफ प्रातःकाल होने पर सार्थवाह ने दमयंती को जब नहीं देखा, तब चिंतामग्न होकर चारों तरफ तपास करवाया तथा स्वयं भी तपास करने हेतु रेत में पड़े हुए दमयंती के पैर के निशान के अनुसार घूमते-घूमते उसी पर्वत की गुफा में आया, जहाँ पर दमयंती परमात्मा के ध्यान में मग्न थी। देखकर प्रसन्नीभूत सेठ (सार्थवाह) सती को नमस्कार कर जमीन पर बैठ गया। उसने पूजा को समाप्त किया और स्वागत शब्दों से सार्थवाह के साथ वार्तालाप करने का प्रारम्भ किया। वार्तालाप (चर्चा) कभी जोरदार शब्दों में चलती थी, तो कभी धीमी आवाज में / - तापसों का हृदय परिवर्तनका ___ जिस गुफा में यह तात्विक चर्चा चल रही थी, वहाँ से कुछ दूरी पर तापसों का आश्रम था, जिसमें वहुत से तापस रहते थे उनके कान में ये चर्चा के शब्द पड़े और आनंदित होकर वे भी चर्चा में सम्मिलित हुए / संगीत से हिरणों का टोला जिस प्रकार तन्मय बन धर्म का सूक्ष्मातिसूक्ष्म रहस्य सुनकर तापस खुश हो गये और जिन्दगी में अभी तक सुनने में जो नहीं आया था, उसको सुनने में वे तापस व सेठ तन्मय बन गये, मन वचन काया से प्रसन्न बने / उसी समय आकार से बिजली के कड़ाके, मेघों की गर्जना के साथ मानो बारह मेघ एकह साथ टूट पड़े और नदी, नाले, तापसों के कुंड, उनकी पर्णकुटिएँ, सब P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के सब पानी से भर गये और एक के पीछे एक झोपडे टूटकर, पानी के प्रवाह में बहने लगे, भगवे वस्त्र, त्रिदंड, कमण्डल खडाऊ, रूद्राक्षमाला, व्याघ्रचर्म आदि को बहते हए सभीने देखा / तब तापस बड़े चिन्तित हुए, घबराने लगे, रोने लगे, दौड़धूप करने लगे परंतु विधि की लील, के आगे वे सब कुछ भी करने में समर्थ नहीं बने / बेशक ! तापस, जीवन भर के ब्रह्मचारी थे, तपस्वी थे, शीर्षासन से ध्यान करते थे। जटाजूट बढ़ाये हुए थे, साथ-साथ भांग, गांजा चरस की चिलमें फुकने में वे समाधि की प्राप्ति जैसी मौज लूटनेवाले थे, परंतु समझना होगा कि, धर्म तथा धार्मिकता का संबंध शरीर की क्रियाओं के साथ नहीं, परंतु आत्मा के साथ उनका सीधा संबंध है / जब तक सम्यग्ज्ञानपूर्वक का सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता है, तब तक सम्यक चरित्र भी अत्यंत दुर्लभ भी बन जाता है। ऐसी परिस्थती में आत्मशुद्धि के लक्ष्य बिना कि, | एक भी बाह्य क्रिया अपना प्रभाव बतला न सके इसमें क्या आश्चर्य ? / भाग, गांजा, चरस तथा स्नानादि अनुष्ठानों से धर्म की उत्पत्ति नहीं होती है, परंतु नये पाप के द्वार बंद करना और जूने पापों को धोने के लिए पाप, और तामस तथा राजस भाव बिना की तपश्चर्या करना रूप सम्यग् चरित्र ही धर्म की उत्पत्ति का मौलिक कारण है. जिससे अनुप्ठानों में साफल्य भी प्राप्त होगा तथा जीवन में चमत्कार की वृद्धि होगी। अन्यथा किंकर्तव्यमढ बने हए तापस अपनी ही रक्षा में व्यग्र वनने पावे उसमें आश्चर्य क्या ? इस प्रकार के भयग्रस्त तापसों को देखकर दयामूर्ति दमयंती गुफा से बाहर आई और वर्षाऋतु के तांडव को प्रत्यक्ष कर बोली, तापसों! घबराओ मत, घबराओ मत ! ऐसा कहकर दमयंतीने हाथ में जल लिया और तापसों के कुंड पर्यन्त की अवधि का संकल्प कर सती धुरंधरा दमयंती ने मेघकूमारों को संबोधकर कहा. हे देवों ! यदि मेरे मन में नलराजा को छोड़कर दूसरा पुरुष स्वप्न में भी न आया हो तो P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा मेरा मन आर्हत धर्म के रंग में रंगा हुआ हो तो तापसों के आश्रम की मर्यादा छोड़कर मेघ बरसे, अर्थात् अतिवृष्टि समाप्त हो जाय / और हाथ का जल नीचे फेंका और बारिश बंद हुई, नदी नाले शांत पड़ेआश्रमवासिओं का भय खत्म हुआ, हजारों तापसों तथा सेठ ने यह प्रत्यक्ष चमत्कार देखा और उनके मन में एक चिनगारी पैदा हुई कि. 'दमयंती, देवस्वरुप है, क्योंकि मानवस्त्रीमें यह रुप और प्रत्यक्ष की हुई शक्ति संभावित नहीं है, कदाच मनुष्यस्त्री रही हो तो ब्रह्मचर्य धर्म सम्पन्न महासती जरुर है, अन्यथा आंखों के सामने सर्वथा अननुभूत चमत्कार हुआ है उसमें शास्त्रों के पाने देखने से क्या मतलब ? शास्त्र वचन भी है कि, देवों तथा इन्द्र की अपेक्षा मनुष्य ज्यादा शक्तिशाली होता है बेशक ! वह पूर्ण ब्रह्मचारी हो, पतिव्रता हो, जीव मात्र के प्रति अहिंसक भाव हो, सत्यभाषी हो तो देवयोनि के देव भी उनके चरणो में सिर झुकाकर दासत्य स्वीकार करते हैं। __ उपरोक्त सात्विक भाव तापसों के मन में बड़ी नेजी से बढ़ रहा था, उसी समय स्वच्छ बुद्धिनिधान वसंत सार्थवाह ने दमयंती से पूछा, हे कल्याणी ! तुम्हारे सामने कौन से परमात्मा है ? जिसकी पूजा तुम मन वचन तथा काया की एकाग्रता से कर रही हो / दमयंती ने कहा, 'हे सार्थवाह / ये देव अर्हन्' परमेश्वर त्रिलोकीनाथ तथा जो कोई भी इनकी आराधना करेगा उनके लिए कल्पवृक्ष के समान शांतिनाथ परमात्मा है,जो इस चौवीसी के सोलहवें तीर्थकर है। इन देवाधिदेव की आराधना करती हुई मैं, इस भयंकर वन में सर्वथा-अर्थात् रात दिवस, स्वप्न तथा जागृत अवस्था में भी निर्भय हूँ इनके प्रभाव से बाघ, सिंह, अजगर, व्यंतर भूत, प्रेत, राक्षस आदि मेरा कुछ भी बिगाड़ने में समर्थ नहीं है। इस प्रकार अरिहंत प्रभु के स्वरुप को कहकर उनके प्ररुपित कथित धर्म के रहस्य को समझाती हुई, महासती ने कहा "जहां पर चाहे जैसी भी मानसिक, वाचिक तथा कायिक क्रियाओं से 4 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपायों का दमन हो, विषय वासना का शमन हो, पापों का निकंदन हो पुण्यपवित्र मार्ग का उदय हो, इन्द्रियरुप घोड़ों का उपशमन हो, मन के सब वैकारिक तूफान बंध हो, वही जैन धर्म है। अहिंसा धर्म है। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु तथा वनस्पति में अनंतानंत जीव हैं, अतः . जैनमुनि इनका स्पर्श भी नहीं करते हैं / स्त्रीमात्र को छुते नहीं हैं, स्नान पानी करते नहीं है, और अपने हाथों से भोजनपानी पकाते नहीं है / क्योंकि इन सब क्रियाओं में हिंसकता रही हुई होने से उनके लिए त्याज्य है / अरिहंत परमात्मा के उपासक गृहस्थाश्रमी को भी कदाच इनका व्यवहार करना पड़े तो विवेकपूर्वक उपयोग करे तथा मर्यादा में रहकर अर्थात् एक लोटे पानी से यदि शरीर शुद्धि हो जाती हो तो, बड़े भर पानी का उपयोग नहीं करते हैं / दमयंती के मुख से अहिंसा-संयम तथा तपोधर्म की व्याख्या सुनकर वसंत सेठ ने जैनधर्म को स्वीकार किया। सर्वथा त्याग करने योग्य तत्व को अभी तक उपादेय रुप से माननेवाले तापसों का भी भ्रम दूर हुआ और उन्होंने भी दयामूलक जैनधर्म स्वीकार किया, क्योंकि दूधपाक का भोजन आकंठ कर लिया हो तो खट्टी छाछ कौन पियेगा। तदन्तर धर्म के रंग में रंगाये हुए सार्थवाह (वसंतसेठ) ने तापसों के आश्रम में शांतिनाथ परमात्मा का भव्यातिभव्य मंदिर बनवाया, तथा पर्णकुटिओं की तोड़कर मकान बनाये / तथा इसप्रकार सेठ तथा तापस धर्मपरायण बनकर अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं : ... एक दिन मध्य रात्री में पर्वत के ऊपर चमकते हुए सूर्य के सदृश बड़ा भारी प्रकाश तथा देव-असुर तथा विद्याधरों को जयजयकार बोलते उस प्रकाश के पास आते हुए देखा / आश्चर्यचकित दमयंती, वसंतसेठ तथा तापस भी पर्वत के ऊपर चढकर प्रकाश तरफ नजर डाली तो मालूम हुआ " श्री सिंहकेशरी मुनिराज को केवलज्ञान हुआ है" इसलए केवली की महिमा करने हेत देवादि आये हैं / दमयंती के आनंद P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पार न रहा / शीघ्रता से पर्वत की भूमि पर आई और द्वादशावर्थ वन्दन तथा स्तवन किया और योग्य स्थान पर बैठ गई / उसी समय केवली भगवंत के दीक्षागुरु श्री यशोभद्रसूरिजी भी सिंह केशरी मुनि को केवल ज्ञान हुआ है, यह सुनकर वहाँ पधार गये और केवली को वन्दन कर यथायोग्य स्थान पर बिराजमान हुए। - करुणासागर केवली भगवंत ने हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह क्रोध, मान, माया, लोभ, परपरिवाद, राग, द्वेष, पैशून्य, अभ्याख्यान मायामृषावाद तथा मिथ्यात्व आदि अधर्म के मर्म को भेदनेवाली धम देशना देते हुए फरमाया कि, अनंतभवों में भटकते हुए जीवों को मान वता युक्त मानव अंवतार की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है / जब कि राधावेध अवसर के समान उसे प्राप्त करने का प्राप्त हुआ है / तो श्रेष्ठतम् अपना मनुष्य जीवन सफल बने वही उपाय ढूंढने चाहिए, समझने चाहिए और उसको जीवन के अणु-अणु में उतारने चाहिए / अत्यंत परिश्रम से लगाये हुए बगीचे की रक्षा जिस प्रकार विवेकी व बुद्धिशाली करता है, उसी प्रकार जब तक इंद्रिये कमजोर न पड़े, शरी शिथिल न होने पावे, तथा आयुष्यकर्म सहायक बना रहे तब तक कर्मों से, पापों से मुक्ति प्राप्त करवाने वाले दया प्रधान जैन धर्म के आराधना करना ही मनुष्य जीवन का फल है अन्यथा क्षणभंगुर भौतिक पदार्थ इन्सानियत को नाश करके मृत्यु को भी विगाड़नेवाले बनेंगे श्रोताओं के कान में अमृतसमान जैन धर्म का उपदेश देकर केवली ने तापसों के गुरु कुलपति से कहा, दमयंतीने आपको जैनधर्म की रुपरेख जो बतलाई है, वह सत्य है, क्योंकि अरिहंतों के प्ररुपित धर्म के रास्तेपन चलनेवाले व्यक्ति. मिथ्याभाषण करते नहीं हैं। दमयंती सती है जन्म से जैन धर्म की उपासिका है। जिसके जीवन का चमत्कार तुमने प्रत्यक्ष देख लिया है। इसके हुंकार में वह शक्ति है, जिससे सार्थवाह की रक्षा कर पाई है, अतः भयंकर अरण्य में रहने पर भी देव-देवं आदि उसका सान्निध्य करते हैं। P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव का आगमन उसी समय अपार पौद्गलिक सामग्री का मालिक, रुप में सूर्य * समान महद्धिक देव आकाश से नीचे उतरा और केवली परमात्मा को द्रव्य तथा भाव वन्दन करने के बाद अत्यन्त नम्र कोमल तथा श्रद्धा उत्पन्न करानेवाली भाषा से दमयंती को कहा, हे भद्रे ! इसी तपोवन में कुलपति का शिष्य में कर्पर नाम से प्रसिद्ध था / भिन्न। भिन्न प्रकार की तपश्चर्या करके तेजस्वी वना हुआ मैं गृहस्थों के लिए आदरणीय बन गया था। गृहस्थ भी मेरे साथ धर्म की चर्चा कर आनन्दित होते थे / पंचाग्नि तप पर मुझे ज्यादा श्रद्धा होने से खासकर आसो, चैत्र, वैशाख तथा जेष्ठ महिने की तेज धूप में इसकी साधना करता रहता था, तथा शीर्षासन में रहना, एक पैर पर खड़ा रहना आदि अनुष्ठानों में मुझे कुछ भी परिश्रम नहीं पड़ता था। सारांश कि, मेरा जोवन बाल्यकाल से संन्यासी बना हुआ होने से तप त्याग में मैं पूर्ण - मस्त रहता था / इतनी बात कहने पर सब तापसों के कान खड़े हो गये और आगे की बात सुनने के लिए तत्पर वने / देव ने कहा इतना, होने पर भी कुलपति के ये शिष्य मेरा अपमान करने में धुत्कारने में तथा गृहस्थों के सामने मुझे लज्जित करने में सदैव तैयार रहते थे मेरे साथ सभ्यता से बोलने से भी उनको एतराज था, इसलिए मुझे कुछ अपमान सा लगा और आश्रम को छोड़कर अन्यत्र चला गया, परंतु क्रोध नाम का राक्षस मेरे पीछे पड़ा हुआ होने से तापसों से वैर की वसुलात करने के भाव मेरे बढ़ते गये। क्रोध में अन्धा बना हुआ मैं कालीरात में भी बड़ी तेजी से जंगल का रास्ता काट रहा था, मन में क्रोध दावानल था, आंखों में वैर का बदला लेने का भाव था इसलिए हाथ पैर तथा मेरी चाल भी बेकाबू होने से उतावल से जाता हुआ मैं पर्वत की खीण में (खाई) जा पड़ा फलस्वरुप पत्थर की जोरदार रगड़ लगने से मेरे दांत सबके सब ट गये, निकल गये और मैं लहू-लुहान 57 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन गया, भयंकर पीड़ा को 6-7 दिन तक भुगतने तथा भूख और प्यास के मारे मैं अर्धमृत-सा बन गया, तथापि तापसों ने मेरी खबर नहीं ली। मेरा क्रोध भी उनपर चौगुना हो गया और क्रोध से धमधमाते हुए मेरे मन में लेश्या भी बिगड़ने लगी और मेरा चले तो मैं उनको जीवित भी नहीं रहने दूं। इस प्रकार क्रोध की माया में दुर्ध्यान करता हुआ मैं मरा और तापसों पर अत्यधिक क्रोध होने के कारण आश्रम के पास ही काले सर्प के अवतार में अवतरित हुआ। पूर्व भव की क्रोध की माया ने मुझे इस भव में भी न छोडा अतः आश्रमवासी तापसों को देख देखकर मेरा क्रोध मर्यादा से बाहर हो जाता था, तब फणा चढाकर उनको डंख देने का निर्णय मैंने किया / जिस समय मेरे अणु-अणु में क्रोध की ज्वाला भड़क रही थी, आंखों में लालास आ चुकी थी, लोही के बूंद-बूंद में अपमान का बदला लेने का भाव बन चुका था / नमस्कार महामंत्र का प्रभाव - उसी समय तापस तथा सार्थवाह के सामने आप जो नमस्कार महामंत्र का पाठ बोल रही थी, उसे सुनकर मेरी गति मंद पड़ गई। नमस्कार महामंत्र के अक्षर मेरे कान में पड़ते गये और मेरा मन मानों पवित्र बनता गया / जैसे कोई मंत्रवादी अपने मंत्रोच्चार से सर्प को बांध लेता है, उसी प्रकार मुझे भी इन मंत्राक्षरों ने मेरे लोही को ठंडा कर दिया, बदला लेने की भावना समाप्त हुई, तथा आत्मा में तूफान मच गया कि, 'वैर का बदला वैर से, क्रोध का बदला क्रोध से, तथा अपमान का बदला अपमान से लेना इस भव को तथा परभवों को भी विगाड़ने वाला होता है / " ऐसा ख्याल आते ही मैं समाधिस्थ बना और गुफा में चला गया, तथा निर्दोष वृति से जो भी मिला उससे निहि करता रहा / जिस गुफामें था उसके पास की गुफा में आप थीं। जितनी भी चर्चा चलती उसे मैं ध्यान से सुनता था। एक दिन धर्म के रहस्य को समझाते हुए आपने कहा, जीव हिंसा करना महापाप इसलिए है कि, मरन P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाला जीव मारनेवाले का शत्रु बनता है और आनेवाली भवपरंपरा म उसका बदला जरुर लेता है, अतः सव जीवों के प्रति अभयदान का भावना ही श्रेष्ठ धर्म है / शरीर की पुष्टि, जीभ की परवशता, धर्म को अनभिज्ञता तथा संप्रदाय की व्यामोहता के कारण की हुई, जीवहिसा कभी भी धर्म का स्वरुप लेती नहीं है। परंतु पापोत्पादक, पापवर्धक तथा पापपरंपरक ही वनी रहती है। मनुस्मृति में मनु महाराज ने भी कहा, 'जीव' मारनेवाला, मरानेवाला, मांस बेचनेवाला, पीरसनेवाला, पकानेवाला और खानेवाला भी जीव हत्या के पाप का भागीदार है / साफ-साफ सुनाई हुई ऊपर की बातों पर भी मैंने सोचा कि, मेरा अवतार हिंसक होने से आजपर्यंत मैंने कितने ही निर्दोष जीवों को काटा, मारा तथा खाया है, इसलिए मेरे जैसा पापी दूसरा कौन ? अव मेरी क्या गति होगी ? ऐसा विचार करते मुझे कुछ ज्ञात होने लगा कि, “इन तापसों को मैंने कहीं पर देखा जरुर है" इन विचारों - में जव मैं तन्मय बन गया तव मेरे ज्ञानावरणीय कर्मों की परंपरा कुछ टूटने लगी और जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हुआ। इस ज्ञान से मेरा पूर्वभव तथा उनकी करणी स्पष्ट रुप से दिखने लगी। अज्ञान के कारण देवदुर्लभ मनुष्यावतार, तपस्वी जीवन, पंचाग्निसेवन, रुद्राक्षमाला आदि अनुष्ठान भी मेरे क्रोध के कारण बेकार हुए, जिससे संन्यासी अवस्था से भ्रष्ट होकर निकृष्टतम हिंसक अवतार मिला / यह सब क्रोध का फल है, ऐसा निर्णय करने पर मुझे संसार की माया काली नागिन सी दिखने लगी, जीवन विजली के चमकारे जैसा, आयुष्य नदी के प्रवाह-सा लगा - और मुझे वैराग्य उत्पन्न हुआ। अब से एक भी पाप करने का अवसर - मिलने न पावे इसलिए खान-पान आदि पापजनक तथा पापजन्य माया को छोड़कर मैंने अनशन प्राप्त किया। उसी के प्रताप से मेरा हिंसक - अवतार खतम हुआ और अरिहंतों का ध्यान करते मैंने देव अवतार प्राप्त किया / इस समय मैं पहले देवलोक में देव बना हूँ / शास्त्रकारों P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने भी कहा है कि, ज्ञानपूर्वक एकासन, आयंबील, उपवास, बेला, तेला, वर्षीतप, आदि तपश्चर्याओं से मोक्ष की प्राप्ति भी सुलभ बनने पाती है तो फिर देवलोक का क्या पूछना ? अनशन के समय मैंने पूर्वकृत हिंसादि की आलोचना तथा पतिक्रमण किया, इसलिए देवयोनि प्राप्त कर सका / मातृस्वरुप दमयंतीजी, तुमने जो अरिहंतों का धर्म सुनाया, अहिंसा की सूक्ष्मता समझाई / संयम तथा तपोधर्म की महिमा बतलाई, इसी कारण मेरा अवतार देवलोक में होने पाया है, अन्यथा मेरी गति क्या होने पाती ? देवयोनि में आने के बाद मैंने अवधिज्ञान का उपयोग रखा और तुम्हारे उपकार का ऋण चुकाने के लिए मैं आया हूँ। धर्म देनेवाली तुम मेरी माता हो और मैं आपका धर्मपुत्र / इन्हीं कारणों से जन्म देनेवाली माता से धर्म देनेवाली माता का महत्व ज्यादा है / इस प्रकार दमयंती की प्रशंसा करने के बाद वह देव तापसों से बोला, 'भो तापसों ! ' मेरे से पूर्व भव में मानसिक पाप जो भी हुआ हो उसे आप क्षमा करें और बड़े पुण्योदय से मिले हुए श्रावकों के व्रतों की पालना करना, ऐसा बोलकर वह तापस गुफा में गया और अपने पूर्वभवीय सर्प के शरीर को बाहर लाकर वृक्ष की डाल पर लटकाया और बोला, 'हे भाग्यवंतों ! ' इन्सान चाहे किसी भी वेष में, धर्म में, शरीर में रहा हो यदि वह क्रोध करेगा, दूसरों का अपमान, निंदा, ईर्ष्या करेगा वह मेरी मुताबिक मरकर लाखों जीवों की हत्या करने वाला सर्प का अव. तार प्राप्त करेगा / देव की यह बात सुनकर पहिले से ही वैराग्य प्राप्त हुए कुलपति के वैराग्य में वृद्धि हुई, क्योंकि थोड़ा सा ही किया हुआ पाप जीवात्मा की दशा बिगाड़ता है। अतः वैराग्य निर्वेद, संवेग, उदासीनता तथा निष्काम जीवन ही श्रेष्ठतम धर्म है। तत्पश्चात् केवली प्रभू से कुलपति ने कहा, 'हे प्रभो !' वैराग्य रुप वृक्ष के फलस्वरुप आप मुझे सर्व विरति धर्म देने की कृपा करे, जिससे मैं जन्म, जरा शोक, संताप, आधि, व्याधि तथा मृत्यु से छुटकारा पा सकूँ / तव केवली परमात्मा ने कहा कि, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "हे कुलपति, मुझे भी संसार चक्र से बाहर निकालने वाले ये यशोभद्रसूरिजी जो मेरे दीक्षागुरु हैं, वे तुम्हें महाव्रत देंगे अतः निःशंक बनो। उपरोवत कथन पर खुश तथा विस्मित बने कुलपति ने फिर से पूछा, 'हे केवलज्ञानिन् प्रभो !' आप फरमाइए कि, राजकुटुंब में जन्मे हुए आपको वैराग्य कैसे हुआ ? दीक्षा क्यों तथा कैसी परिस्थिति में स्वीकारी ? उत्तर में केवली ने कहा, 'हे कुलपति !' चरमावर्त तथा अचरमावर्त रुप से संसारी जीव के दो भेद हैं / आज पर्यंत जो जीवात्मा चरमावर्त में प्रविष्ट नहीं हुआ है, उसको उत्तम खानदान आदि धर्मसामग्री मिलने पर भी उसे आत्मसात् करने में उन्हें थोड़ा भी रस नहीं है। जबकि अकाम तथा सकाम निर्जरा द्वारा इन्सान के बहुत कुछ पाप कर्म खतम हो जाते हैं, तब उसे चरमावर्ती कहते हैं। जिससे उन जीवों को अरिहंतों का पूजन, पाठ, सामायिक, प्रतिक्रमण, नवकारशी आदि तप की प्राप्ति होती है, उसमें से जो आसन्नभव्य होते हैं, उन्हें दीक्षा की प्राप्ति तथा उसकी आराधना सुलभ बनती है। | मैं कोशल देश के नलराजा के छोटे भाई कूबर राजा का पुत्र हूँ। जब मैं यौवन' अवस्था में आया तव संगानगरी के केशरी नाम के राजा ने बन्धुमती नाम की अपनी पुत्री का सगपण मेरे साथ किया / मैं भी मेरे पिता की आज्ञानुसार उससे हस्तमिलाप करने हेतु बड़े आडम्बर पूर्वक वहाँ गया / वर राजा बनकर तोरण पर आया, पश्चात् लग्नमंडप में आया और बड़े हर्षोल्लास पूर्वक मेरा लग्न (विवाह) हुआ। रुपवती था लज्जावती कन्या को पत्नीरुप में प्राप्त करने का मुझे बड़ा आनंद था गौरव' था। दहेज में मुझे अपस्मित धनराशी मिली फिर भी मच्छी स्त्री मेरे घर आई उसका मुझे ज्यादा आनंद था। हीरे-मोती गादि का जेवरात और वस्त्रादि तो मेरे पिता के पास भी बहुत था, पथवा मैं भी द्रव्य कमाने की दक्षता रखता था, परंतु दहेज को नजर i रखकर लग्न करना, वह लग्न की क्रूर मश्करी (मजाक) है, संसार 61 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को विगाड़ने का पाप है, नारी जात की अवहेलना है, ऐसा समझकर जब मुझे कन्या रत्न की प्राप्ति हुई है, तो दूसरे रत्नों के प्रति मैं उदासीन था / नूतन वधू को लेकर मैंने पुनः मेरी नगरी तरफ प्रस्थान किया। मार्ग में कुछ विश्राम लेने के आशय से एक वटवृक्ष के नीचे बैठे और मेरी नजर एक तरफ गई, जहाँ पर पंचमहाव्रतधारी गुरु अपने शिष्यों के साथ विराजमान थे। मुझे बड़ी खुशी हुई कि, संसार के मायाजाल में कैद होने के समय में भी उत्तमोत्तम मंगल माल देनेवाले गुरु महाराज के दर्शन हुए / इन पवित्र भाव के साथ मैंने गुरुदेव को वन्दन किया। गुरुजीने धर्मलाभ के अशोर्वादपूर्वक कहा 'हे भाग्यवंतों !' . . " मनुष्य का शरीर कांच की बँगड़ी जैसा क्षणभंगुर है". - "युवावस्था आकाश के बादल जैसी कुछसमय के लिये है।" है / " श्रीमंताई विषधर नाग के फण जैसी है।" अतः मिले हुए भाडुती पदार्थों से जीवन को रंगराग में, विषय विलास में, पापोपार्जन में तथा माया प्रपंच में आसक्त बनाने की अपेक्षा, आत्मसमाधि प्राप्त करने में लगाना श्रेयस्कर है। किराये से प्राप्त किये भौतिक पदार्थ पुण्याधीन होने से उसपर विश्वास करके जिन्दगी को बर्बाद करना बुरा है, क्योंकि पुण्य की रेखा ललाट पर कन आती है और जाती हैं, उसके उदाहरण संसार में एक नहीं परंतु अनेक है / राजा रावण, दुर्योधन, शूर्पनखा, कंस, कर्ण, द्रोणाचार्य, मम्मण और धवलसेट आदि सबके सब रोते-रोते संसार से चले गये हैं, जिनका नामोच्चारण भी प्रातःकाल में करना अहोरात्र बिगाड़ने जैसा है / इसप्रकार के देशना सुनने के बाद मैंने गुरुदेव से पूछा 'हे प्रभो ! मेरा आयुष्य कितना है ?' तब उपयोग देकर आचार्यश्री ने कहा 'वत्स तेरा आयुष्ट केवल पांच दिन का ही है / दिव्यज्ञानी, भूत, भविष्य के ज्ञाता,पंचमहा व्रतधारी का इतना स्पष्ट उत्तर सुनकर मुझे आनन्द भी हुआ और शाम 62 P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सताप भी हुआ। मन में भय हुआ और हृदय कंपायमान बना, क्योंकि ससार में जितने भी भय है उनसे इन्सान के साथ इन्सान रणमैदान खल सकता है, परंतु यमराज से नहीं। जन्मपत्रिका में भी मारकदशा जब आती है, या मृत्यु विषयक कुछ सुनने में आता है, तव इन्सानों की हड्डियों में से पसीना आ जाता है / मुझे भी मृत्यु के भय ने घेर लया। तब सूरिजीने कहा, भाग्यवान् ! मृत्यु से भय लाने पर भी वह किसी को भी छोड़ने वाला नहीं है, अतः जिन्दगी में उन कार्यों को करन चाहिए जिससे मृत्यु से छुटकारा हो सके, इसीलिए मेरा कहना है कि तुम प्रव्रज्याधर्म स्वीकार करो / विश्वस्त बना हुआ मैंने तत्काल की वैवाहित स्त्री को तथा स्वजनों को त्याग कर दीक्षा स्वीकार की तथा गुरुजी की आज्ञा से यहां पर आया। शुक्लध्यान की धारा बढ़ने लगा और घाती कर्मों का अंत करके केवलज्ञान की ज्योती प्राप्त की वही मैं सिंहकेशरी हूँ। यथासमय सब कर्मों का क्षय करके सिद्धशला में स्थान जमा लूंगा। यशोभद्रसूरि ने कुलपति को दीक्षा दी, दमयंती ने भी दीक्षा की चना की और सूरजीने कहा, अभी तुम्हारे भाग्य में भोग्य कर्म होने से तीक्षा लेना उचित नहीं है / प्रातःकाल होते ही सूरजी पर्वत से नीचे उतर गये और तापसपुर नगर में पधारकर शांतिनाथ प्रभु के चैत्यालय चैत्यवन्दन किया और कितने ही जीवों को सम्यक्त्व प्रदान किया। गर्म ध्यान करती हुई, दूसरों को धर्म समझाती हुई दमयंती के इसी पर्वत पर सात वर्ष पूर्ण हो गये। - कर्मसत्ता की बलवता अत्यधिक होने से यद्यपि दमयंती ने धर्ममय सात वर्ष पूरे किये है, तथापिं मानसिक जीवन अपने पति की संखना में लगा हुआ था, जभी तो समय-समय पर नलराजा कहां पर हाग? कैसी स्थिति में होंगे ? ये स्मृतिएँ दमयंती को सताती रहती P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी। उसकी आत्मा, पति की प्राप्ति कब होगी ? कैसे होगी? इसकी चिता में है। जिसके जीवन में ध्येय निष्ठता होती है, वह चाहे दूसरे हजारों कार्य कर ले तो भी अपने लक्ष्य को चुकते नहीं है। दमयंती के श्वासोश्वास में, ध्यान में, उपवास में, पारणे में, नलराजा की तस्वीर होने से अपने पति का याद आना स्वाभाविक है / एक दिन की बात है, एक मुसाफिर दमयंती से परोक्ष रहकर जोर जोर से . बोला, 'हे दमयंती ! मैंने मेरी आँखों से तेरे पति नल को अमुक स्थान में देखा है, "यदि तुई पति से मिलने की इच्छा हो तो शीघ्रता करो और अमुक दिशा तरप प्रयाण करो।" ये शब्द कान में पड़ते ही मानो, अमृत के भोजन से जे तृप्ति होती है, उससे भी ज्यादा दमयंती को हुई, उसके शरीर के रोमांच खड़े हुए, आँखों में चंचलता आई तथा अपने पति को देखने के तथा मिलने की उत्सुकता बढ़ी। शास्त्रकारों ने इसी को सात्विक प्रेम कहा है, जिसमें किसी भी प्रकार का छल तथा बदले की चाहना नहीं रहती है। जब आसुरी प्रेम में स्वार्थ रहता है, जभी अवसर आने पर एक इन्सान दूसरे इन्सान का शत्रु भी बन जाता है / सात्विक प्रेम में स्वार्थ नहीं लुच्चाई नहीं, धूर्तता नहीं, भाषा की सफाई नहीं केवल आत्मसमर्पण के अलावा दूसरा कुछ भी नहीं, चाहे परमात्मा हो या पति हो दोनों ही आराध्य होने से जिसके मन में सात्विक भाव होंगे उसका भवोतीर्ण दुर्लभ नहीं है / आत्मोत्थान में भी समर्पण भाव की आवश्यकता रहती है। शब्द श्रवण होते ही प्रसन्नचित्त दमयंती स्वागत बोली “आज मुझे कौन बधाई दे रहा है" फिर प्रगट बोली, भाई ! तुम मेरे सामने आओ और कहो कि, 'नलराजा कहाँ पर है ? कैसे हैं ? क्या कर रह हैं ? किस तरफ जा रहे हैं? इस प्रकार दो तीन बार बोली परत P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलनेवाला इन्सान परोक्ष ही रहा / शब्दवेधी वाण अपने लक्ष्य की दिशा में आता है, उसी प्रकार जिस दिशा से शब्द आ रहे थे, दमयंती भी उसी तरफ दौड़ी बड़ी तेजी से दौड़ी। जिस पर्वत की गुफा में अगणित उपकार पूर्वक सात वर्ष विताये थे, उसका तनिक मोह रखे विना वह पर्वत से नीचे उतर रही है और जंगल की तरफ बड़ी तेजी से जा रही है / उसके जीवन का लक्ष्य एक ही है, मेरे पति ! मेरे स्वामीनाथ ! मेरे हृदय के मालिक ! नलराजा है उसके अलावा मेरा कौन ? भयंकर जंगल में वह आ तो गई, परंतु नलराजा तो दूर रहे, शब्द बोलने वाला भी दिखलाई नहीं दिया मानो। आराम से रहती हुई दमयंती को स्थान छुड़ा देने के आशय से ही किसी दुश्मन ने अनुकूल शब्दों का प्रयोग किया है / जंगल जंगल ही होता है, जिसका प्रत्येक प्रदेश, नदी, नाला, बड़े बड़े झाड, पत्थर, बाघ, सिंह, अजगर से व्याप्त होता है / एक बार रास्ता भूल गये, फिरसे उसकी प्राप्ति दुर्लभ बन जाती है, यूथ भ्रष्ट हरिणी सी दशा दमयंती की हुई / चारों सरफ नजर लगाने पर भी अव शब्द भी सुनाई नहीं दिये / बोलनेवाला तथा नल राजा भी दिखाई नहीं दिये / उसी समय दमयंती को बड़ा भारी आघात लगा, तापसनगर भी छुटा, उनका साथ और सगे भाई जैसा वसंतसेठ का साथ भी छुट गया, अब क्या होगा? नहीं पति मिले न स्वजन मिले, अब उभय भ्रष्ट दमयंती थककर एक स्थान पर बैठ गई। दुःख के अतिरेक से जमीनपर लोटने लगी। रोने लगी और पुनः पुनः जोर जोर से रोने लगी। मानो ! क्रुध्द भाग्य भी दुर्बलों का शिकार करने का शौकिन वन गया है / अब मैं क्या करूँ ? कहां पर जाऊं ? पति के -मिलन की तरह उस गुफा का रास्ता मिलना भी असंभव था, क्योंकि जिस तेज गति से वह जंगल तरफ आई थी उसमें मार्ग का ख्याल रखना मुश्किल था, फिरभी हिम्मत रखकर तापसपुर की तरफ जाने का विचार करके उसी तरफ पुनः कदम उठाये। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयंकर राक्षसी के सामने दमयंती 2-3 कदम गई होगी और एक भयंकर राक्षसी दमयंती के सामने खड़ी हुई जिसका रुप-रंग इस प्रकार का था, शरीर श्याम था। दांत वाहर निकले हुए थे / मस्तक के बाल स्थूल, पीले और सुअर जैसे थे। नाखून सुपडे जैसे, आंखें बिल्ली जैसी, पेट वड़ा, वक्षस्थल छोटा, हाथपैर लंबे, होंठ बाहर की तरफ लटके हुए थे। उस राक्षसी ने अपने मुख को गुफा जितना लंबा चौड़ा बनाकर कहा छोकरी ! तुम बड़ी अच्छी हो, तुम्हारा मांस और हड्डी मुलायम है / मैं भी चार-पांच दिन से भूखी हूँ, तुम्हारा आना अकस्मात् हुआ और मुझे खुशी है / तो चलो तैयार हो जाओ, मैं तुझे एक ही कौर में उदरसात् कर लूंगी, जिससे तुझे कष्ट भी न होगा और मेरे जैसी भूखी को तृप्त करने का पुण्य भी प्राप्त कर लोगी। यह कहकर उसने अपना मुंह ज्यादा चौड़ा किया तथा दमयंती को पकड़ने के लिए हाथ लंबे किये / राक्षसी की बात सुनकर दमयंती को आश्चर्य इसलिए हुआ कि, मर्त्ययोनि के मानवों कि मृत्यु के समय जो अतृप्त वासना रहती है वही वासना व्यंतर की देवयोनि प्राप्त करने पर भी उसमें रह जाती है, जिससे व्यंतरयोनि के देवों का आयुष्य इसी प्रकार की गंदी चेष्टाओं में पूर्ण होता है। भ्रमज्ञान, विपरीग ज्ञान, व्यामोह ज्ञान अथवा अज्ञान के वशीभूत बने हुए मानव समाज में ऊँच-नीच तथा श्रीमंत-गरीब का वर्गीकरण अपने स्थान में जब जोरदार बनता है, तब वैषम्यवाद का राक्षस उत्पन्न होता है, बढ़ता है उसके प्रताप से दलित पतित तथा गरीब इन्सान बेमौत मरते हैं, जिसका श्राप धनिकों को लगे बिना रहता नहीं है। इसी कारण से दया के सागर, अहिंसा के पूर्णावतारी तीर्थकर परत्माओं ने संसार में मारकाट, वैर, विरोध तथा Man it's Man के 66 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापाचारण को संयमित करने हेतु तथा समाज में सुख शांति तथा समाधि की प्राप्ति हेतु ‘अतिथिसँविभाग' नाम के व्रत को उपदिष्ट किया और कहा कि, 'हे श्रीमंतों !' यदि तुम्हें सुखपूर्वक श्वास लेना हो तो गरीबों को रोटी में से रोटी दो, पानी में से पानी दो, अथवा तुम्हारे पास जो भी हो उसका विभाग करके दूसरों को देना, अन्यथा गरीब वर्ग तुम्हारा शत्रु बनेगा, मारेगा काटेगा और लुटपाट कर तुम्हें हैरान परेशान करेगा / इन्सान जब दूसरे इन्सान का अपमान, तिरस्कार करता है तब वह भी प्रकारान्तर से बदला लिए बिना छोड़ता नहीं है / इत्यादि विचारों से तीर्थकरों के धर्म के प्रति विश्वासु वनी हुई दमयंती ने खूबखूब निर्भय बनकर राक्षसी से कहा, 'हे राक्षसी !' मेरे शरीर का भक्षण करके यदि तृप्ति होती हो तो इससे बढिया दूसरा क्या हो सकता है ? तथापि जरा समझले काम, क्रोध, लोभ, वैर, विरोध आदि राजसिक भाव तथा मर्यादातीत विषय वासना, शरावपान, मांसभोजन आदि तामसिक भाव से युक्त जिनका जीवन होता है तथा मरते समय उन भावों की अतृप्त वासना रह गई हो वे जीवात्मा मरकर व्यंतर बनते हैं, जहां पर यद्यपि अच्छे से अच्छे देवलोक के योग्य भौतिक साधन विद्यमान है, तथापि पूर्वभवीय वासनाएँ उनको सताती होने से वे व्यंतर देव होने पर भी इस प्रकार गंदी चेष्टा किया करते हैं। शास्त्रवचन है, देवयोनि के देवों से भी अपेक्षा कृत सात्विक मनुष्य, अहिंसक, सत्यवादी तथा ब्रह्मप्रधान होने में उनकी मंत्र शक्ति ज्यादा बलवती होती है अथवा उनके जीवन की प्रत्येक चेष्टाएँ शक्तिमय होती है। कोई भी देव' सात्विक मनुष्य का कुछ भी नुकसान करने में समर्थ नहीं होता है / इतना होने पर भी मैं चैलेंज देती हूँ कि तुम तुम्हारी शक्ति का प्रयोग मेरे पर बेधड़क कर सकती हो तदन्तर मैं तुम्हें मेरी सात्विकता का परिचय दिखाऊँगी / दमयंती के इन शब्दों से राक्षसी हतप्रभ तो हो चुकी थी, फिर - भी दमयंती का भक्षण करने का प्रयोग उसने किया, परंतु आग को P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखकर वाघ, बिल्ली को देखकर चूहा, मयूर को देखकर सर्प जैसे शक्ति हीन बन जाते हैं, वही दशा राक्षसी की हुई, उसके सब प्रयत्न वेकार गये तव दमयंती ध्यानस्थ हुई, आंखे बंद की और मन में अरिहंत परत्मात्मा, मुनिराज तथा जैन धर्म का ध्यान कर स्वस्थ हुई वह वोली। (1) यदि मेरा आन्तरिक मन भी मेरे पति नलराजा को छोड़कर दूनरे पुरुष मैं न लगा हो तो मेरे सतीत्व के प्रभाव से हे राक्षसी तुम हतप्रभ बन जाओ। (2) जिसके नामस्मरण मात्र से रोग, शोक, आधि, व्याधि दूर हो जाति है, वे 18 दोषरहित केवलज्ञान के मालिक अरिहंत परमात्मा यदि मेरे मन में वसे हुए हो तो राक्षसी तुम्हारी आशा निराशा में वदल जाओ। (3) मन-वचन काया से कृत कारित तथा अनुमोदित, देवयोनि, तिर्यचयोनि और मनुष्ययोनि के जीवों के साथ मैथुनभाव' का त्याग कर जो ब्रह्मनिष्ठ है, वे दयापूर्ण पंचमहाव्रतधारी यदि मेरे गुरुदेव हो तो हे राक्षसी ! तुम्हारे जीवन में से हिंसक भाव समाप्त हो जाय / / (4) जन्म से ही मेरे हृदय में, मन में, तथा बुद्धि में भी अरिहंत पर मात्माओं की अहिंसा-संयम तथा तपोमयी आज्ञा वज्रलेपसी रही हो तो हे राक्षसो ! तुम्हारी दृष्ट बुद्धि का विलय हो जाओ, मानो / गरुडी मंत्र से जैसे सर्प कंप जाता है उसी प्रकार वह राक्षसी भी कंपायमान हो गई और दमयंती को खाने की इच्छा से मुक्त बनी, क्योंकि शियल संपन्न पतिव्रता स्त्री के वचन ही अमोघ शक्ति के धारक होते हैं / राक्षसी ने सोचा यह स्त्री सामान्य नहीं है, अपितु अन्यून प्रभाववती है अतः दमयंती को नमस्कार करके अन्तर्धान हो गई / उपद्रव मुक्त बनी हुई दमयंती ने अपना प्रयाण पुनः चालू किया और आगे बढ़ी। 68 P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यपि आत्मा में शक्तियों का अखूट खजाना था, फिर भी शरीर जव निमित्त कारण बनता है, तब भख, तरस, थकान आदि व्याधि भी सताये विना रहती नहीं है / इस समय उन्हें जोरदार तरस सता रही थी, अतः व्याकुलता से परेशान बनी हुई दमयंती कुछ दूरी पर एक नदी देखती है, परंतु चारों तरफ नजर लगाने पर पानी की एक बूंद भी दिखाई न देने पाई, इससे जरा हताश होना स्वाभाविक था। मानवीय जीवन के संस्कार दो प्रकार के होते हैं : (1) आत्मसंयमी इन्सान (Him Self) के मन बुद्धि, इन्द्रिये तथा कार्य भी आत्मा के अधीन होनेसे उसका जीवन ही पवित्र बन जाता है, जिससे उनका शब्दोच्चारण भी मंत्र बनता है तथा विचारने पर भी देवों का सान्निध्य प्राप्त होता है / / (2) दूसरे प्रकार के आदमी आत्म के असंयमी होने से उनकी इन्द्रियें, मन, बुद्धि तथा कार्यपद्धति परघातक बनने पाती है / ऐसी स्थति में उनके मंत्र, तंत्र, जंत्र भी निष्फल बनने में देर नहीं करते। - दमयंती की आत्मा संयमी होने से तथा शारीरिक पीड़ा भी जीरसर होने से उसने इस प्रकार का संकल्प किया / "अपनी आत्मा के दर्शन, र शरीरों में पृथक-पृथक् आत्माओं के दर्शन तथा जितनी भी आत्माएँ 2 वे सब एक सी हैं, ऐसा निर्णय करवाने वाला सम्यक् दर्शन / संसार की यथार्थता को बतलाने वाला सम्यक् ज्ञान तथा जाने हुए तत्वों को जीवन में उतरवाने में पूर्ण शक्त सम्यक् चरित्र, यदि मेरे जीवन के नणु-अणु में विद्यमान हो तो यह नदी जल से परिपूर्ण वने ऐसा कहकर दमयंती ने अपनी पग की एड़ी को जमीन पर तीन बार पकारी और उसी समय स्वच्छ, शीतल तथा स्वादु जल बहने लगा व किनारे पर रहनेवाले सैकड़ों गांव के हजारों आदमी प्रत्यक्ष चमकार देखकर खुश हुए / दमयंती ने यथारुचि पानी पीया तो भी थकी हुई होने से एक वटवृक्ष के नीचे विश्रान्ति हेतु बैठ गई। 69 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थवाह से मिलन उस समय एक सार्थवाह इसी जंगल में पड़ाव डाले था, उसके आदमी लकड़ी, छाने तथा पानी लेने के लिए जंगल में घूम रहे थे, उनकी दृष्टि में दमयंती आई और वे बोले, भद्रे ! इस भयंकर जंगल में देवी के रुप रंग को धारण किये तुम कौन हो ? तब सती ने कहा, मै मनुष्यस्त्री हूँ, सार्थ से भ्रष्ट होने के बाद मैं एकाकिनी इधर-उधर रखड रही हूँ। मेरी इच्छा तापसपुर नगर में जाने की है, अतः आप मुझे वहां पर पहुँचा देने का कष्ट करें। नौकरों ने कहा, जिस दिशा में सूर्य अस्त होता है उसी को लक्ष्य में रखकर चली जाओगी तो तुम्हारे इष्ट स्थान पर पहुँच जाओगी / हम रास्ता बतलाने में समर्थ नहीं है। यहां से काम पूर्ण होने पर हमारा प्रस्थान होगा, तुम यदि हमारे साथ चलती हो तो कोई शहर में छोड़ देंगे / दमयंती उनके साथ चली / सार्थवाह का नाम धनदेव था, परोपकारी व हितबुद्धि क होने से सस्वागत दमयंती से पूछा, तुम कौन हो ? कहां से आई हो ? और कहां पर जाना है ? भीमराजा की पुत्री दमयंती ने कहा, " मैं बनियं की पुत्री हूँ, मेरे पति के साथ यहां आई थी, परंतु मेरे कर्मों की वक्रत के कारण निद्रावस्था में मुझे छोड़कर मेरे पति अन्यत्र चले गये हैं तुम्हारे सेवकों ने मुझे कहा और मैं आई हूँ / अतः हे महाभाग। मुझ किसी नगर में पहुँचा दो / सार्थवाह ने कहा हम अचलपुर नगर तर जायेंगे। हे धर्मपुत्री ! तुम भी मेरे साथ चलो हम तुम्हे पुष्प की तरः ले चलेंगे, इसप्रकार स्नेहपूर्ण सार्थवाह ने दमयंती को अच्छे वाहन में बैठ दिया और आगे चलने के लिये प्रस्थान किया। चलते-चलते पर्वत के पान की एक नदी के किनारे पुनः पड़ाव डाला भोजन पान का कार्यक्रम समा होने के बाद जब सांयकाल हुआ, तब धर्मगोष्ठी करने हेतु सब एक हुए भांति-भांति की चर्चा होने के पश्चात दमयंती बोली ,वन में, रणशत्रु के बीच में, समुद्र में, अग्नि के मध्य में, पर्वत पर, या और किस 70 P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयकर स्थान में फंसे हुए इन्सान को पूर्वभवीय पुण्य ही साथीदार वनता है, अन्यथा उसकी पढ़ाई, चालाकी, सफाई आदि उससे विश्वासघात करने में देर नहीं करते / पुण्य भी विशेष तथा सामान्य रुप से दो प्रकार का है. जिसमें प्राणातिपात, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह का त्याग हो अथवा उसके त्यागी की सेवा हो वह विशेष पुण्य कहलाता है, फलस्वरुप आनेवाले भवों में उसे अच्छा खानदान, रुपसंपत्ति, तथा भौतिक साधन प्रचुर मात्रा में मिलने से आर्तध्यान रहित वह पुनः जैनधर्म की आराधना करके उत्तरोत्तर कल्याण परम्परा प्राप्त करेगा। सामान्य पुण्य से भी मनुष्यावतार मिलेगा परंतु हिंसक और निंदतीय खानदान, कद्रुप शरीर, गंदे स्थानों में मकान तथा खानपान की असहय तंगी आदि से उसका जीवन उन-उन पदार्थों को प्राप्त करने की लालसा में आर्तध्यानी और रौद्रध्यानी बनकर रोते-रोते जीवन को समाप्त करेगा। अतः संसार की माया को बिजली के चमकारे जैसी समझकर धर्मध्यान की भावना में जीवनयापन करना ही मनुष्य जीवन का, बुद्धि का, ज्ञान-विज्ञान का फल है / छोटा बच्चा भी समझ सके ऐसी दमयंती की बातें सुनकर सब के सब अत्यधिक प्रसन्न हुए / सेठ को बडा भारी आनन्द इसलिए हआ कि, वनवास के समय में भी ऐसा सुपात्र जीव अपने बीच में अतिथि रुप में आया है। दमयंती के प्रति सबों का सदभाव बढ़ने पाया। इस प्रकार धर्मगोप्ठी समाप्त हात ही सब अपने-अपने स्थान पर गये और परमात्मा का ध्यान करते हो निद्राधीन हुए। अहोरात्र में दिन तथा रात्रि के कार्यक्रम योगी और भागो के पृथक् होते हैं / भोगी दिन के समय कार्यरत होता है, और रात में निद्राधीन बनता है. जब योगी दिन में कुछ निद्रा करता है और रात में परमात्मा का ध्यान, आत्मा के चितवन तथा संसार के स्वरुप का मनन करता हुआ रात्रि पूर्ण करता है। इस सार्थ में भी एक भाग्यशाला गृहस्थ बड़े मधुर स्वर से नमस्कार महामंत्र का उच्चारण कर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहा था / सुखपूर्वक सोई हुई दमयंती भी उस मंत्रोच्चार को बड़ी सावधानी से सुन रही थी, उसे आनंद का पार न रहा / प्रातः समय में दमयंती को जयजिनेन्द्र करने हेतु सार्थवाह जब आया तब दमयंती ने कहा, रात के समय जो भाग्यशाली इतने मधुस्वरों में नमस्कार महामंत्र पढ़ रहा था, उसके दर्शन करने की अभिलाषा है, आप मुझे उस स्वामी बंधु के पास ले जाने का कष्ट करे, उसकी इच्छा को पूर्ण करने के इरादे से सेठजी ने उसी समय स्वामी बंधु जिस तंबु में था वहां पर दमयंती को लेकर आया जहां पर अपने सामने वस्त्र का एक पट्ट रखकर वह भाई चैत्य वन्दन कर रहा था, भाववाही चैत्यवन्दन, स्तवन और मधुर कंठ उच्चारित नमुत्थुणं आदि के पाठ को सुनने में उसको वड़ा भारी आनन्द आया / जब भगवान की भक्ति इतनी सुन्दर हो रही हो तव बीच में एक भी अक्षर बोलना या बातें करना परमात्मा की मश्करी करने जैसा है / दमयंती सर्वथा मौन लेकर बैठ गई / क्योंकि सूत्रोच्चार तथा स्तवनादि संगीत है उससे बोलनेवाले को जो आनंद आता है, सुननेवाले को उससे ज्यादा आनंद आता है संगीत उच्च प्रकार की एक विशिष्ट कला है जो मोक्ष दिलवाने में समर्थ है / उसे चाहे कोई भी करे या बोले उसकी अपेक्षा एकरस होकर तन्मय बनना ज्यादा महत्व रखता है वन्दनादि क्रिया पूर्ण होने के बाद जयजिनेन्द्र पूर्वक दमयंती बोली, आप बतलाईए कि, इस पट्ट के बीच जो बिंव है, वह कौन से तीर्थकर परमात्मा का है ? उत्तर में उसने कहा, 'हे धर्मशील वहन ! भविष्य में होनेवाले 19 वें मल्लिनाथ परमात्मा का यह विंव है,आगामी प्रभु का बिंब आपने क्यों रखा ? जवाब में श्रावक ने कहा, मैं समुद्र के किनारे कांचीपुर नगर का वणिक् हूँ, एकबार धर्मगुप्त नाम के मुनिराज हमारे गांव पधारे, वन्दन व्यवहार करने के पश्चात् मैंने पूछा, 'हे गुरुदेव ! मेरा निस्तार किन परमात्मा के शासन में होगा ? उत्तर में गुरुजी ने कहा, मिथिला नगरी में तू प्रसन्नचन्द्र राजा जब 72 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनेगा, इस तव चौवीसी में ओगणीसवें मल्लिनाथ प्रभु के दर्शन करने के बाद प्रव्रज्या, केवल ज्ञान और मोक्ष को तुम प्राप्त करोगे। तव से मैंने मल्लिनाथ प्रभु का विंब वनवाया, तथा बड़ी श्रद्धा से उनकी पूजा, पाठ करता हूँ। तत्पश्चात् श्रावकजी ने पूछा, 'हे भगिनी !' आप कौन है ? कैसे पधारी ? तत्र दमयंती ने पति के वियोग आदि का सव वृतांत कह दिया। श्रावक भी करुणाजनक वृत्तांत सुनकर अश्रुपूर्ण नयनों को साफकर मेरे दःख में समवेदना प्रगट कर बोला कि, 'हे वहन !' शोक संताप मत करो, कर्मों का फल भुगतना अनिवार्य है। धनदेव सेठ पिता के तुल्य है तथा मुझे भाई समझना, यहीं पर रहो और धर्म की आराधना सुखपूर्वक करो, दुःखों का अन्त करने में धर्य के अतिरिक्त दूसरा कोई समर्थ नहीं है। - क्रमशः चलते हुए अचलपुर नगर भी आ गया दमयंती को वहीं पर जोड़कर सार्थवाह आगे बढ गया। - सतीत्व का अचिन्त्य प्रभाव पुनः एकाकिनी बनी हुई दमयंती भी दिशाशून्य हरिणी की तरह कुछ आगे बड़ी और एक वाव को देखकर तृषा की शांति करने इतु वाव में उतरी और अन्तिम पगथिये पर पानी पीने को बैठ गई, रधोने के इरादे से दमयंती ने अपना पैर पानी में रखा / उसी समय एक मगर आया और उस पैर को मुंह में रखकर दमयंती को खिंचने लगा / दमयंती को ख्याल आया कि मेरा पैर किसी जलजन्तु ने पकड़ रखा है। कुदरत का भी न्याय है कि, दुःखियों के ऊपर ही एक दुःख पूरा होने भी नहीं पाता तब तक दूसरा दुःख टूट पड़ता है। इन्सान मात्र के लिए संकट के समय में नमस्कार महामंत्र ही चमत्कारी बनता है / जैसे ही दमयंती ने नमस्कार मंत्र का प्रारंभ किया, उसी समय परमात्मा की मेहरबानी समझो कि मगर को बगासा आया और उसने अपने पैर को खिचकर उपर लिया। मृत्यु के मुख से बची हुई उसने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाथ मुंह धीकर स्वच्छ जलपान किया और बावडी के ऊपर के पगथियें पर आसीन हुई। शास्त्रवचन है कि, संसार भर में जितने भी मंत्र हैं उनका मूल नमस्कार महामंत्र है / जीवन के अणु-अणु में यदि श्रद्धा, सात्विक भाव तथा विवेक की प्राप्ति हो गई है तो इन्सान अजब-गजब की शक्ति प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति विशेष के नाम के मंत्रों में किसी को श्रद्धा होती है तथा किसी को नहीं। जब नमस्कार महामंत्र में गुणों को नमस्कार किया गया है और गुण-गुणी भिन्न नहीं होने से गुणों का नमस्कार गुणी को पहुँच / जाता है बाह्य तथा आन्तर दो प्रकार के शत्रु होते हैं, उसमें से बाह्य शत्रुओं का हनन संभव हो सकता है, जब आन्तर शत्रुओं को मारना, दबाना, हरहालत में भी सरल नहीं है अव: जिन भाग्यशालिओं ने क्रोध, काम, मद, माया, लोभ आदि को ज्ञानपूर्वक की सात्विक तपश्चर्या रुपी आग में समूल जलाकर खाक कर दिया हो उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है, वे अरिहंत, सर्वज्ञ, देवाधिदेव, परमात्मा परमेश्वर आदि के नाम से व्यवह त होने पाते है / जो साकार सयोगी परमात्मा कहलाते हैं, जब वे सिद्धशिला (मोक्ष) प्राप्त कर लेते हैं तब निराकार, अयोगी परमात्मा बनने है। किसी भी जात-पात के भाग्यशाली व्यक्ति परमात्मापद प्राप्त कर सकते हैं। अरिहंत तथा सिद्ध देवतत्व है। __ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा दोइन्द्रिय, त्रीरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीवों की हत्या का सम्पूर्ण त्याग किया हो, तथा मन, वचन काया के असंयम को रोक लिया हो तथा पांचों इन्द्रियों का स्थूल और सूक्ष्म वेग को सर्वथा विरोध किया हो वे मुनि कहलाते हैं, उनमें से विशिष्ट योग क्रिया सम्पन्न उपाध्याय बनते हैं तथा उनमें से भी साम्यभाव, सौम्यभाव तथा संप्रदाय रहित बने हुए आचार्य कहलाते है / ये तीनों गुरुपद के धारक है, तथापि सम्यक् दर्शन, ज्ञान चरित्र तथा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपोधर्म की सम्यक् आराधना के बिना कोई भी जीव आत्मोत्थान करने में समर्थ बनता नहीं है अतः ये चार धर्म है उपरोक्त देव गुरु और धर्म जिन भाग्यशाली की आत्मा में स्थित है उनका जीवन ही मंत्रमय होने से स्वपर कल्याण उनके लिए सुलभ बनता है / दमयंती का जीवन ही संयमित तथा मर्यादित था, अतः उसके सामने देव, देवी राक्षस आदि का भी चलने नहीं पाया तो विचारे मगर की कितनी शक्ति ? ऋतुपणे राजा की दासीएँ जिस बावडी के ऊपरितन पगथिएँ पर दमयंती बैठी थी, वह अचलपुर नगर की सीमा में थी, जहां पर ऋतुपर्ण नाम का राजा राज्य करता था / चन्द्रसमान उज्जवल यशवाली चन्द्रयशा नाम की रानी तथा चन्द्रवती कन्या थो। राजघराना बड़ा होने से जल का वपरास ज्यादा रहता होने से रानीजी की दासीएँ पानी भरने को बावडी पर आती है और पानी भरकर पुन: जाती है। आज के दिन जब वे पानी भरने आई, तब दमयंती को देखकर आश्चर्यचकित बनकर विचारने लगी, क्या यह देवी है ? नागकन्या है? यक्ष कन्या है? इन्द्र महाराज की अप्सरा या किलोत्तमा है ? इन विचारों में भटकती हुई वे दासीएँ विचारने लगी, यह स्त्री, देवी आदि तो नहीं है क्योंकि देव-देवी की आंखें पलक मारती नहीं है, जमीन पर पैर उनके पड़ते नहीं है तथा पसीना भी उन्हें आता नहीं है / जब इसकी आंखे भय की व्यथा के मारे चारों तरफ पलक मार रही है, पसीना भी भयजन्य सा लग रहा है, तथा जमीन पर आसीन ही है, अतः यह मनुष्यस्त्री होनी चाहिए तो क्या राजकन्या होगी? कुमारी होगी ? किसी की धर्मपत्नी होगी ? तो पतिने ऐसी सुलक्षणी नारी को घर से क्यों निकाल दिया होगा ? दासीओं की बुद्धि इसप्रकार के तर्क वितर्कों में कुछ भी निर्णय कर न सकी तब उसमें से एक दासी बोली, देखोजी ! अपन सब रानीजी की चरण सेविकाएँ है। माना कि अच्छे खानदान की लड़कियें होने पर भी 75 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने सत्कर्मों की अस्पता के कारण दूसरों की दासीएं वनने पाई है / अपने समान यह स्त्री भी अपने कर्मों के कारण कुछ न कुछ विपत्तिा से ग्रस्त होनी चाहिए क्योंकि इसका चेहरा और आंखे ही मेरी बात का समर्थन कर रही है। इसलिए विपत्ति समापन्न व्यक्ति को देखकर निरर्थक तर्क वितर्क करने की अपेक्षा इसका कुछ भला हो वही सोचना अपनी खानदानी के उपयुक्त है, तो चलो अपने राजमहल में जाकर रानीजी से बातें कर ले, जिससे दयालु रानी इस लड़की पर भी दया करेगी। सबों को यह वात पसंद पड़ी और शीघ्र गति से राजमहल में पहुंचकर रानीजी के पास हाथ जोड़कर खड़ी हुई / रानीजी ने कारण पूछा तव वे कहने लगी। महारानीजी ! आप दयालु हैं, परोपकारी हैं, अच्छे बुरे का विचार भी कर सकती हैं, इसलिए हमारा निवेदन है कि वावडी के एक पत्थर पर देवकन्यासी सुन्दर तथापि यूथ भ्रष्ट हिरणी सी भयभीत एक लड़की बैठी हुई है। बाईजी ! यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति अपने किये कर्मों का भुगतान कर रही है तो भी दयालु आत्मा उन पर दया करता ही है, इस समय उस कन्या पर दया करना ही उत्तमोत्तम धर्म है अन्यथा जंगल के चोर डाकू न मालूम उसका कुछ भी विगाड़ देंगे ? वाघ, सिंह, सर्प आदि बढ़े खतरनाक जन्तु भी कदाच उसको परेशान करें या मार डाले / अतः हमारी प्रार्थना है कि, आप उस लड़की को अपनी पुत्री समझकर उसे अभयदान दें। महारानीजी ! आपके घर पर हम नौकरी करने के कारण आपका अनाज हमारे पेट में पड़ा है, अतः हम भी इस राजघराने के सदस्य हैं, 'छोटे मुंह बड़ी बात' कही भी जाय तो आप नाराज न होने पावे, यही हमारी विनंती है / नीतिवचन भी है “सः किंप्रभुः यः हितं न श्रृणुते / ' अपने नौकरों का हित वचन जो मालिक नहीं सुनता है वह | निंदनीय है। 14. अनंत संसार में परिभ्रमण करते हए जीव अपने ही कर्मो का। भुगतते हैं तथा भुगतने के अतिरिक्त किसी के पास भी दूसरा माग 76 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है / ऐसी परिस्थिति में कर्मों के चक्र में पड़ी हुई व्यक्ति यद्यपि अपने पाप कर्मों को किसी भी प्रकार भुगत लेगी, परंतु साधन संपन्न इन्सान का भी कुछ न कुछ धर्म तो होना चाहिए ? और वह है कर्मो के कारण दुःखी तथा अनाथ बने हुए को शरण देना, रक्षण देना / .), वाईजी ! जिस लड़की को हमने देखा है, उसमें एक भी कुलक्षण नहीं है, तो भी केवल अदृष्ट कर्मों के कारण वह वनवासिनी बनने पाई है, आज चारो दिशाएँ उसके लिए शून्यावकाश जैसी है। आप आप दयालु हैं, इस वास्ते उस लड़की पर दया करें, और शरण दें। दासीओं की बात पर रानीजी को विश्वास आया और बोली, तुम शीघ्रता से जाओ और उस लड़की को अपने यहां सादर ले आना अच्छा है / मेरी चन्द्रवती पुत्री के साथ वह रहेगी, खायेगी, पीयेगी और आनन्दपूर्वक अपना समय बीतायेगी। यह सुनकर दासीएँ प्रसन्न होकर अपने-अपने घड़े मस्तक पर रख लिए और वावडी तरफ चलने लगी / हमेशा की अपेक्षा आज की गति में तेजी है, उत्साह है और दूसरे जीवों की रक्षा करने का आनन्द है / धर्म शास्त्रकारों ने भी कहा है, "परोपकार जैसा धर्म दूसरा एक भी नहीं हैं" मनुष्य जन्म पाकर केवल उदरभरी वनना यह तो पशु से भी खराब जीवन है और मरने के बाद काला मुंह लेकर परमात्मा के घर जाने का लक्षण है, जब कि भूखे को रोटी देना, तरसे को पानी देना, ठंडी में कंपते को वस्त्र देना, रोगी को औषध देना और जीव मात्र को अपने समान समझ सभी के हित में द्रव्यव्यय, बुद्धिव्यय और समय व्यय करना यही जैन धर्म है, मोक्ष मार्ग है तथा अरिहंत परमात्माओं की प्रसन्नता प्राप्त करने का मार्ग है अथवा भविष्य में स्वयं को अरिहंतपद प्राप्त करने का चिन्ह है। दासीएँ वावडी पर पहुँच भी गई और नगर तरफ स्वयं पधारने की इच्छा रखनेवाली लक्ष्मी देवी के सदृश दमयंती को उसी अवस्था में 77 Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैठी हुई देखकर बोली, इस नगर में ऋतुपूर्ण राजा की चन्द्रयशा नाम की पट्टरानी तुम्हें बहुमान पूर्वक आमंत्रण दे रही है, अतः शून्यचित्त बनकर इस भयंकर जंगल में रहना छोड़ दो और मानसिक, वाचिक तथा कायिक सब प्रकार के गुप्त तथा अगुप्त दुःखों को तिलांजली दो, क्योंकि कदाच दुराचारी, दुष्टभाषी, बदमाश इन्सान लुच्चाई पूर्वक तुम्हें परेशान करे अथवा व्यंतरादि दुष्टयोनि के देव अनर्थ करे इससे नगर में पधारने का रखें, जिससे तुम सब संकटों से बच जाओगी। बहन ! तुम्हारा यह मुलायम शरीर, सूर्य के समान चमकता ललाट, (कपाल) लंबे हाथ, पोपट सी नाक, लंबे कान, पूर्ण चन्द्रमा तुल्य मुख, दाडिम के दाने से दांत, परिपक्व टमाटर से होंठ, काली नागन जैसी यह वेणी तथा हथिणी-सी चाल देखकर अनुमान करना सरल है कि तुम बड़े ऊंचे खानदान की पुत्री हो या कुलवधु हो, परंतु कर्मों के बड़े भारी विषचक्र में फंस गई होने से आज तुम्हें वनवास मिला है। बहन संकट तो इन्सान पर ही आते हैं और जाते हैं। पत्थर को कौन सा संकट आनेवाला है ? अग्नि में खूब-खूब तप जाने के बाद सुवर्ण किमती बनता है / अपनी छाती पर अग्नि का भार सहन करने के बाद ही दीपक प्रकाशमान होने पाता है। सुई से अपने हृदय को विधान वाला पुष्प ही माला के आकार में परिवर्तित होकर अरिहंत परमात्मा ओं के, दीक्षार्थीओं के तथा दूसरे पुण्यशालीओं के गले को सुशोभित करता है, अतः दुखों का आना और भुगतना किसी को भी पसंद न पड़े तो भी संकटग्रस्त इन्सान जब भी उनसे छुटकारा पाकर मुक्त बनेगा तब वह अत्यंत गौरव को प्राप्त होकर लाखों करोड़ों जीवों को अभयदान देकर उपकार करनेवाला बनने पायगा, तो अब कुछ भी आगे पीछे का सोचे बिना हमारे साथ चलने की तैयारी करो और चलो। महारानीजी तुम्हें पुत्री की तरह सत्कारेगी राजाजी खुश होंगे और चन्द्रयती तो तुम्हें देखकर खुशी के मारे नाचने लगेगी। यह देखकर 78 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दमयंती दासियों के साथ नगर तरफ चलने लगी / वे पुनः बोली, तुम हमारी महारानीजी की पुत्री हो, अतः हमारे लिए भी पूज्या बनने पाई हो अतः तुम्हारा गौरव रखना हमारा आद्य कर्तव्य रहेगा / विनय पूर्ण भाषा सम्पन्न दासीयों की तरफ दमयंती प्रेमल बनी। व्यक्ति का दिमाग प्रतिक्षण नये-नये संकल्पों को करता रहता है, दमयंती की जनेता पुष्पदंती की सगी भगिनी यह चन्द्रयशा रानीजी थी इसीलिए उसके हृदय में आनन्द और संकोच का प्रादुर्भाव एक ही साथ इआ। आनन्द इसलिए कि, मौसी का घर मेरा ही घर है, आज इधर पा रही हूँ तो कलह तेरी माता तथा पिता का भी मिलना सुलभ बनेगा कोच इसलिए की मस्तकपर विपत्तियों के मेघ पूर्ण ताकत से तोफान कर रहे हो तो सगे स्नेहियों के घर पर जाना भी जोखम है। इतना ग्याल रखकर दमयंती ने निर्णय किया कि, मुझे खूब संभलकर अप्रकाशित ही रहना है / इसप्रकार के संकल्प आये गये और राजमहल भी आ या, रानीजी स्वयं महल के मुख्य द्वार तक आ गई थी, दमयंती ने भी रानी को जयजिनेन्द्र पूर्वक नमन किया, और महल में प्रवेश किया। जसे देखकर उसे आनंद का पार न रहा। पूछताछ करने पर दमयंती ने कहा मैं वणिक्पुत्री हूँ पति के साथ ग्रामान्तर कर रही थी, तब थकी हुई मैं जब एक वृक्ष के नीचे निद्राधीन थी, तब मेरा पति मुझे छोड़कर अन्यत्र चला गया है / बात सुनकर रानीजी गद्गद् हो गई। दमयंती को छाती से लगाई और बोली, बेटी ! किये कर्मों की जाल अवश्य भोक्तव्य होने से उसके उदयकाल में धीरज रखना ही उत्तम उपाय है / क्योंकि "बिपत्ति बडन को होत है छोटे से अति दूर" तुम्हारा ललाट ही जाहिर करता है कि, तुम सामान्य स्त्री नहीं हो क्योंकि विनयविवेक की प्रादुर्भुति विशेष में ही होती है, सामान्य में नहीं / अब तुम इस बात का ख्याल रखना यह मकान तुम्हारा ही है। धर्म, देवदर्शन, मुनि तथा साध्वी समागम, सामयिक, ध्यान, जाप, दानपुण्य आदि सब P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्य करने की तुम्हें सुविधा दी जाती है। मेरी पुत्री चन्द्रवती और तुम्हारे में मुझे कुछ भी फर्क महसूस नहीं होता है, अतः दोनों साथ में खेलो-कूदो साथ-साथ धर्म तथा पुण्य करो और दूसरों को भी करने का अवसर दो।. . . भीमराजा की पुत्री दमयंती जो दक्षिणार्थ भरत के राजाधिराज नलराजा से विवाहित है, मेरी भाणेज होती है जब वह छोटी थी तव मैंने देखी थी आज तो वह भी तुम्हारे जितनी बड़ी हो गई होगी ? तुम्हें देखती हुँ और मेरी भाणेज दमयंती की याद सताने लगती है, परंतु मन में समाधान कर लेती हूँ कि, उसका अकेली का आवागमन मेरे यहां सर्वथा असंभावित है, ऐसा कहकर रानीजी ने पुनः उस लड़की को अपने गले लगा ली / सामनेवाला व्यक्ति मेरे से संबंधित है या नहीं ? इस विषय में अपना अंतःकरण ही प्रमाण बनता है, केवल दुविधा इसलिए कि, यह लड़की बनिये की है और पुत्र-वधु भी बनिये की है अतः सबकुछ एक समान होने पर इस लड़की को वह अपनी भाणेज मानने की उतावल न कर सकी / फिर भी रानीजी ने उससे कहा, इसमें क्या तथ्य है वह परमात्मा जाने तो भी मेरा अदृष्ट मन साक्षी देता है कि, मैं तुम्हें मेरी भाणेज ही मानकर तुम्हें प्यार करूँ / दानशाला में दमयंती का आगमन मा चन्द्रयशा रानीजी बड़ी दयालु होने से गांव के बाहर एक दानशाला का संचालन करती थी, जिसमें अपने गांव का तथा दूसरे गांव का कोई भी मुसाफिर पेट भरकर भोजन करता था, रानीजी भी वहां पर प्रतिदिन जाती थी और गरीबों को कुछ न कुछ देकर ही बिदा करती थी। इस प्रकार दीन, दुःखी, अनाथ तथा ब्राह्मण अतिथि साधु संत भी उस दानशाला मे भोजन पाकर संतुष्ट होते थे / एक दिन दमयंती ने रानीजी से कहा, बाईजी यदि आप कबूल करें त 80 P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके बदले में दानशाला में ध्यान रखं / जिससे किसी भी वेष में यदि मेरा पति आया तो उसको पहचान सकूँगी। रानीजी ने बात मान ली और दमयंती ने दानशाला संभाल ली / रसोई के कार्य में भी वह सहकार देती थी जिससे किसी भी पदार्थ में जीव जन्तु की हत्या होने न पावे / पानी स्वच्छ तथा कपड़े से छानकर रखवाती थी। कहीं पर गंदापन' न हो एतदर्थ वह जागृत थी / क्योंकि ऐंठवाड में प्रति अन्तमुहुर्त संमूच्छिम जीवों का उत्पादन और हनन होना जैनशासन मानता है, अतः कोई भी नौकर यदि प्रमाद करे तो दमयंती स्वयं अनाज, शाक वगैरह को साफसूफ कर लेती थी। इसप्रकार दानशाला में हजारों आगन्तुकों का मिलन स्वाभाविक बन जाता था, वह सबसे पूछती थी कि, ऐसे रुपवाले इन्सान को तुमने कहीं पर देखा है ? जब सुननेवाले इस बात को इन्कार करते थे तब दमयंती के दुःख को परमात्मा ही जान सकता था। फिर भी दुःखपूर्ण उसने अपनी ड्यूटी को ही धर्म समझकर दिन प्रतिदिन के कार्यों में कभी भी प्रमाद नहीं किया, तथा गरीबों की सेवा में हतोत्साह भी बनने न पाई। - इन्सान के चार प्रकार है / इन्सान जब परमार्थ के प्रति आंखे बंद कर अपने ही स्वार्थों का लक्ष्य रखता है तो उसकी इन्सानियत का विकास कभी भी नहीं हो सकता है, और उसके विना वह चाहे करोड़ाधिपति, लक्षाधिपति, किसी भी प्रांत का या देश का प्रधान मंत्री, सरसेनापति अथवा चाहे कितना ही रुपवान हो या डिग्रीधर हो तो भी हर हालत में इतिहास के पृष्ठों पर अमर नहीं बनता है / संसार में इन्सान मात्र के साथ समाज जुड़ी हुई होने से उसका धर्म एक ही है, और वह इसप्रकार -- को (1) अपने स्वार्थों का बलिदान देकर भी परमार्थ करे। (2) अपने स्वार्थों का नुकसान न होने दें और परमार्थ करे / 81 Jun Gun Aaradhak Trust P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) अपने स्वार्थों को साधे परंतु परमार्थ को रत्तिमात्र भी हानि न पहुंचावे / (4) दूसरों को भूखे मारकर भी स्वार्थ में ही दत्तचित रहे / समाज तथा देश के बच्चों को दुध नहीं और अपने कुत्ते को बिस्कुट और दूध देश के बच्चे नंगे फिरे और अपने बच्चों के लिए परदेशी मुलायम वस्त्र व मोटर इत्यादी। इसी से समझना सरल होगा कि ऊपर के चारों प्रकार के इन्सान में से प्रथम और दूसरा इन्सान उत्तमोत्तम है। तीसरा कमीन है और चौथा राक्षस से भी भयंकर है। बेशक ! दमयंती को अपने पति की तपास करने का लक्ष्य था, परंतु जबकि, अपने स्वार्थों के ऊपर निकाचित कर्मों के मेघों का घटा. टोप जोरदार हो तो क्या ? रोने बैठना ? या छाती कुटने बैठना? इतना करने पर भी स्वार्थ की पूर्ति हो जायगी क्या ? इन सब बातों में शास्त्रकारों ने सर्वथा मनाही की है, इसलिए अच्छा तो यही है कि, इन्सान चाहे हजारों संकटों में से पसार हो रहा हो तो भी उसे परमाथ अर्थात् दूसरों की भलाई का ख्याल कभी भी छोड़ना नहीं चाहिए। दमयंती ने अपने जीवन में से अशुभ तत्व दूर किये है, इसीलिए वह स्वस्थ है, समाधिस्थ है और हास्यशीला बनकर दीन-दुःखी और अनाथों को दालरोटी खिला रही है। चोर को फांसी से छुडवाना एक दिन की बात है, दमयंती दानशाला में थी तव कितने ही सिपाही (पोलिसमेन) एक चोर को पकड़कर शूली के स्थान पर ले जा रहे थे। चोर व्याकुल या, उसकी आंखे रो-रो कर निस्तेज बनी हुई थी, लोही के अभाव में मुंह सफेद बन चुका था। उसके आगे ढोल बज रहा था और उद्घोषणा करते हुए एक सिपाही कह रहा था कि, यह चोर है अतः ऋतुपर्ण राजाने इनको शूली पर चढ़ाने का आदेश दिया है और प्रजा को संदेश दिया है कि, जो भी इन्सान चोरी बदमाशों P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करेगा / वह इस चोर की तरह दंडय रहेगा, चोर की दयनीय दशा को देख कर उसे दया आई और वह दानशाला से नीचे उतरकर आरक्षकों से पूछती है, इसने कौन सा अपराध किया है ? तब उन्होंने ऊपर मुजव कहा / चोर ने दमयंती को हाथ जोड़कर नमस्कार किया और वोला, 'हे भाग्यवती !' आज तेरे दर्शन मुझे इस हालत में हुए हैं, तो मैं मरण शरण कैसे बन पाऊंगा ? तब दमयंती ने कहा मत डरो, तुम मरोगे नहीं मैं तुम्हें छोड़वा लूंगी। तब उसने अपने सतीत्व का स्मरण किया और हथेली का पानी नीचे गिराते हुए कहा 'मैं यदि सती हूँ तो चोर के / हाथ में पड़ी हुई हथकड़ी टूट जाय' उसी समय हथकड़ी के टुकड़े हो गये / हजारों पुरुषों ने अभूतपूर्व इस दृष्य को देखा, और प्रत्यक्ष चमत्कार देखकर शेष जनता भी आई और सती की जय हो, इस प्रकार नारे आकाश में गूंज उठे। ऋतुपर्ण राजा भी आया और सब कुछ प्रत्यक्ष करके विस्मित बना हुआ वह चारों तरफ अपनी आंखों को घुमाता हुआ बोला, वेटी ! मत्स्य गलागल जैसे संसार के इन्सानों को दंड देना तथा सज्जनों का सत्कार करना यह तो राजधर्म है। प्रजा का कर लेकर पृथ्वी को चोर तथा बदमाशों से बचाना पाप नहीं है। इस प्रकार के अपने धर्म से यदि राजा भ्रष्ट बनता है तो वह स्वयं पापी है / यह चोर है जिसप्रकार मेरे घर में चोरी की है यदि दूसरों के यहां भी डाका डाला होता तो भी वह दंडय बनता, इस कारण से मैं यदि इसे सजा न करूँ __ तो चोरों को भी चोरी करने का उत्साह बढ़ेगा और संसार हिंसा चार, मृषावाद, चौर्यवाद, उपरांत मारामारी, काटाकाटी की प्रचुरता से बढ़ जायेगा। . राजा को राजनीति समझाती दमयंती - जवाब में दमयंती ने कहा, राजन् ! आपका कथन सत्य पूर्ण होते हुए भी संसार के संस्थान मात्र में कुछ न कुछ अपवाद का होना अनिवार्य होने से संसार का व्यवहार ठीक रुप से चलता है, क्योंकि जीवों 83 P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के स्वभाव, तप, तेज तथा कर्मों की मार एक सी होती नहीं है, ऐसी परिस्थिति में सब कानून भी एक तरह के नहीं होते हैं तथा एक कानून भी सभी के प्रति एक सा नहीं रहने पाता है। चोरी के माल मुद्दे सहित चोर पकड़ा गया हो तो भी उसके अध्यव्यवसायों का तथा परिस्थिति विशेष का निर्णय भी न्यायाधीश को करना होगा कारण कि परिस्थिति वश चोरी करनेवाला इन्सान भी भूतकाल का या भविष्यतकाल का साहूकार हो सकता है, और दिखावे का साहकार भी बदमाश तथा भविष्यतकाल में भी महाबदमाश बन सकता है। इन तथ्यों के अलावा भा ईश्वरीयतत्व, न्यायाधीश के न्याय से भी बेहतर निराला तथा शक्तिपूर्ण होता है, जिससे अवसर विशेष प्राप्त होने पर न्यायाधीश का न्याय भी परिवर्तित होने में देर नहीं करता है, अथवा राजा महाराजाओं का भी परिवर्तित करना पड़ता है। - यह चोर जिसे मैं मेरी आंखों से देख रही हूँ, यदि मेरे सामने मृत्यु के शरण बने तो मेरे जैसी अरिहंतों पासिका श्राविका के दयाधम की दशा क्या होगी ? यद्यपि यह अपराधी हो सकता है तो भी मेरा शरण में आया हुआ होने से आप इसे अवश्य माफ करे क्योंकि जिसप्रकार चेपीरोग दूसरों में संक्रान्त होने में देर नहीं करता है, वैसे ही इन चार की कातर आंखे, रोने जैसी सूरत मेरे हृदय में संक्रांत हो जाने से दया की याचना करता इसका मुख मेरे से देखा नहीं जाता है। गरीब, अनाथ, अपराधी आदि का दर्द देखकर और सुनकर दयापूर्ण इन्सात के दिल में एक दर्द होता है, जिससे वह स्वयं बेचैन हो जाता है। राजन् ! अब आपको समझना सरल होगा कि, दूसरों के दर्द की अपेक्षा उसे देखकर और सुनकर अपने मन में उत्पन्न हुए दर्द की दवा इन्सान को करनी है, अन्यथा दयाधर्म भी एक तमाशे जैसा वन जायगा / ऋतुपर्ण राजाने धर्मपुत्री के तुल्य दमयंती की न्यायपूर्ण बात 84 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / मान्य की तथा चोर को मृत्युदंड से मुक्त किया। मृत्यु से मुक्त ना चोर खुश हुआ और दमयंती के चरणों में मस्तक नमाया, माफी गी और प्रतिदिन दमयंती के दर्शन करने का नियम लिया। _____एकबार दमयंती ने चोर से पूछा, तुम कौन हो ? कहां के रहसी हो ? तथा अत्यंत निन्दनीय चौर्यकर्म क्यों कर रहे हो ? उत्तर उसने कहा, मैं तापसपुर नगर के वसंत सार्थवाह के घर पर दासकर्म रता था, मेरा नाम पिंगल था / छोटी उम्र में दुष्ट दुर्जन तथा बद शों के सहवास के कारण मेरे जीवन में चोरी वगैरह करने की खराब दते पड़ी हुई होने से अवसर आनेपर सेठजी के घर पर डाका डाला र आभूषणों की पेटी चुरा ली, परंतु मेरी किस्मत थी कि, राये हुए धन को लेकर जंगल से पसार हो रहा था और लुटेरों ने ने लूट लिया उस समय मेरे मन में कुछ चिनगारी आई और मैंने चा कि, मजदुरी करने पर आराम से भोजन वस्त्र मुझे मिल रहा * फिर मैंने यह पाप कर्म क्यों स्वीकारा ? पापकर्मी आत्मा बिजली चमकारे की तरह क्षणिक सुख का स्वास भले लेता होगा, परंतु सी का भी वह सुख स्थायी बना है क्या? अन्यायोपार्जित धन तथा श्वासघात का धन, इन्सान के घर में सदाचार नहीं परंतु दुराचार आमंत्रण देनेवाला होता है, और दुराचारी आत्मा, रोग, महारोग डप्रेशर, हार्ट अटेक, कैंसर आदि से आक्रान्त बनकर रोते-रोते ही ने पाता है / कितने ही इन्सान इतने भारी कर्मी होते हैं, जिससे पाप फल भी तत्काल भुगतना पड़ता है। मेरी भी यही दशा थी जिससे , तरस, थकान आदि को सहन करता हुआ मैं अचलपुर नगर में या और ऋतपर्ण राजा के यहां दास बनकर समय पसार कर रहा / घर, रसोड़ा और शयन स्थान पर मेरी नियुक्ति होने से मेरा त्रि आना-जाना होता रहता था। फिर भी मेरी अधर्म बुद्धि के रण एक दिन चन्द्रवती के आभूषणों की पेटी मेरी नजर में आई 85 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और व्यभिचारी इन्सान परस्त्री को देखते ही चलित होता है, उमा प्रकार आभूषणों को चुराने की दुर्बद्धि होते ही उसे चुराकर पहिने हु" वस्त्रों में छुपाकर भाग गया। इन्सान चाहे कितना ही चालाक हो, तथा। उसकी आंखें गुप्त में गुप्त बात को भी प्रकाशित करने में देर नहीं करत है। चोर तथा व्यभिचारी अपने अपराध को छिपाने के लाखों प्रयत्न कर तथापि उसकी आंखे, ललाट की रेखा तथा पैरों की चाल उसकी चुगल खाये बिना रह नहीं सकती। जब मैं राजपुत्री के आभूषण चुरा रह था, तब राजाजी की आंखों ने मुझे पकड़ ही लिया, क्योंकि दक्षपुरु चाहे कहीं भी बैठा हो तो भी उसकी इन्द्रिये, मन, बुद्धि चारों तर चक्कर लगाती रहती है / रंगे हाथ में पकड़ा गया और आरक्षको / मेरे हाथ पैर में बेड़ी डाल दी, राजाजी ने सली पर चढ़ाने की आज्ञ प्रयुक्त की / उसी समय सर्वथा लाचार बना हुआ मैं दिशाशून्य, किक तंव्यमूढ तथा पागल सा बन चुका था, आंखों में पानी था, हृदय पश्चाताप था। आरक्षको ने मुझे शूली पर ले जाने को प्रस्थान किया इतना होने पर भी मेरी भक्तिव्यता अच्छी होने के कारण शूली प जाते समय भी तुम्हारे दर्शन हुए और दया की याचना करने पर तुम मुझे मुक्त कराया। दूसरी बात यह है कि, जबसे तुमने तापसपुर नगर छोड़ा है, त से विह वल, व्याकुल और उदासीन बने हुए वसंत सार्थवाह ने भोजन पानी को मी त्याग दिया था, परंतु यशोभद्रसूरिजी महाराज ने संसार स्वरुप, ऋणानुबंध तथा भोग्य कर्मों की शक्ति आदि समझाकर स दिनों के बाद उपवास का पारणा करवाया / एक दिन की बात है / वह वसंत सेठ मूल्यवान पदार्थों को लेकर कुबर राजा के यहां गया,' समर्पित की अभिवन्दन किया तब खुश होकर राजाने छत्र चामर यक्त तामसपुर का राज्य समर्पित किया, तब से वह वसंत शेखर ना राजा के रुप में राज्य का संचालन करता हुआ समय पसारकर रहा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 चोर की बातें सुनकर दमयंती बोली, 'पुत्रक !' असार संसार का यही स्वरुप है कि, जीवमात्र अपने-अपने स्वार्थों की माया में जीवन पूर्ण करे, तो भी मेरी सलाह यदि तुम्हें रुचिकर लगे तो इस मायावी सार की माया से मुक्त बन जाओ। उसने कहा, 'पूज्य माताजी ! बापका वचन मैं सोलह आना स्वीकार करता हूँ, मतलब कि, दीक्षा देने के लिए पहले से ही मैंने निर्णय कर लिया था। कर्म संयोग से उसी समय पृथ्वी को पवित्र करते हुए दो मुनिराज अचलपुर नगर में धारे और गोचरी के समय दमयंती के प्रांगण में पधारे मुनिराज को खकर प्रसन्नचित्त दमयंती ने श्रद्धा भक्ति तथा उत्साहपूर्वक दोष हित अन्नपानी वहोराया, मुनिराज ने धर्मलाभ दिया / इस तरह तिदिन मुनियों की वैयावच्च करके दमयंती ने उत्तमोत्तम लाभ हासिल कया। एक समय उसने मुनिजी से कहा, प्रभो ! यदि यह इन्सान आपको तदान के योग्य लगे तो उसे दीक्षा दीजिये। जिससे षट्काय की वराधनामय इस संसार से इसका निस्तार सुलभ बने / उत्तर में मुनिजिा ने कहा, भद्रे ! जो इन्सोन तुम्हारी आंखों से पसार हो चुका है। सकी योग्यता में किसी को भी संदेह रखने की आवश्यकता नहीं है, थिति तुम्हारी बात मान कर इस भाग्यशाली को दीक्षा देने के लिए तयार हूँ, उसी समय उसे देवमंदिर में ले जाकर दीक्षा विधी का रंभ किया और वह मुनि बना। - इस प्रकार वनवास दरम्यान में दययंती ने जिस प्रकार से दूसरे नावों का हित हो सके, उसे तन, मन तथा धन से किया। उसमें भी मथ्यात्व से घोरतिघोर अंधकार में से दूसरे जीवों को सम्यकदर्शन के काश में लाना, अज्ञानरुपमृत्यु से बचाकर सम्यक् ज्ञान का अमृतपान राना तथा दुराचार मिथ्याचार रुप दावानल से बचाकर सम्यक् बारित्ररुपी अमृतवर्षा से प्लावित करना यही उत्तमोत्तम अभयदान है। दूसर दानो से क्षणिकतप्ति होती है, जब रत्नत्रयी की आराधना जीव P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्र को अनंत सुख प्राप्त करवाने में क्षमता रखती है / इस प्रकार पूर्वभव को सम्यक् आराधना के बल से दमयंती ने बहुत से जीवों को उद्धरित किया फलस्वरुप अपनी भावलब्धि को परिपक्व बनाकर अपनी आत्मा को मुक्ति के लायक बना सकी है। कि एक दिन राजसभा में विराजमान विदर्भ देश के राजा भीम ने कर्णोपकर्ण सुना कि, जिस नलराजा से मैंने मेरी पुत्री दमयंती को विवाही थी, वह नलराजा अपने भाई कूबर के साथ जुगार खेलने के दाव में सवकुछ हार भी गया और मेरी पुत्री दमयंती को भी दाव पर रखी और हार गया। छोटे भाई ने नलराजा को अपने देश से प्रवासित किया और दमयंती के साथ वनवास को स्वीकार किया। वन में भटकते महा भयंकर अटवी में प्रविष्ट हुए तदन्तर उनके एक भी समाचार कर्णपर आने नहीं पाये / मालूम नहीं वे दोनों कहां गये ? जीवित है य| अजीवित ? नलराजा जैसे सम्यक् ज्ञानी को जुगार खेलना और अपनी धर्मपत्नी की भी सुधबुध रहने न पावे इतनी हदतक उसमें मस्त बनना, केवल उनके पूर्वोपार्जित अति निकाचित कर्मो का ही मुख्य कारण दिखता है, क्योंकि शास्त्रों में जीव की जैसे अनंत शक्ति का प्रतिपादन है, उसीप्रकार कर्म सत्ता भी अनंतशक्ति सम्पन्न होने से संसार की स्टेज पर कभी पुरुष जितता है, कभी इन्द्रियों की गुलामी, कभी कर्म राजा की शैतानी, कभी माया की मस्तानी जितने पाती है। यही कारण है कि, अरिहंत परमात्माओं ने निरर्थक पापों का अवरोध करने हेतु बारह व्रतों के प्रतिपादन में अनर्थ दंड विरमन तथा भोगोपभोग विरमण नाम के दो व्रतों का विशेष रुप से प्रदान किया है। अज्ञान, मायावी तथा संसारोन्मुखी आत्मा अरिहंतों के व्रतों की मश्करी करता है और भयंकर पापोपार्जन से भारी बनकर रोते चिल्लाते यमराज का मेहमान बनता है, जब सम्यक् ज्ञानी आत्मा अपनी जात को Him Self 8 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (स्वाधीन) कर महाभयंकर, निरर्थक और सार्थक पापाचरणों से भी आत्मा इद्रियें, बुद्धि तथा मन को बचाकर उर्ध्वमुखी बनता है / 15 कर्मादानकर्म, अभक्ष्य भोजन, अपेयपान, सप्तव्यसन, असभ्यजीवन आदि दूषणो _सें जीवन में कमजोरिएँ बढ़ती है जिनसे दुर्गति की तरफ का प्रस्थान सुलभ बनता है / - पूर्व के पुण्यो का भोग करना सर्वथा अनिवार्य होने पर भी उनका भोग यदि हॉस्पिटल की नर्स के मुताविक करे, अर्थात् आठ घंटे की ड्यूटी पर वह नर्स केवल अपनी ड्यूटी को ही मद्दे नजर में रखकर प्रसूता स्त्री की प्रसूति करने पर उसके लोही पेशाब की बूंद भी उसके वस्त्र पर पड़ जाती है, तो भी उसे कछ भी नाराजी नहीं, रोष, नहीं कडवास नहीं तथा मन में खरावी भी होने नहीं पाती है, तत्पश्चात् बच्चे को स्नान, स्तनपान आदि भी प्रेम से कराने पर भी वह नर्स अपने मन में समझती है कि, बच्चा मेरा नहीं है, मेरो तो केवल ड्यूटी है उसी प्रकार पुण्य कर्मों का भुगतान चाहे लाखों-करोड़ों रुपयों में करे चांदी के थाल में भोजन करे बढ़िया वस्त्र पहने करोड़ों का व्यापार करे परंतु नर्स की तरह मन में ख्याल रखना चाहिए कि, यह मेरा' नहीं है / पुत्र-परिवार, काका-काकी, मामा-मामी, मौसा-मौसी, भाईबहन, पति पत्नी इसमें से मेरा कोई नहीं है, केवल हम सव पूर्व भव के ऋणानुबंध को समाप्त करने के लिए नाटक मंडली के मेंबर है, अपना-अपना खेल तमाशा जैसे ही पूर्ण हुआ कि,सबो को अनंत संसार में रखड़ना आवश्यक है / ऐसी परिस्थिति में जैन धर्मी इन्सान जरुर समझेगा कि, पुण्य या पाप कर्मों के भुगतने पर भी इन्द्रियो को मन को वश करने में ही मेरा कल्याण है, बड़े से बड़े बहादुर मानवो के लिए जो अशक्य है, वही अरिहंत परमात्मा के उपासको के वास्ते शक्य बन सकता है। यद्यपि सर्वविरति चारित्र तो हर हालत में भी श्रेष्ठतम है. तथापि देशविरति श्रावक धर्म में भी वह पॉवर आ जाता है, जिससे 89 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभक्ष्य, अपेय, निंदनीय व्यापार, व्याज में गबन आदि का त्याग करना दुर्लभ वनता नहीं है। विदर्भ देश के राजा भीमराज के मन में उपरोक्त विचारों की परंपरा आई और गई, उनकी धर्मपत्नी (दमयंती की मां) पुष्पदंती भी उसी समय जयजिनेन्द्रपूर्वक नमस्कार करने पधारी थी। शोकमग्न राजाजी को देखकर रानीजी ने कारण पूछा और उन्होंने नल दमयंती की शोचनीय दशा की बातें कही, जिसे सुनकर रानीजी की आंखों से श्रावण महिने की मेघधारा जैसी अश्रुबुंदे गिरने लगी और बेहोश हो गई। दास, दासी, मंत्री सेनापति आदी की दौड़धाम होने लगी, सभी के दिल में अपार वेदना थी, दिमाग बेकरार था, वातावरण इतना गंभीर बन गया कि, सबके सब किंकर्तव्मूढ़ से बन गये थे / तव मंत्रीजी ने कहा राजन् ! ऐसी परिस्थिति जव कभी भी वनने पावे तव धैर्य रखना ही श्रेयस्कर है, जिससे आगे का कर्तव्य धर्म ख्याल में आ सके। प्रभो! आपत्तिएँ, तो इन्सान पर ही आती है / सुवर्ग भी अग्नि में तप जाने के वाद तथा हथोड़े की मार खाने के बाद मूल्यवान बनने पाता है / उसी प्रकार न्यायनिष्ठ, सत्यवादी तथा धर्मनिष्ठ इन्सानों की भी परीक्षा होती है, उसके पश्चात् ही ब्रह्मचारीयों का ब्रह्मचर्य धर्म, न्यायनिष्ठों का न्यायधर्म तथा सत्यवादियों का सत्यधर्म संसार के इन्स नों के लिए प्रशंसित बनता है, माननीय बनता है, अतः मेरा मानकर, दमयंती को अच्छी तरह पहचान सके वैसे दूत को तपास करने हेतु भेजे जिससे संभव है कि, कहीं न कहीं थोड़े या ज्यादा समाचार मिलेंगे ही, राजाजी को यह बात ठीक लगी और हरिमित्र नाम के राजवटुक को बुलाकर सब प्रकार के आदेश दिये गये क्योंकि यह राजबटुक जन्म से ही दमयंती को अच्छी तरह जानता हुआ होने से दमयंती चाहे किसी भी स्थिति में रही होगी तो भी उसे पहचानने में राजवटुक को कुछ भी कठिनाई नहीं आयेगी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा की शपथ लेकर, कर्तव्यनिष्ठ राजदूत अपने मालिक से थोड़ा लेकर उसके बदले चार गुणा ज्यादा कार्य करेगा। राजवटुक बड़ा भारी चालाक था, उसकी आंखों से कोई भी गुन्हेगार छुप नहीं सकता था, अनुमान लगाकर कार्य का निर्णय करने में वह बड़ा भारी दक्ष था। राजाजी की आज्ञा स्वीकार कर अपने घर पर आया और घड़ी-आध-घड़ी आंखें बंद करके सोचने लगा कि, राज्यभ्रष्ट नलदमयंती को लगभग 11 वर्ष होने आये हैं, पृथ्वी विशाल है, अगणित देश हैं, चारों दिशाएँ खुली पड़ी है, ऐसी स्थिति में आपत्तिग्रस्त इन्सान कहीं भी जाने में स्वतंत्र है / मैं कौन-सी दिशा में जाऊँ ? जिससे अविलम्ब कार्यसिद्धि होकर मुझे यश मिलने पावे। शास्त्रकारों ने कहा, इन्सान ! चमड़े की आंखें तो भी धुंधली हो सकेगी परंतु अनुमान की आंखें हमेशा जागृत रहती है। - नलदमयंती की खोज में राजबटुक का प्रस्थान कर्तव्यनिष्ठ इन्सान का अनुमान सत्यलक्षी होने से अपने मालिक के कार्य पूर्ण करने में देर नहीं लगती है। प्रारंभ में तो वह बटुक इधर-उधर खूब फिरा, परंतु बनवासी बने हुए नलदमयंती के कुछ भी समाचार कहीं पर से भी जब नहीं मिलने पाये, तब उसने अचलपुर नगर का मार्ग लिया और नगर में प्रवेश कर सीधा राजमहल में आया जहां पर ऋतुपर्ण राजा और चन्द्रयशा रानीजी तथा और भी जनता स राजदरबार भरा हुआ था / (इतना याद रखना होगा कि, चन्द्रयशा रानी तथा भीमराजा की पुष्पदंती (दमयंती की माता) सगी बहन है, और दमयंती इस समय अपनी मौसी चन्द्रयशा के यहां दासी रुप में समय बीता रही है / ) अपने पितृगृह से आये हुए हरिमित्र राजवटुक को देखकर चन्द्रयशा रानीजी को खुशी होना स्वाभाविक है, और उसी खुशी के कारण रानीजी ने एक ही साथ प्रश्न के ऊपर प्रश्न पूछे, "भीम P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज कैसे है ? राज्य संचालन कैसे रहा है प्रजा सुखी- है / कुछ आपत्ति तो नहीं है ? आक्रमण का भय तो नहीं हैं ? मेरी बहन पुष्पदंती ठीक है ? दमयंती के समाचार तो ठीक है ? तुम्हारा आना कैसे हुआ ? इत्यादिक प्रश्नों का उत्तर देते हुए राजबटु ने कहा, रानीजी ! विदर्भ देश में परमदयाल परमात्मा की कृपा से सब काई कुशल है। परंतु कौशल देश के राजाधिराज नल तथा सतीधूय्या दमयंती के बारे में कुछ चिंतनीय है। सबसे पहले दनयंती की शाध करना अत्यावश्यक है / अश्रवणीय बात को सुनाकर राजारानी पर वज्र सा आघात लगा और बेहोश भी हो. गये, सभा में शोक-संताप का सन्नाटा छा गया। शीतोपचार के पश्चात् होश में आये राजा ने गद्गद् होकर पूछा और बटुक ने जुगार, राज्यभ्रष्ट बनवास तथा दमयता के त्याग की जब वाते कही और रानीजी तथा राजाजी फूट फूट राय, राजसभा दिगमढ बनी / / . उस समय सीमातीत थका थकाया वट भी उदासीन बन गया था, क्योंकि इन्सान के मस्तक पर चाहे पहाड भी टूट पड़े हो तो भा वैसी निराशाजनक स्थिति में संभव है कि, वह अपने सगे के यहां. भा पहँच ही जाय, परंतु अपनी सगी मौसी के यहां भी जव दमयंती के कुछ भी समाचार न मिले, तो वज्र हृदय इन्सान भी गमगीन बनने पाव उसमें क्या आश्चर्य ? फिर भी आहारसंज्ञा वश भूख के मारे चाह कोई भी हो तो भी आहाराभिलाषुक बनना तथा भोजन पानी के साधन जुटाना स्वाभाविक है, वृद्धों ने भी कहा है, ....... "भूख रांड भुंडी आंख जाये ऊंडी। .... पग थाय पानी, आंसु आवे तानी।" राजबटु की भी वही दशा हो चुकी थी अतः रोते हुए सब परिवारों को छोड़कर वह भोजनशाला में पहुँच गया। जहां स्थान मिला वहां थाला लेकर भोजन करने बैठा / 92 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार में परिश्रम द्वारा बनाये जानेवाले कार्यों की अपेक्षा जोगानु जोग (बाइचान्स) से बननेवाले कार्य ज्यादा होते हैं। दमयंती को ढूंढ़ते हुए. बटुकजी का दम निकल गया, परंतु अमुक स्थान में वह है / ऐसे समाचार भी कहीं से मिलने नहीं पाये, और आज वाइचान्स था कि, उसकी नजर भोजनशाला की व्यवस्थापिका पर पड़ी और तेज घोड़े के मुताबिक वह चमक गया, खूव सावधानी से देखने पर उसे महसूस हुआ कि, यह वहन दमयंती ही है / आश्चर्य तो जरुर हुआ कि, दक्षिणार्थ भरत के राजाधिराज नल की यह पटट्रानी, कर्मों की कुटिलता के कारण ही छद्मवेष तथा नाम से दासी बनकर काम कर रही है। वह दमयंती के पास आया और नम्रतापूर्वक बोला कि, आज हमारा बड़ा भाग्य है कि, आप दृष्टिगोचर होने पाई, विदर्भ तथा कौशलदेश के राजा तथा प्रजा के भी पुण्य जागृत होने के कारण आपको जीवित अवस्था में देखने पाया; अपनी भूख तथा प्यास की भी परवाह किये विना वह दौड़ता हुआ चन्द्रयशा रानी के पास आया और वोला, देवीजी ! बधाई है, आपको हजारों वार बधाई है / आश्चर्य तो केवल इसीलिए हो रहा है, इतने लंबे समय में भी आपकी भाणेज दमयंती को आप पहचानने न पाई / तो क्या वह दमयंती है ? जी हां वह दासी आपकी भाणेज दमयंती है, जिसकी खोज करने में मुहल्ले-मुहल्ले में भटक रहा था। इतना सुनते ही रानीजी स्वयं दानशाला में पधारी और हंसी जिस प्रकार कमलिनी का आलिंगन करती है, उसी प्रकार दमयंती को छातीसे लगाकर रानीजी अपने रुदन को रोकने न पाई / छद्मस्थ जीवन का यह. नियम है कि, दुःखार्द्र बनकर जब एक रोता है, तो सामनेवाला भी रोये बिना रह नहीं सकता है / मौसी भाणेज दोनों रु दन करने लगी तत्पश्चात् रानीजी ने कहा, मुझे धिक्कार है कि, मेरे पास रहती हुई तुझे मैं पहचानने न पाई। अथवा सामनेवाले इन्सान के कर्म ही कुटिल हो तो अच्छे से अच्छे बाह्य लक्षणों से.लक्षित इन्सान को सामुद्रिक ज्योतिषी भी पहचानने में भूल खा जाते हैं / यही कारण है कि, तेरा बाह्य . . . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और आभ्यन्तर जीवन, रुप, बोलचाल की भाषा आदि सुन्दर होते हुए भी मैं पहचानने में भूल खा गई उसका मुझे अतीव अफसोस है, या तो अपने आप को छुपाकर तुम ही भूल खा गई हो / क्योंकि सुदगा तथा दुर्दशा का चक्र तो जीव मात्र के लिए एक सा होते हुए भी अपने मातृकुल में अपनी जात को प्रकाशित करने में लज्जा का प्रश्न भी उपस्थित होता नहीं है / फिर भी जो होनहार था वह होकर ही रहा। ____ अब बतलाओ कि, तुमने स्वयं नलराजा को छोड़ा है ? अथवा नलने तुम्हारा त्याग किया है ? मुझे अनुमान है कि, साधारण स्त्री भी अपने पति को त्यागती नहीं है, तो तुम्हारे जैसी खानदानी, पतिव्रता, और स्वच्छ हृदया स्त्री दुर्दशा में गिरे हुए पति को यदि छोड़ देती है तो निश्चित है कि, सूर्यनारायण को पश्चिम दिशा में उदित होने का अवसर प्राप्त हो सकता है, परंतु ऐसा कभी हुआ नहीं है, होता नहीं है और भविष्य में होनेवाला नहीं है। इसी प्रकार खानदानी स्त्री भी पति को छोड़ नहीं सकती है / फिर भी नलराजा को यदि त्यागना ही था तो तुझे मेरे पास छोड़ देने में कुछ भी हानी नहीं थी, परंतु नल जैसे सात्विक शिरोमणि नररत्न भी बड़ी भारी भूल खा गये हैं / अथवा दुःख के ऊपर दूसरे दुःखों की परंपरा आने पर इन्सान मात्र भ्रमित सा हो जाता है, संभव है कि, नलराजा की यही मनोदशा रही होगी। . दमयंती ! तेरे दुःख में मैं सहभागिनी बनती हूँ, केवल मुझे दुःख इसी बात का सता रहा है कि, मैं तुझे पहचानने में गफलत बन पाई हूँ / अव बतलाओ कि, काली भयंकर रात में भी, अंधकार रुपी सर्प को भगाने में गरुड़ जैसा तेरा भाल तिलक, जो पहले सूर्य की तरह चमकता था, वह दिखता क्यों नहीं है ? रानीजी ने जब यह पूछा तो दमयंती ने भी अपने थूक से अपना ललाट साफ किया और अग्नि से उत्तीर्ण हुए सुवर्ण के समान, मेघ से बाहर आये सूर्य के समान, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / दमयंती का ललाट चमकने लगा। रानीजी को विश्वास हुआ कि, वाल्यवय की दमयंती जैसे पवित्र थी वही पवित्रता परिणीत होने के पश्चात् भी सुरक्षित है यह जानकर चन्द्रयशा रानी को बड़ा आनन्द व गौरव रहा / तत्पश्चात् उन्होंने अपने हाथों से दमयंती को स्वच्छ शीतल तथा सुगंधी जल से स्नान कराया, सफेद वस्त्रों का परिधान करवाया, तथा अपने हाथ में हाथ पकड़कर उसे ऋतुपर्ण राजा के पास ले आई और राजा से संकेत प्राप्त करने पर सुवर्णासन पर दोनों बैठ गये। उसी समय आकाश को भयंकरतम अंधकार से भरता हुआ सूर्यनारायण अस्ताचल पर्वत की यात्रा करने पधार गये / सारांश कि, सूर्य के अस्त होने पर पूरा संसार अंधकारमय बन गया। भयोत्पादक अंधकार में चमकते हुए दमयंती के ललाट को देखते हुए राजा ने पूछा, हे देवी! इस समय अपने महल में दीपक भी नहीं है, अग्नि भी नहीं है तथा सूर्यनारायण भी अस्त हो चुके हैं, तथापि यह रात-दिन के सदृश क्यों तथा किस कारण से चमक रही है ? उत्तर में रानीजी ने कहा स्वामिनाथ ! मेरी यह भाणेज दमयंती ने किसी भव में अष्टापद तीर्थ पर स्थित चौबीस तीर्थकर परमात्माओं के ललाट पर सुवर्ण पट्टक पर मंडित हीरो के तिलकों की आभूषण पूजा की थी तथा पधारे हुए मुनिराजों को गोचरी पानी से पारना करवाया था, उसी कारण से उपार्जित पुण्य का खजाना लेकर जन्मी हुई दमयंती का कपाल अंधकार में भी सूर्य की तरह चमक रहा है। सभास्थित सम्यों को आश्चर्यचकित करनेवाली रानीजी की बात सुनकर राजाजी को. आनन्द तो आया तथापि परीक्षा करने के इरादे से ज्योंहि अपने हाथ से दमयंती के ललाट को संवृत (ढंक दिया) किया उसी समय अंध कार ने अपना प्रभुत्व' पुनः जमा लिया और ज्योंही ललाट से हाथ हटा लिया तो पुनः उसका ललाट चमकने लगा। राजाजी बड़े खुश हुए और अरिहंत P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्माओं के पूजन तथा मुनिराजों की सेवा आदि सदनुष्ठानों में श्रद्धान्वित हुए। उसके बाद राजाजी के पूछने पर दमयंती ने जुगार से लेकर अपना सब वृत्तांत कह सुनाया, तब दयार्द्र बने हुए राजा का आंखें आंसुओं से भर आई, रानीजी तथा दमयंती भी पेट मर रोई ' क्योंकि दुखों से भरा हुआ जीव अपने स्नेहीओं के बीच रोये बिना रहता नहीं है / राजाने दमयंती के आंसु अपने वस्त्र से साफ किये और बोले, बेटी ! इस संसार में विधाता से बढ़कर कोई बलवान नहीं हैं। अतः मत रुओ दमयंती भी आश्वासित होकर स्वस्थ बनी / 6. उसी समय एक देव आकाश से नीचे उतर आया और दमयंती को हाथ जोड़कर बोला, भद्रे ! मैं पिगलक नाम का चोर था, इसी राजा से मुझे अभयदान दिलवाया और तुम्हारे आदेशानुसार मैंने दीक्षा स्वीकार की। विहार करता हुआ मैं एक दिन तापसपुर नगर में आया और सांयकाल में स्मशान भूमि पर कायोत्सर्ग की मुद्रा में ध्यानस्थ बना / दूर से जंगल के झाड पानी को साफ करता हुआ भयंकर दावानल मेरे समीप आने लगा और देखते-देखते उसने मुझे भस्मीभूत करने का प्रारंभ किया, परंतु भावसंयम का मालिक बना हुआ मैं धर्मध्यान में स्थिर रहा तथा नमस्कार महामंत्र, भवभवांतर में भी जैन शासन की प्राप्ति, इस भव की अधुरी आराधना आनेवाले भव में पूर्ण करनेवाला बनने पाऊँ इत्यादि शुभ अध्यवसायों में उत्तरोत्तर आगे बढ़ता गया और दावानल से अर्धदग्ध शरीर जमीन पर गिर गया। प्राणच्युत होकर म देवलोक की भूमि में देव बना / उस भूमि में उत्पन्न होनेवाले देवमात्र को सबसे बढ़ा भारी आश्चर्य होता है कि, भौतिकवाद से परिपूर्ण इस भूमि में मैंने कौन से पुण्यकर्मो के कारण जन्म लिया है ? तब वे अपने अवधिज्ञान का उपयोग रखते हैं उसमें जब अपना पूर्व भव दिखता है, तब अपने सुकृत्यों की स्मृति में आनन्द विभोर बन जाते है। मुझे भी अबधिधान से मेरा थव इसतरह याद आया कि, "मैं महाचोर था। सिपाहीयों P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने मुझे पकड़ा / दंडय बना / तब दमयंती के आदेश को मानकर दीक्षा ली, पाली और अंत में परमात्मा का स्मरण करते देह छोड़ा और देव बना। . माताजी ! आज भी आनन्दविभोर हूँ कि, यदि तुम्हारी शरण मिलने न पाती तो मेरे जैसे चोर, बदमाश, परस्त्रीगामी, वेश्यागामी तथा शराब और मांसाहार करनेवाले की दशा क्या होने पाती ? परंतु मेरा सद्भाग्य था कि, तुम्हारी दयादृष्टि मेरे पर पड़ी, मुझे अभयदान मिला और अरिहंतों के शासन के द्वार पर आया, मैत्रीभाव का विकास करानेवाला संयम मिला, और मैं कृत्य-कृत्य बन गया। . देवदुर्लभ मनुष्यावतार प्राप्त करने पर भी जिनके जीवन में हिंसा, झूठ, संसार की: माया, मोहपरवशता, इन्द्रियों की गुलामी, भौतिकवाद की पराधीनता, स्वस्त्री का त्याग, आदि दुष्कृत्यों की भर. मार होती है, उनका मस्तिष्क पाप से भारी होने के कारण वे बिचारे उर्ध्वभूमि (देवभूमि) कैसे प्राप्त कर सकेंगे? इसीलिए महर्षियों ने कहा इन्सान ! गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी इन्द्रियरुपी घोड़ों के मुख में सम्यग्ज्ञान की लगाम डाल देना, मनरुपी चोर को चाबुक लगाकर आत्माधीन बनाना, तथा परस्त्री, वेश्या, भाभी, साली, सहपाठिनी, शिष्या, छात्रा, पड़ोसन, स्त्री का त्याग कर स्वस्त्री में ही रमण करना तथा शराब, आसव, मांस, अभक्ष्य, * अपेय, अनंतकाय, होटल, रेस्टोरेन्ट आदि का सर्वथा त्याग कर के अपने घर की रसोई खाने में मन लगाना इस प्रकार गृहस्थाश्रम * में रहते हुए भी उन भाग्यशालीयों के लिए देवलोक की प्राप्ति सुलभ बनती है। - महासतीजी ! यदि आप जैसी पुण्यात्मा, अरिहंतोपासिका श्रमण. धर्मानुरागिणी, श्राविका ने मेरी उपेक्षा कर ली होती तो मेरे भाग्य में अधर्म पापाचरण आदि के अतिरिक्त दूसरा क्या था ? और उस परिस्थिति में यदि मर जाता तो नरक आदि दुर्गति के अलावा मेरे नशीब 97 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में क्या रहने पाता ? हे मातृस्वरुपा दमयंती ! अरिहंतों के धर्म की आराधना से प्राप्त हुई इस उच्चस्तरीय स्थिति में आप ही मूल कारण होने से देवलोक के वैषयिक सुख भुगतने के पहिले यदि तुम्हारे दर्शन न करने पाऊं तो मेरे जैसा बेकदर, बेईमान, बेरहम, बेफिक्र तथा बेमर्याद दूसरा कौन ? इसप्रकार कहकर उस देव ने अपनी देवमायासे सात करोड़ सुवर्ण की वर्षा की तथा ऋणमुवत बनकर बिजली की चमक की तरह जैसे आया था वैसे स्वर्गलोक में गया। अरिहतों के धर्म की आराधना का प्रत्यक्ष फल जानकर ऋतुपर्ण राजा संतुष्ट हुए और जैनधर्म को स्वीकार किया। ..... न जैनधर्मप्राप्त इन्सान यदि एकांत में बैठकर थोड़ा-सा सोचे और अपने जीवन में नये पापों का त्याग तथा जूने पापों को धोने का मार्ग स्वीकार करें तो किसी को कुछ भी हानि नहीं होती है, क्योंकि निरर्थक पापों के त्यागस्वरूप बारह व्रतों के स्वीकार करने पर भी व्यापार व्यवहार बंद करने की आवश्यकता नहीं है, केवल मानसिक जीवन में पापमार्ग (पापस्थानक) पाप ही है, जिनके सेवन से आत्मा वजनदार वनकर दुर्गति तरफ प्रयाण करती है / इतना एकरांर (दृढ विश्वास) कर लें तो उसका छुटकारा होने में ज्यादा विलंब नहीं होता है। . अवसरज्ञ हरिमित्र बटु ने ऋतुपर्ण राजा से हाथ जोड़कर कहा, 'हे राजन !' आप श्रीमान का तथा भीमराजा का बहुत बड़ा सौभाग्य है कि, दमयंती की प्राप्ति बड़े लंबे समय के बाद होने पाई है / आपकी भाणेज होने के नाते आपका प्यार उसपर होना स्वाभाविक है, उसी तरह इसकी जनेता और जनक भी दमयंती की प्राप्ति होने पर अत्यधिक खुश होंगे यह निर्विवाद है, अतः विना विलंब दमयंती को मेरे साथ भेजने की कृपा करें / चंद्रयशा रानीजी ने भी कहा, स्वामीनाथ ! , बटुक की वात पर ध्यान देकर यथाशिघ्र बड़े ठाटबाटसे दमयंती को भेज देने में P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपका गौरव चिरस्थायी बनेगा। राजाने बात को मानकर, चतरंगिणी सेना तथा मंत्रिजी के साथ दमयंती को बिदा की। मेरा कार्य सोलह आना सफल हुआ यह समझकर बटुक को नानंद का पार नहीं था / . ... पिता पुत्रीका सम्मिलन र का . विदर्भ देश के राजा भीम को जब दूतों के द्वारा मालम हआ तो वह रसाले के साथ अपनी पुत्री को लेने के लिए सामने आये। हर्ष तथा शोक के भार से लदी हई दमयंती रथ से नीचे उतरी और दौड़ती हुई अपने पिता के चरणों में झुक गई / लंबे काल से पिता पुत्री का मिलन होने से दोनों की आंखों से आंसुओं की धारा बिना रोकटोक के जारों से चल रही थी। पिता ने अपनी पुत्री को छाती से लगाया। तत्पश्चात अपनी माता के चरणों में छोटी बच्ची के माफिक ही गिर पड़ा। माता का स्थान माता के अतिरिक्त दूसरा कोई भी नहीं ले सकता है / बड़ी बड़ी चट्टानों से टकराती हुई यमुना तथा गंगा जब प्रयाग में परस्पर मिलती है, तब वह पावन प्रसंग अगणित जीवात्माओं के लिए हर्षदायक बनता है उसी प्रकार आज बड़े भारी असहय दुखों को पार करती हुई पुत्री अपनी माता के चरणों को प्राप्त करती होगी, तव आंखो में से बहती हई आंसूओं की धार को कौन गिनेगा? कैसे गनेगा ? क्योंकि कदाच संसारभर के सब स्नेह विश्वासघात बन सकेंगे परंतु मातस्नेह को किसीने भी विश्वासघातक के रुप से देखा नहीं है, सुना नहीं है तथा अनुभव में नहीं आया है। यही कारण था के, माता तथा पुत्री के मिलन में देवोंने पुष्पों की वर्षा की, विद्याधरों ने संगीत किया, गंधर्वो ने नत्य किया, यक्षों ने जयजयकार किया और वदर्भ देश की प्रजा ने सूवाद्य वांजित्रों से आकाश तथा पृथ्वी को जयबाद से भर दिया। अपनी माता से मिलकर दमयंती का विलाप जोरपर वना, क्योंकि प्राणिमात्र का यही स्वभाव रहा है कि, अपने स्वजनों P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के मिलने पर रोने का चालु हो जाता है। रानीजी ने पुत्री को गोद में बैठाकर बड़े प्रेम से अपना हाथ उसके शरीर पर फिराया, आश्वासन दिया तथा अपने वस्त्र से दमयंती की आंखे साफ की और बोली, पुत्री! मेरे पुण्य का संभार था कि, तुम मुझे सुरक्षित मिलने पाई हो, इसीसे मालुम होता है कि, अभी तेरा और मेरा पुण्य जागृत' है। फिर तो सस्वागत शहर में प्रवेश किया गया और राजाने तत्काल पुजारियों का बुलाकर आज्ञा दी कि वीत्तराग परमात्माओं के मंदिर में अष्टाह नका महोत्सव' बड़े धूमधाम से मनाया जाय, गरीबों को रोटी दी जाय, मुनि-- यों का स्वागत किया जाय, अनाथ तथा अपंगों को भोजन वस्त्र - दिया जाय / . / माताने दमयंती से कहा, 'पुत्री !' अब मेरे पास सुखपूर्वक रहो हम भी जिस प्रकार से बनेंगे उसीप्रकार यथाशीघ्र नलराजा की तपास करने में प्रमाद करनेवाले नहीं है। फिर हरिमित्रबटु को (राजदूत) खुब प्रसन्न हूए राजाने पांच सौ गांव का दानपत्र तथा सुवर्ण, चांदी आदि दिये और बोले कि, नलराजा की प्राप्ति होने पर तुझे मेरा अर्धाराज्य दूंगा / इस प्रकार दमयंती बड़े सुखसे अपने पिता के घर पर समय बीता रही है, तथापि अरिहंत परमात्माओं को प्रक्षालन, अष्टद्रव्यों से पूजन, आरती, ध्यान, जाप, उपरांत मुनिराज तथा साध्वीजी म. का वैयावच्च दीन-दखियों को दान पण्य आदि सत्कार्यों में दमयंती अप्रमत्त रही है। अपने पति से वियोग होने की बारह वर्ष की अवधि अब पूर्ण होने आ रही है, तो भी अटूट कर्म सत्ता के कारण आन्तरमन में पति के वियोग से संतप्त रहने पर भी दमयंती ने अपने जीव' में से परोपकार, जीवमात्र को सम्यकज्ञान का दान देना चारित्र के भाव उत्पन्न करवाना, नरपशुओं के जीवन में से पशुत्व निकलवाकर उन्हें मानव बनाना आदि कायों में मस्त रही है / अपना जीवन तथा जीवन 100 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षण चाहे कितनी भी दुःख, संताप, वेदना तथा कूटबिओं के वियोग र्ण हो सकती है, तथापि वैसे अवसर पर रोने से, छाती कुटने से, देने से या बिना मौत मर जाने से उसका निराकरण कभी भी हो / सकता है, अत: परोपकारित्व, सहिष्णुत्वा, दयालत्व आदि गुणों का / करना तथा बढ़ाना ही श्रेय तथा प्रेम की आराधना है। नलराजा की दशा वटवृक्ष के नीचे सुषुप्त दमयंती को छोड़कर निष्ठुर बने नलराजा से गये, तबसे आज तक उनका समय कैसे पसार हुआ? दशा कैसी बनी वाते जाननी अत्यावश्यक इसलिए है, जिससे कृतकर्मों की कुटिलता तनी भयंकर और अकाटय होती है, उसका ख्याल अपनों को आ सके कि महापुरुषों, का सुखदुखमय, संयोग वियोग तथा आपत्ति संपत्तिमय वन ही सभी के लिए प्रेरक बनता है, साथसाथ किसी भी भवमें अरिहंत मात्माओं की पूजा, जाप ध्यान, तथा पंचमहाव्रतधारी मुनिराजों की | वैयावच्च, गोचरीपानी का लाभ तथा दिन दुःखी अनाथों को दुःखसे त करना, रोगियों को रोग से मुक्त करना, भूखे इन्सानों को रोटी पानी T, कामी क्रोधी को काम क्रोध से मुक्त करवाना ही कितना अजबव तथा अचिन्नीय पुण्यकर्मों को करवाने वाला होता है, ये सब ने अपने जीवन में आवे इसलिए महापुरुषों के जीवन को लिखना, ना, सुनना, तथा मनन करना ही उत्तमोत्तम मानव जीवन __ आज तो नलराजा के जैसा दुःखी दूसरा कोई नहीं है / भरतार्थ राजा स्वयं रोटी के टुकड़े के मोहताज है, खड़े रहने की जमीन नहीं नी पीने को ग्लास नहीं, सोने के लिए पथारी नहीं तथा शरीर ढकने लिए कपड़े के अर्धे टुकड़े के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। फिर भी नक पास इन्सानियत है, दयालता तथा सहृदयता है। जभी तो भयंकरतम P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिस्थिति में से पसार होने पर भी कर्तव्यभ्रष्ट नहीं है, तामसिक तथा राजसिक नहीं है, क्योंकि अरिहंतों के तत्वों की जानकारी और उन तत्वों की तन्मयता में जीवन का अणु-अणु ओतप्रोत है / इतनी भूमिका के पश्चात अब उनके वियोगी और दुःखी संतप्त जीवन को कलिकाल सर्वज्ञ, हेमचंद्राचार्य महाराज की कलम से ही अपन जानने का प्रयत्न करेंगे। . भरनिद्रा में पड़ी हुई अपनी प्राणप्रिया दमयंती का त्याग करके नलराजा भयंकर अटवी में प्रविष्ट हुए तब थके थकाये एक वृक्ष के नीचे विश्रांति हेतु बैठ गये / अदृष्ट कर्मों के कारण इन्सान चाहे कितना भी निष्ठुर बन जावे, तथापि अवसर आने पर जब उसके आँतर (सूक्ष्म) मन में तूफान उठता है तब चिल्ला-चिल्लाकर रोने के सिवाय परमात्मा के अतिरिक्त व्यक्ति विशेष के लिए भी दूसरा मार्ग नहीं है / एखाद घंटे के बाद केवलज्ञान प्राप्त करने की योग्यतावाले भाग्यशाली जब तक वे छद्मस्थ है, तब तक छाद्मस्थिक भाव अपना नाटक किय विना रहता नहीं है, मरूदेवी माता तथा रामचंद्रजी आदि के अगणित दृष्टांत शास्त्रों मे भरे पड़े हैं / छद्मस्थ जीवनधारी अध्यात्मिक जीवन में चाहे कितना भी ऊपर आ गया होगा तो भी उसकी मोहकर्म की प्रकृतिएँ दबी हुई होने से समय होने पर आंखों में से धाराबद्ध अश्रुओं का निरोध करना बड़ा ही कठिन होता है। नलराजा भी छद्मस्थ है। अतः फुटफुट कर रोने, तथा अफसोस करने लगे और पुनः विचार ने लगे कि, मृत्युप्रापक इस भयंकरतम जंगल में दमयंती को उसके कर्मोपर छोड़ देना भयंकर अपराध है, भावदया और मानवता की क्रूर मश्करी है तथा धर्मों के रहस्यों की अनभिज्ञता है। क्या पुन: लौटकर दमयंती के पास जाकर उसके दुखों में भागिदार बनूं ? इत्यादि पवित्र तथा धर्म्य विचारों में निष्पक्षसूक्ष्म मन 'हां' कहता था, त स्वाभिमान तथा मिथ्याभिमान के शैतान चक्र में फंसा हुआ स्थूल मन 102 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता था। नलराजा भी स्थल मन के चक्र में आकर दमयंती रवाह किये बिना विदर्भ तथा कौशल देश के मार्ग को छोड़कर बढ़ने के लिए कदम ऊठाये। / / / _कुछ दूरी पर गये होंगे और एक दिशा में से आकाश व्याप्त हुए, अंजन के सदृश श्याम मानो ! पांखों से युक्त कोई पर्वत श में भ्रमण कर रहा हो, वैसा भयंकर धुआं देखने में आया / जी की नजर उस तरफ गई और देखते देखते ही उस धुएँ में से काल को याद दिलवाने वाली अग्नि की ज्वालाएँ उत्पन्न हुई। जो को आश्चर्यान्वित होना स्वाभाविक था, क्योंकि बड़े-बड़े वृक्षों तन और ज्वलन स्पष्ट रुपसें अपने सामने ही प्रत्यक्ष था / कभी भी देखी हुई, न सुनी हुई इतनी भयंकर आग को देखकर पहले से दशामूढ राजा सोचने लगे कि, अब क्या किया जाय ? किसतरह [ ठीक होगा ? न मालम मेरा क्या होगा ? साफ-साफ दिख रहा , यह आग चारों दिशाओं में फैल चकी होने से भविष्य में भी भयंकर स्वरुप धारण करेगी ? अथवा पूरे जंगल को खाखा कर अगणित चराचर सृष्टि को नाश करनेवाली बनेगी ? ईश्वर माया से निर्मित विनाश को रोकने की शक्ति इन्सान के पास न से मेरे जैसे लाखों इन्सान भी इसे शांत करने में समर्थ नहीं है। में कुछ कम पड़ रहा था और अग्नि की ज्वालाएँ आकाश तरफ तेजी से जा रही थी / पूरा जंगल इतना गरम हो चुका था। जिससे न को खड़ा रहना भी मुश्किल था / चार पैर वाले पशु भयग्रस्त गये होने से दौड़-दौड़कर इधर उधर भागे जा रहे थे, पक्षी भी . के मारे तड़प रहे थे। " - कुछ समय के बाद कालकराल. उस अग्नि में से मनुष्य के जैसी र भाषा नलराजा को सुनने में आई जो इस प्रकार थी - गरे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) श्रेष्ठतम इक्ष्वाकुकुल में जन्मे हुए क्षत्रियोत्तम नलराजा ! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो। .. (2) "अपनी नजर के सामने किसी प्राणी को मरने नहीं देना" इस प्रकार का पुरुषव्रत तुम्हारा जन्मजात होने से भी हे नलराजा ! मुझे बचाने का प्रयत्न सर्व प्रथम कीजियेगा / अन्यथा यह भयंकर आग मझे जलाकर राख कर देगी। (3) राजन् ! कबूतरों कोधान्य, कुत्तों को रोटी देनेवाले वहुत है, परंतु निःसहाय प्राणी की रक्षा करने वाले लाखों करोड़ों मानवों में माई के लाल तुम्हारे जैसा एक ही होता है। अतः हे नलराजा ! मुझे बेमौत मरने से बचाओ / इस भयंकर अग्नि की गरमी से मैं सर्वथा निःसहाय बन गया हूँ। एक कदम भी चलने में मेरी शक्ति रहने नहीं पाई है, अत: मेरी प्रार्थना को हृदय में धारण करके मुझे यथाशीघ्र बचाने का सोचियेगा। . .. +(4) हे मानवरत्न ! मेरी रक्षा होने पर मैं भी तुम्हारे पर चिरस्मरणीय उपकार करनेवाला बनूंगा, क्योंकि, 'परस्परोग्रहो जीवानाम्' परस्पर उपकार करना तथा एक दूसरे का मददगार बनना ही मानव जीवन का फल है। ना .. ' इस प्रकार की अकल्पनीय मनुष्य भाषा को सुनकर नलराजान आग की तरफ देखा तो उसमें तड़पता हुआ भारी काला नाग देखन में आया। उसकी कातर आंखे इन्सान मात्र को कह रही थी कि पैसा से दान पुण्य करनेवाले बहुत हैं, परंतु भूख के मारे तथा अग्नि, जल आदि उपद्रवों के मारे निःसहाय अवस्था में मरनेवाले जीवों को बचाना ही सर्वश्रेष्ठ अभयदान है। . नलराजा बड़े ही चिन्तित थे, क्योंकि किसी को भी बचाने के लिए उनके पास कुलभी साधन नहीं था, फिर भी जीवों को भी अभयदान 104 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देनेवाले भाग्यशाली, अपने शरीर की भी परवाह किये बिना दूसरों को मृत्यु के मुख से बचाते ही हैं। .. राजा ने कहा, 'हे नागराज !' आप स्वयं तैर्य व प्राणी हो. फिर भी मनुप्यभाषा में तुम क्यों और कैसे बोल रहे हो ? अत: आप कौन हो ? इस बात को भी स्पष्ट कर दीजियेगा, मुझे अनुमान है कि कदाच भाप देव होगे ! दानव' होगे या मेरी परीक्षा करने के इरादे से आप कोई अन्य होंगे ? तब नागराज ने कहा, हे राजन् ! मैं पूर्व जन्म में नुष्य था, उस समय की अभ्यस्त भाषा, अब भी मुझे स्मृति में होने / ही मैं मनुष्य भाषा स्पष्ट रुप से बोल रहा हूँ। दूसरी बात यह है क, स्पष्ट अवधिज्ञान का भी मैं मालिक होने से तुम्हारे नाम-ठाम वभाव, दया, दान आदि सत्कर्मों को मैं अच्छी तरह से जानता हूँ, सीलिए मेरी करुण प्रार्थना को सुनकर शीघ्रता से मुझे बचाने का उपाय कीजियेगा, आप इतना भी ख्याल में रखना कि संकटग्रस्त इन्सान र किया हुआ उपकार कभी भी बेकार नहीं जाता है। / एक तरफ भयंकर काला नाग और दूसरी तरफ समझने में आवे ऐसी उसकी कथनी होने पर भी द्विधा में पड़े हुए राजा बोले कि, भवधिज्ञानी तो देवयोनि के जीव होते हैं, अतः आप यदि देव है तो अपनी रक्षा स्वयं क्यों नहीं कर पाते हो ? अथवा इतनी भयानक आग में फँसने के पहले आपका अवधिज्ञान कहां चला गया था ? उत्तर में नागराज ने कहा, राजन् ! इस विकट समय में आप मुझे ज्यादा कुछ भी न पूछे क्योंकि प्राणी जव मृत्यु के मुख में पड़ चुका है, तो सबसे पहले उसको जीवित दान देना ही मानवीय कर्तव्य है, कृतकों का चक्र ही इतना ताकतवाला होता है, जिससे मेरे से भी ज्यादा शक्तिसंपन्न इन्सान भी किंकर्तव्यमूढ़ बन जाता है या उस समय उसकी स्मृति, जानकारी, होशियारी आदि सबके सब एक ही साथ समाप्त हो जाते हैं / मेरी भी यही दशा होने पाई है, अतः अविलंब मुझे बचा लीजियेगा। 105 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष रुप से तो यह घटना सर्वथा निःशंक करुणा पात्र था फिर भी संसार की माया तथा उसका षड़यंत्र सबों के लिए सर्वथा परोक्ष रहने पाया है कारण कि, संसार की स्टेज पर जब सगा भाई भी दुश्मन से ज्यादा खतरनाक बन सकता है तो कृष्णकाय, भयंकरतम इस नागराज (काला सांप) का विश्वास क्या ? मैं स्वयं ही कर्मों के भारसे दबा हुआ हूँ, जिसका अंत कब होगा ? परमात्मा जाने ऐसी स्थिति में कदाच यह भी मेरा वैरी रहा तो? अथवा और कुछ प्रपंच उपस्थित हो गया तो ? इस प्रकार के विचार आये भी और गये भी क्योंकि भूत तथा भविष्य काल के भले बुरे विचार करने का काम दयालु, परोपकारी तथा मानवतावादी इन्सान का नहीं होता है, और कदाच विचार करके पैर रखे जाय तो भी कृतकर्मो का भगतान तो सर्वथा अनिवार्य है, मेरे भाग्य में यदि राज्यभ्रष्टता तथा धर्मपत्नी के वियोग के उपरांत जो कष्ट भुगतने है, वे तो हर हालत में भी भुगतने ही पड़ेंगे तो फिर जीवमात्र को अभयदान देने के प्रसंग पर आगे पीछे का सोचना सर्वथा निरर्थक है। यह समझकर राजाजीने सांप को बचाने का निर्णय कर ही लिया, परंतु स्वयं के पास कपड़े के अर्ध टुकड़े से ज्यादा कुछ भी नहीं था, अथवा परोपकारी आत्मा अपने शरीर की भी परवाह करने वाले नहीं होते हैं। बचे बचाये उतरीय वस्त्र का मोह रखकर अभयदानरुप परोपकार जैसे मानवीय कृत्यों से किनारा करना भी कायरों का अथवा अधोगामी जीवात्माओं का कर्तव्य है / ऐसा सोचकर अपने उतरीय वस्त्र के अर्ध टुकड़ेमें से आधा भाग फाड़ दिया और उसके एक किनारे (छेड़े) को वृक्ष की डाल पर उसप्रकार से बांधा, जिससे लटकते हुए दूसरे किनारे का सहारा लेकर वृक्ष की डाल पर सर्प आसानी से आ सके / ' भयग्रस्त सर्प ने उसी प्रकार किया और कुछ ऊपर आ गया, परंतु वृक्ष की डाल तक आने में समर्थ नहीं बना तब दनालु राजा स्वयं वृक्ष पर आरूढ़ होकर डाल से संलग्न वस्त्र को पकड़ा और सावधानी 106 P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से नीचे उतरकर जिसतरफ आग का भय नहीं था उस तरफ जाकर वस्त्र को झटका देने को तैयार हुए, परंतु अनुभवी ज्ञानिओं ने कहा कि, संसार में हर किसी इन्सान के पेट की बातें जानना सरल हो सकता है, तथापि कुदरत के पेट की वातें जानना संसार के ज्योतिषीओं का समुदाय भी समर्थ नहीं है। होनहार वलवान था जभी तो सर्प ने अपनी पूर्ण शक्ति से नलराजा के हाथपर जोर से डसा (डंख मारा) नल ने भी कपड़े को जोर से झटक दिया और सर्प जभीन से नीचे गिरा। - नलराजा ने कहा, 'हे कृतघ्नों में शिरोमणि तुमने अपनी जाति के समान ही मेरे साथ बर्ताव किया है / मृत्यु के मुख से मैंने तुम्हें बचाया और जीवनदान दिया है, फिर मेरा उपकार मानना तो दूर रहा किन्तु पापी प्राणी भी या राक्षस भी न कर सके वैसा तुमने किया है / अथवा तुम्हारी जाति का यही बड़ा भारी दूषण है, जो तुम्हे दूध पिलाता है. उसी को तुम डंख मारते ही, इसीलिए धर्मसूत्रकारों ने तुम्हें अदृष्ट कल्याणी कहा है / तुम्हारे दर्शनमात्र से इन्सान की नींद भी हराम हो जाती है / अगणित तिर्यचयोनि के जीव जिसमें नकुल. मयुर, वन्दर आदि है तुम्हारी जाति के कट्टर दुश्मन है और मनुष्य तो डंडों से मारमारकर या आग में फेंक कर जला देनेवाले हैं। . विषधर के विष की असर नलराजा के शरीर में बढ़ रही थी, फलस्वरुप उनके शरीर में अस्तिनीय तथा अकल्पनीय फेरफार इस प्रकार हुआ। 1) गौर बदन कोयलेसे जैसा श्याम हो गया। २)श्याम बाल अग्निज्वाला से पीले पड़ गये। ____3) दर्शनीय शरीर धनुष के समान झुक गया। ___4) लाल तथा सुहावने ओठ (ओष्ठ) ऊंट के समान लटकने वाले बन गये। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5) महादरिद्र इन्सान के जैसा पेट ढोल सा हो गया। 6) शरीर के प्रत्येक अंग और उपांग अदर्शनीय बने / 7) आंखें कोड़ी के समान भयानक बनी। शरीर की दशा को इसप्रकार देखकर राजाजी खुब चिन्तित बन गये और बच्चे की तरह रोने लगे, खूब रोये / मस्तक पकड़-पकड़कर रोये, तथा पश्चाताप करते हुए बोले कि, परमदयालु, जगदीश्वर, देवाधिदेव, अरिहंत परमात्माओं ने इन्सानों को सुखी बनाने के लिए ही सात व्यसनों को सर्वथा त्याज्य बतलाया हैं / सीमातीत जुएँ के पाप से आज मेरी यह दशा प्रत्यक्ष है, दक्षिणार्ध भारत का शहनशाह था और आज कहीं पर खड़ा रहने लायक भी नहीं रहा / परस्त्रीगामी और वेश्यागामी बने हुए असंख्यात मनुष्यो ने अपने जीवन का यश रुप, धन, दौलत, मानमरतबा, ज्ञान, विज्ञान तथा बुद्धि का सर्वथा या त्रमशः देवाला निकालकर खानदान में कालिमा लगानेवाले बने हुए है / शराव, अफीम, भांग के नशे में जीवनयापन करते हुए श्रीमंत और सत्ताधारी नष्ट बुद्धिवाले होते हुए अपने माता, पिता तथा अपने संतानो के भी श्रद्धापात्र रहने नहीं पाये / इस प्रकार नलराजा पश्चाताप के मारे अत्यन्त दुःखी बनकर विचारने लगे कि, अब मुझे जीवित रहने से भी क्या फायदा? तो क्या मरण के शरण बन जाऊँ ? ऐसा होने पर भी मेरी आत्मा को कुछ भी फायदा होनेवाला नहीं है, क्योंकि मरने पर शरीर का नाश अवश्य होगा, परंतु मोह, माया, काम तथा क्रोध से वशीभूत बनकर किये हुएअगणित पापकर्मों का भार तो मेरे मस्तक पर से दूर होनेवाला नहीं है। इससे अच्छा तो यही है कि तपश्चर्या रुपी अग्नि में संपूर्ण पापकर्मों का नाश करानेवाले और जीवमात्र को पापोसे मुक्ति देनेवाले, अरिहंत परमात्मा की प्रवज्या (दीक्षा) धर्म स्वीकार करके तपश्चर्या की आग में मैं मेरे पापकर्मों को नाश कर Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लूं / इस प्रकार का निर्णय कर नलराजा दीक्षा लेने के कृतनिश्चयी बने। तब नागराज ने अपनी देवमाया से कद्पे शरीर को बदलकर तेजस्वी रुप में देव के समान बने हुए वे नलराजा के सामने उपस्थित होकर बोले, राजन् ! किसी भी प्रकार का दुःख मन में लाने की आवश्यकता नहीं है / मैं तुम्हारा निषध नाम का पिता हूँ। तुम्हे राज्य कारभार सुपर्द कर मैंने दीक्षा ली थी / उसी संयम धर्म के प्रभाव से मैं पांचवें ह्मिदेवलोक में देव बना हूँ / पुत्र ! अरिहंतों के समिति गुप्ति धर्म का यही प्रभाव है कि, चाहे वह दो घड़ी की सामायिक हो अथवा वज्जीव का संयम हो यदि मन-वचन तथा काया की एकाग्रता पूर्वक उसे पाला जाय तो देवयोनि निश्चित है। वहां के आश्चर्योत्पादक भवविलास को प्राप्त करके मुझे बड़ा भारी आश्चर्य हुआ, और तोचने लगा कि, पूर्वरुप में मैंने कौन सा सत्कार्य किया था ? जिससे मनुष्य लोक में सर्वथा अप्राप्य इन विलासों को मैं प्राप्त कर सका हूँ। तव अवधिज्ञान का उपयोग रखा और मालुम हुआ कि, यह सब अरिहंत परमात्माओं से प्ररुपित संयम का प्रभाव है। मुझे आनन्द का पार नहीं रहा, तब मेरे मन वचन काया अरिहंतों के चरण में झुक गये। तदन्तर मेरी ज्ञानदृष्टि तुम्हारे पर पड़ते ही बड़ा दुःख हुआ, साथ-साथ इतना भी जान सका कि बराबर बारह वर्षों की अवधि तक तुम्हें इन दुःखों को भुगतना है / तुम्हारे जैसे न्यायनिष्ठ तथा सत्यवादी के ऊपर इतने लंबे काल तक दुःख क्यों ? ऐसा विचार करने पर तुम्हारे 5-6 भव मेंरे ज्ञान में आते ही समझने में आया कि, एक भव में पत्नी सहित तुमने पंचमहाव्रतधारी, जीवमात्र का कल्याण करनेवाले जिनके दर्शन मात्र से पापों का नाश होता है, वैसे परमपवित्र मुनिराज को सताया था, अपमान किया था, गंदे शब्दों से उनका तिरस्कार किया था और उनके धर्मध्यान में अन्तराय किया था, जिनके कारण वह पाप इस भव P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में उदय में आया और तुम्हें राज्यभ्रष्ट होना पड़ा, धर्मपत्नी दमयंती का चिरवियोग भाग्य में स्हा / ... स्नेहवश तुम्हारे दुःखों के दिनों में मैं भी तुम्हे कुछ सहायक बन सकूँ, इसी विचार से मैंने स्वयं अग्निज्वाला में जलते हुए सर्प का रुप लिया और बचाने के लिए तुम्हें आग्रह किया, तब तुमने मुझे बचाया और मेरे डसने से तुम सर्वथा विरुप बन गये तत्काल में तो, रक्त निकलते घाव पर डाले हुए नमक जैसा दुःख तुम्हें हो रहा है परंतु यह सब बुखार आदि दर्द में जिसप्रकार कटु औषध भी सहायक बनता है, उसी प्रकार मेरे द्वारा की हुई तुम्हारे शरीर की कुरुपत. भी समझ लेना / जिस समय समग्र भारत देश पर तुम राज्य करते थे तब तुम्हारे प्रभाव से सब राजा महाराजा तुमारी सेवा में खड़े पैर तैयार रहते थे, पुत्र! इस संसार का अटल नियम है कि, सुख के दिनों मे सबों की सहायता सुलभ है, उस समय दुश्मन भी मित्र बनकर रहता है, परंतु दुःख, विपत्ति तथा खराब दिनों में, मित्र, भाई तथा दास दासी भी पक्के दुश्मन बन जाते हैं / तुमारी इस दुःखी अवस्था को देखकर दूसरे तुमको पहचान कर कुछ भी उपद्रव न करे तुम्हे हैरान परेशान न करे यह सोचकर मैंने जान बुझकर तुमारे हित के लिए ही माया की रचना की है, जिससे तुम किसी की भी पहचान में न आ सको, इतना ही मेरा उद्देश्य है / इसलिए दुःखी बनना छोड़ दो, तथा दुखों से घबराकर संयम मार्ग स्वीकार करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि "दुख के बाद है सुख की बारी धूप के बाद है छाया" संसार की स्टेज पर बारह वर्ष तो देखते-देखते समाप्त हो जायेंगे तदन्तर राजवैभव तथा दमयंती के साथ का संसार विलास तुमारे भाग्य में आने वाले चिरकाल पर्यन्त लिखा हुआ है अत: भविष्य में आनेवाले भोगावली कर्मों को ख्याल रखकर तथा वर्तमानकालीन दुखों से भयग्रस्त बनकर संयम लेने की शीघ्रता करना भी बेकार है / फिर भी उन सुखों में तुम अपनी सुध-बुध न गमा दो तदर्थ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं तुम्हें समय-समय पर सावधान करता रहुंगा और जव दीक्षा लेने का समय उपस्थित होगा तब तुम्हे जागृत करूँगा। उपरोक्त बाते करने के बाद उस देवने कहा, पुत्र ! यह श्रीफल (नारियल) तथा मंजुषा को तुम ग्रहण करो तथा अपने प्राणों के तुल्य उसकी रक्षा करना / सावनानी पूर्वक रहना। अरिहंत परमात्माओं को भूलना मत और जब तुम्हे यह विश्वास हो जाय कि, अब प्रकट होने में कुछ भी भय नहीं है तब श्रीफल को तोड़ देना जिसमें से देवदूष्यादि वस्त्रों की प्राप्ति होगी और मंजुषा में से आभूषण मिलेगे, जिसका परिधान करने पर तुम अपने असली स्वरुप में पुनः आ जाओगे / नलराजा को बड़ा आनंद हुआ / देव को कृतज्ञतापूर्वक नमस्कार किया, तथा अनजान में जो भी कटु वचन कहे थे उसकी माफी मांग कर बोले कि, देव ! तुम्हारी पुत्रवधु दमयंती इस समय कहां पर है ? जिस वटवृक्ष के नीचे मैंने उसे त्याग दिया था तो क्या अभी वहीं पर है या अन्यत्र चली गई है ? उत्तर में देव ने दमयंती का सव वृतांत सुनाया और कहा, समय आनेपर वह अपने पिता के घर पर सुखपूर्वक चली जायेगी। अतः उसकी चिंता किये बिना आप अपने दुःखमय समय में सावधान रहना / देव ने फिरसे कहा, वत्स ! इस भयंकर वन में दुःखी बनने की अपेक्षा तुम जहां पर भी जाना चाहो वहीं तुम्हे पहुंचा दूं तब नल ने सुसुमार नगर में जाने की इच्छा व्यक्त की और देव ने राजाजी को उस नगर की सीमा मे छोड़ दिया और स्वयं अपने देवलोक में गये। कुब्ज (वामन) के रुप में सर्वथा कद्रुप शरीरधारी नलराजा सुसुमारनगर के बाहर नंदनवन के सदृश बगीचे में इधर उधर फिरते हुए उनकी नजर सिद्धायतन के समान, अत्यन्त रमणीय एक चैत्य - (जिनेश्वर परमात्मा के मंदिर) पर पड़ी और खुशी के मारे मंदिर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में प्रविष्ट हुए, जहां पर इक्वीसवें नमिनाथ परमात्मा की भव्यातिभव्य मूर्ति स्थापित थी / कुब्ज ने श्रद्धापूर्वक नतमस्तक होकर बड़े आदर से परमात्मा को वन्दन किया, नमन किया तथा जाप-ध्यान किया। के लोगस्स सूत्र के माध्यम से 24 तीर्थकरों की नामपूर्वक नमस्कार करना नामनिक्षेप कहा जाता है / / तीर्थकर परमात्मा के विरह में उनकी मूर्ति भी अर्हत्स्वरुप ही है, अतः प्रतिमाओं का जल, चंदन, पुष्प, दीप, धूप आदि उत्तमोत्तम द्रव्यों से पूजन करना तथा उनके सन्मुख एकाग्र होकर ध्यान तथा जाप करना स्थापना निक्षेप कहा जाता है। ___ भविष्य में होनेवाले तथा भूतकाल में हुए तीर्थकरों की स्तुति करना द्रव्य निक्षेप है। तथा विद्यमान तीर्थकरों को नमन, गुणस्तवन आदि करना भावनिक्षेप है / ये चारों निक्षेप उत्तरोत्तर बलवान होने से साधक के मन, वचन तथा काया को पवित्र करनेवाले हैं / क्योकि नाम लेकर गुणगान करने में जो मजा आता है उससे ज्यादा आनंद मूर्ति के सन्मुख एकाग्र होकर ध्यान करने में आता है। इसमें इन्सान मात्र का स्वानुभव ही साक्षी दे रहा है, द्रव्य निक्षेप में अरिहंत परमात्मा के गुण तथा अपनी आत्मा भी परमात्मास्वरुप कैसे बनने पावे ? ये ख्याल आते ही साधक आनंदविभोर वन जाता है / भावनिक्षेप द्वारा किया हुआ स्तवन पूजन नमन आदि. सब के सब सदनुष्ठान होने से व्यक्ति विशेष के लिए भी स्वीकार्य है। कुब्ज ने पूजन, नमन पूर्ण किया और मंदिर से बाहर आया सुसुमारनगर की देखने के इरादे से नगर के मुख्य द्वार पर आया और नगर की रोनक देखकर खुश हुआ। इस नगरी का राजा दधिवर्ण था, जो इन्द्रियो के भोगविलास का शौकिन, मन का अनियंत्रित तथा संसार की नश्वर माया को बढ़ाने में तथा उसके भुगतान में ही जीवनयापन कर रहा था, तथापि राज्य 112 P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवस्था में किसी भी प्रकार की गड़बड़ न होने पावे एतदर्थ सावधान था / एक दिन हस्तिशाला का राजमान्य हाथी मदोन्मत बना, तथा सांकल के बंधन को तोड़ फोड़कर नगर की तरफ आ रहा था, सामने आये हुए वृक्षों को तथा छोटे, कच्चे मकानों को नष्टभ्रष्ट करता हुआ स्वच्छंद घूम रहा था, महावतों की परवाह किये विना नगरवासीयों के लिए भयप्रद बना इसलिए उसे वश में करने के लिए बुद्धि वैभव मंत्री भी निष्फल रहे, शस्त्रधारी सैनिकों ने हार खाई और त्रस्त प्रजा इधर-उधर जान बचाने के लिए भागने लगी / ऐसी परिस्थिति में सुरा (शराब) सुन्दरी (परस्त्री या वेश्या) तथा शिकार के गुलाम बने हुए राजाजी वेिचारे क्या कर सकते थे। 1. प्रथम तीर्थकर, प्रथम मुनि तथा भारत देश के प्रथम राजा ऋषभदेव से शासित अयोध्या नगरी तथा दूसरे देशों के राजा-महाराजा जबतक जैनाचार्यों के अहिंसा, संयम तथा तपोधर्म की मर्यादा में शासित तथा श्रद्धा संपन्न थे, तब तक राजाओं में राजधर्म, नूपतियों में नृपतिधर्म, भूमिपतियों में भूमिपति धर्म के उपरांत उनकी नसों में, रक्त में मांस, में क्षात्रतेज था, आंखों में चमक थी, मस्तिष्क शीतल होने से दयालु थे / प्रजा से थोड़ा लेकर उनके योगक्षेम की रक्षा चौगुनी करने वाले थे, अत: सैनिकों की मदद के बिना दूसरों के लिए कठिनतम कार्य भी उसके बांये हाथ के खेल जैसा सरल बन जाता था परंतु धर्म के नाम पर बने हुए संप्रदायों के कारण भारत देश की यह करूणता रही कि, धर्म तथा धार्मिकता का क्रमशः उपहास होता गया और उसके स्थान पर धर्मान्धता बढ़ती गई, फलस्वरुप पांडित्य गविष्ट पंडितों ने राजाओं के मन, बुद्धि तथा आत्मा को धार्मिकता से भ्रष्ट करके सुरा सुन्दरी तथा शिकार जैसे जघन्यपापो के मार्ग पर चढ़ा दिये और दिन प्रतिदिन राजाओ का क्षात्रतेज घटता गया, आन्तर जीवन सत्य तथा सदाचार से पतित होकर निस्तेज बनता गया, यही कारण 113 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था कि, पशु को भी वश में करने की शक्ति उनमें रहने न पाई / वृद्धों ने भी कहा है कि, जिस कुटुंब का अग्रेसर, समाज का नायक, देश का अधिनायक, उपरांत शिक्षक, प्रोफेसर, प्रिन्सीपल, सेना, सेनापति, फौजदार तथा राज्य का कर्मचारी यदि शराबी है तो समझना सरल होगा कि प्रकारान्तर से देश को, समाज को तथा कुटुंब को बर्बाद, गुलाम या भूखे मरने का ही शेष रहेगा। परमदयालु परमात्मा कुएँ में, वाव में, वर्षात में, अमृत-सा पानी तथा गाय, भैंस, बकरी और स्त्री के स्तनों में इन्सान मात्र का रुष्ट पुष्ट करानेवाला दूध दिया है, जब शैतान के सड़े हुए मस्तिष्क स उत्पादित शराब ईश्वरीय नहीं होने से त्याज्य है, सर्वथा त्याज्य हैं। ईश्वर का भक्त या ईश्वरीय तत्व की चर्चा करनेवाला इन्सान पानी तथा दूध पीने वाला होगा, जब शराबी इन्सान हर हालत में भी परमात्मा का, धार्मिकता का, खानदान का तथा अपनी आत्मा का आशीर्वाद भी प्राप्त करने में सफल होता नहीं है। इस नगरी का दधिपर्ण राजा शरावी होने के कारण निस्तेज था, इसी कारण से अपने महल पर चढ़ कर. उद्घोषणा करते हुए बोले कि, जो भी इन्सान इस हाथी को वश में करेगा और हस्तिशाला में लाकर वांधेगा उसे उसकी इच्छानुसार द्रव्य दिया जायेगा अतः मेरे राज्य में जो भी वहादुर हो वह इस हाथी को वश करे। नगरवासीयों ने, सिपाहियों ने, मंत्रीओं ने तथा उस कुब्ज ने भी राजा की यह घोषणा सुनी। कुब्ज को छोड़कर शेष सभी किंकर्तव्यमूढ़ होने से लाचार थे, जब कुब्ज सबों के मध्य में आकर बोला, हाथी कहां पर है ? मुझे उधर ले चलो ? भैंस के सामने उस पशु को वश करने में समर्थ हूँ। तत्पश्चात् वह कुब्ज जिस मार्ग में हाथी था उसी तरफ गया और मन्दोन्मत हाथी भी कुब्ज को अपना प्रतिस्पर्धी मान कर तूफान मचाना चालू करता है 114 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुब्ज बड़ी चालाकी से हाथी के सामने आया। दया भाव से जनता में से आवाज आई, अरे कुब्ज ! दूर हट, विना मौत मत मर, हाथी तुझे चिर डालेगा। परन्तु इन बातों को सुनने के लिए कुब्ज के पास कान नहीं थे। कुब्ज के आकार में ये नलराजा ही थे, अतः कर्मों के उदयकाल को भुगतना सर्वथा अनिवार्य समझकर अपनी शक्ति का परिचय देने के इरादे से गजराज के सन्मुख कुब्ज आ गया, तब उसने अपनी सूंढ को इधर उधर घुमाई और कुब्ज भी उसके सामने कभी इधर लेटा, कभी उचर फिरा, कभी हाथी के पूंछ की तरफ वुमा, इस प्रकार बड़ी चालाकी से हाथी की सूंढ से बचकर उस पशु को चारो तरफ घुमा-घुमाकर थकने जैसी स्थिति में उसको ला दिया। समयज्ञ कुब्ज ने उसकी पूंछ को जोर से पकड़ ली और इधर उधर घुमाते हुये, उस हाथी को पूर्ण रुप से परेशान कर दिया / तदन्तर कुछ समय के पश्चात् उसके सामने वस्त्र का एक टुकड़ा फेंका थोड़ी देर के बाद दूसरी तरफ फेंका, थोड़ी देर के वाद तिसरी तरफ फेंका / हाथी की परेशानी सीमातीत हो चुकी थी। यह सब चालाकी का तमाशा, राजा मंत्री, सैनिक तथा हजारों की संख्या में जनता देख रही थी, सबों को इतना विश्वास तो हो चुका था कि, इस मदोन्मत हाथी को यह कुब्ज वश कर लेगा, ताली बजाती हुई जनता देख ही रही थी तब यह कब्ज हाथी को मालुम भी न पड़ें इसप्रकार रस्सी को पकड़कर हाथी के मस्तक पर आरुढ़ हो गया और दोनों तरफ के गंडस्थल (कान के आसपास) पर जोर से एड़ी मारी अर्थात् अपने पैरों को टकराया तथा अंकुश भी मारा / चिल्लाता हुआ हाथी सर्वथा परवश बन चुका था, तदन्तर हस्तिशाला में हाथी को लाया और सांकल से बांधा फिर रस्सी पकड़कर नीचे उतरकर वह कुब्ज राजा को प्रणाम करके संकेतित आसन पर आसीन हुआ / राजा, मंत्री तथा नगरवासियों ने स्वागत पूर्वक प्रशंसा की तथा अपने-अपने मन में विचारने लगे कि, जिस 115 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्य को सैनिको के शस्त्रो ने, मंत्रीओ की बुद्धिने तथा राजा के राजतेज ने भी नहीं किया उसे चंद समय में ही इस कुब्ज ने कर दिखलाया। भगवान जाने / यह कुब्ज है ? या इसके शरीर में कोई देव है ? या पुण्याधिक छद्मवेशी दूसरे देश का कोई राजा है ? क्योकि इसके शरीर को तथा इसकी चाल को देखकर मदोन्मत हाथी को वश में करने का दैवत अनुमानित नहीं होता है। इस प्रकार विचारती हुई प्रजा चुप हो गई और आगे क्या बनता है, उसे देखने तथा सुनने के लिए तैयार बन गई। राजाजी ने मिस्टालाप पूर्वक कहा कि, हे भाग्यवान् तुम्हारे इस शरीर में किसी पुण्यवंत की आत्मा होने में कुछ भी शंका नहीं है,क्योकि इस मूडदाल तथा हास्योत्पादक शरीर में हाथी को वश में करने का शवित का होना असंभव है, फिर भी तुमने जो उपकार हमारे पर किया है, वह आनंदप्रद है / राजाजी ने विवेकपूर्वक पुनः पूला कि, ' हे कुब्ज !' जिस प्रकार इस पशु को तुमने वश में किया है उसी प्रकार की दूसरी कला भी तुम जानते हो क्या ? क्योकि जिस जबरदस्त शक्ति का परिचय तुमने दिया उसी से अनुमान होता है कि और भी अद्वितीय कलाएँ तुम्हारे में हो सकती है, तो कहीयेगा, आप और भी कुछ जानते हैं क्या ? तब मूंछो में हँसते हुए कुब्ज ने कहा राजन् ! सूर्यनारायण के मंत्रजाप से तथा धूप के माध्यम से सूर्यपाक नाम की रसवंती (भोजन) वनाने की कला में अच्छी तरह से जानता हूँ क्या आप उस कला को देखना चाहने हैं ? .. दिव्य रसवती को जीमने का कुतुहली राजा महल में आया और चावल, दूध, शक्कर तथा बर्तन आदि दिये तब कुब्ज ने उन सब द्रव्या को धूप में रखकर सूर्यमंत्र का जाप करने लगा और चंद समय में ही खीर बन गई, तब राजारानी आदि सभी ने उस दिव्यस्वाद संपन्न खीर का भोजन कर अति संतुष्ट हुए। उसे अपने अंगत महल में ले 116 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाकर पूछा कि, 'हे कुब्ज !' जिस रसवती को तुमने तैयार की उसे नलराजा के सिवाय दूसरा कोई भी जानता नहीं है, क्योंकि मैं उनकी सेवा में रहा हुआ होने से उनके हाथ की रसवती को मैंने बहुत सी बार खाया है, इससे अनुमान लगता है कि, कुब्ज के रुप में तुम कदाच नलराजा हो अथवा देवों के रुप का भी तिरस्कार करनेवाला तथा अद्वितीय पराक्रमी नलराजा को इसप्रकार का रुपांतर करने का प्रयोजन भी महसूस नहीं होता है। कदाच कुतुहलवश रुपांतर कर ले तो भी उनका एकाकी आना संभवित नहीं है / मैंने कितनी दफे नलराजा को तथा उसके वैभव और पराक्रम को प्रत्यक्ष किया है। इस प्रकार पूछने पर भी कुब्ज ने प्रत्युत्तर नहीं दिया / तदन्तर दधिपर्ण राजाने कुब्ज को सुन्दर वस्त्र, आभूषण, एक लाख सुवर्ण मोहरें तथा पाँचसौ गांव वक्षीस में दिये, परंतु कुब्ज ने गांवों के अतिरिक्त शेष ग्रहण किया, राजाजी को बड़ा भारी आश्चर्य इसलिए हुआ कि, इन्सान एक इंच जमीन के खातिर भी लड़ पड़ता है, जब यह कुब्ज इतनी बड़ी जागीर को ग्रहण भी नहीं करता है, शायद ! पांचसौ गांव कम पड़ने होंगे ? अतः राजा ने कहा कि, 'कुब्ज!' तुम्हारे उपकार के बदले में मैं पांचसौ गांव तुम्हें दे रहा हूँ जिसके जागिरदार वनकर श्वासपर्यन्त मौज करो फिरभी लेने से इन्कार क्यों कर रहे हो? क्या इससे भी ज्यादा चाहिए ? या और कुछ मांगना हो तो भी मांग सकते हो ? कुब्ज ने कहा, राजन् ? यदि प्रसन्नता पूर्वक यह वरदान हो तो कृपया में जो भी मांगु उसे दीजियेगा। राजा ने बात को मान्य रखी / तब कुब्ज ने कहा राजन् ! मेरी याचना है कि, आप अपने राज्य की सीमा पर्यन्त शराबपान, मांसाहार, शिकार व जुगार आदि पर प्रतिबंध करवाने की आज्ञा प्रसारित करे जिससे मेरी सेवा का फलितार्थ मुझे प्राप्त होगा। * राजन् ! किसी भी देश की प्रजा, व्यापारी, महिलाएँ तथा वानप्रस्थी और साधु संस्था की रक्षा, राजाओं, सैनिकों तथा राज्यकर्मचारी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर रही हुई होने से उनको उपरोक्त दूषणों से दूर रहना ही राजधर्म है / अपने कर्तव्य धर्म को सच्चाईपूर्वक पूर्ण करना ही ईश्वर के आशीर्वाद प्राप्त करने का लक्षण है, राजाजी! आलिशान किमती पत्थरों से निर्मित मंदिर में चाहे सुवर्ण, हीरा तथा चांदी की मूर्ति हो तो भी उनकी भक्ति, पूजा तथा आराधना का फल यही है कि, मानव मात्र परमात्माओं की आज्ञा अपने जीवन में उतारकर सच्चे अर्थ में इन्सान बनने पावे / शरावपान करने में ईश्वर की आज्ञा हरहालत में भी नहीं है, बल्कि शाप है, महाशाप है, अतः आप श्रीमान अपने राज्य की सीमा तक, दुर्गति, दुःख, दारिद्रय तथा आधिव्याधि और उपाधि को देने वाले तथा बढाने वाले शराब पर प्रतिबंध लगाकर संसार भर में होनेवाले पापकर्म तथा असत्कर्मों के मौलिक कारण को ही. समाप्त करने का यश प्राप्त करें / कुब्ज की बातें सुनकर राजा, मंत्रीयों तथा शेठ-साहुकारों की खुशी का पार न रहा / उसी समय राजाजी ने अपनी सीमा तक शराब, जुगार तथा शिकार पर प्रतिबंध की आज्ञा प्रसारित करवा दी। ___ एक दिन दधिपर्ण राजा ने कुब्ज से साग्रह पूछा कि, तुम कौन हो ? कहां के रहवासी हो ? पर्यटन करने का कारण क्या ? जवाब देते हुए कुब्ज ने कहा, 'राजन् !' में कौशलदेश के राजाधिराज नल का रसोईया (Cook man) था, हुँडक नाम से मैं जाना जाता था, मेरी चालाकी और वफादारी को देखकर राजाजी ने मुझे बहुत-सी कलाएँ सिखलाई है / परंतु कर्म संयोग की बात है कि, अपने छोटे भाई कूबर के साथ जुआ खेलने में दमयंती सहित सब कुछ हार गये, तब दमयंती को लेकर नलराजा को वनवास स्वीकार करना पड़ा, इतना कहकर कुब्ज को रोना आ गया, वह जोर-जोर से रोया / उसके बाद उसने आगे की बातें कही कि अरण्य में नलराजा जब प्रविष्ट हुए तब अकस्मात ही उनकी मृत्यु हुई मेरे शोक संताप का पार न रहा। परंतु 118 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होनहार के आगे मैं कर भी क्या सकता था। शठ, मायावी तथा विश्वासघाती कूबर के पास जाने की अपेक्षा भीख मांगकर खाना ज्यादा अच्छा है, इतना विचार करने के बाद मैं जंगल में आगे बढ़ा और आप श्रीमान के शरण में भाग्यवश में उपस्थित हुआ / कुब्ज की ये वाते सुनकर दधिपर्ण राजा को बड़ा भारी दुःख हुआ, प्रेतकार्य सम्पन्न कर, श्रद्धांजली को अर्पित की। एक दिन दधिपर्ण राजा ने अपने राजदूत को कार्यवश भीमराजा के पास भेजा / सस्वागत सुखपृच्छा पूर्वक आने का कारण पूछा तथा और भी कोई नूतन समाचार हो तो सुनाओ। तब दूत ने नलराजा के नास रहे हुये रसोईए का जिक्र किया, विशेष में इतना भी कहा कि, वह सूर्यपाक भोजन बनाने में बड़ा भारी काविल है / दमयंती जो अपने पिता के पास आसीन थी उसने कहा, 'पूज्य पिताजी !' इस संसार में सूर्यपाक अर्थात सूर्य के मंत्रजाप से धूप में रखे हुए चावल, दुध आदि पदार्थों को पकाने का कार्य आपके जमाई (नलराजा) को छोड़कर दूसरा कोई भी जानता नहीं है, अतः आप किसी होशियार दूत को वहां पर भिजवाकर उनका तपास करवाये कि, वह कुब्ज कौन है ? कदाच आपके जमाई ने ही अपना छद्मवेश बना लिया हो ? दमयंती की बात सुनकर भीमराजाने अपने कुशल नाम के वृद्ध दूत को बुलाया और सब वातें समझाकर दधिपर्ण राजा के यहां भेजा और कहा कि, कुब्ज के साथ सावधानी से बात कर जानने का प्रयत्न करना कि वस्तुत: वह कौन है ? दूत ने आदेश स्वीकार किया और अच्छे शकुनों को लेकर सुसुमारपुर नगर तरफ प्रस्थान किया। राजा से मिलकर कुब्ज से मिला, सूक्ष्म दृष्टि से देखा , लंबे समय तक उसकी चेष्टाएँ जानने का प्रयत्न किया, परंतु वह कुछ भी निर्णय करने में समर्थ नहीं बना कि, इस कुब्ज का यह रुप स्वाभाविक है या बनावटी ? तब उसे बड़ा विषाद हुआ और सोचने लगा कि, रुप-रंग का सागर नल कहां ? और . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Trust 119 Jun Gun Aaradhak Trust Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह कुब्ज कहां ? आकाश और पाताल का अन्तर साफ-साफ दिख रहा है, अतः दमयंती को इसमें नल की भ्रान्ति होना सर्वथा वृथा है। फिर भी एकवार और परीक्षा करने के इरादे से उस दूत ने पुनःपुन: निम्न लिखीत उच्चारण किया। वह इस प्रकार - (1) निर्दय, निर्लज्ज,सत्वरहित तथा दुर्जनों की धुरा को वहन करनेवाले उस नलराजा को धिवकार है, धिक्कार है, जिसने सती शिरोमणी दमयंती जैसी धर्मपत्नी का त्याग किया / (2) एकाकिनी, भोलीभाली, पवित्र हृदयवाली तथा पति के प्रति पूर्ण विश्वासु और भरनिद्रा में सोई हुई उस सती को छोड़ने का उत्साह नल को कैसे हुआ ? इसीसे विदित होता है कि, इस संसार में नल सा मूर्ख दूसरा कौन ? वारंवार उच्चारित इन शब्दों को सुनकर अपनी पत्नी की स्मृति होने पर कुब्ज रोने लगा, खूब रोया / तब ब्राह्मण दूत ने पूछा कि, 'कुब्ज !' तुम क्यों रो रहे हो ? कुब्ज ने कहा तुम्हारे करूणापूर्ण वचनों को सुनकर मुझे रोना आ गया है। वह नलराजा कौन है ? तव दूत ने जुगार से लेकर नल की कथा सुनाई / विशेष में कहा कि, सुसुमारपुर नगर के दधिपर्ण राजा के दूत ने भीमराजा से कहा कि, हमारे यहां हुंडक नाम का कुब्ज आया है, जिसने हाथी को आंखों की पलक में वश किया और सूर्यपाक रसोई भी आसानी से बना सकता है। तब दमयंतीने अपने पिता भीमराज से कहा, 'पूज्यपिताजी !' निश्चित ही वह नल होना चाहिए, आप उनकी तपास करवाने हेत किसी चालाक से चालाक आदमी को वहां पर भेजियेगा। तब राजाजी ने मुझे आज्ञा दी और आया, परंतु तुम्हें देखकर मेरा सब गुड़ गोबर हो गया है, क्योंकि देवस्वरुप नल कहां ? और आदर्शनीय आकृतिवाले तुन कहां ? यद्यपि वहां से निकलने पर शकुन भी अच्छे हुए थे, तो क्या मेरी नजर में या शकुन शास्त्र में कुछ भूल हुई है, परमात्मा जाने क्या तथ्य है ? हताश हुए दूत की बाते सुनकर तथा दमयंती की स्मृति 120 P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो जाने पर रोते हुए कुब्ज ने कहा कि, विप्र !' आज तुमने जो नल. दमयंती का सुन्दरतम आख्यान कहा है अतः मुझे बड़ा भारी आनन्द हो रहा है तो आप कुछ समय के लिए मेरे स्थान पर पधारे जिससे मैं आपका स्वागत कर सकू, इतना कह कर कुव्ज खड़ा हुआ और दूत भी उसके पीछे चला और उतारे पर आये स्नान भोजन करवा कर उस कुब्ज ने दधिपर्ण राजा के दिये हुए वस्त्र आभूषण तथा लाखों रुपये उस ब्राह्मण दूत को बक्षिस में दिये और वह प्रसन्न होकर सीधा अपने देश तरफ आया, भीमराज से मिला सब वृतांत तथा कुब्ज के दिये हए वस्त्रादि को बतलाकर मौन हो गया / दान में मिले हुए पदार्थो को देखकर राजा प्रसन्न हुआ तथा दमयंती ज्यादा प्रसन्न होकर बोली, पताजी! चाहे तो आहार का दोष हो या कर्मों का दोष हो जिससे नलराजा कुब्ज बन गये हैं, क्योंकि हाथी को वश में करना, लाखों रुपयों का सर्वस्व दान देना तथा सूर्यपाक रसवती बनाना आदि कार्य आपके जमाई राज के सिवाय दूसरे किसी का हो नहीं सकता है / तथा नल ने किसी को भी सूर्यपाक का ज्ञान दिया हो वह सर्वथा अविश्वसनीय है। इसलिए आपसे मेरी करबद्ध प्रार्थना है कि किसी भी उपाय से उस कुब्ज को यहां पर बुलवा लीजियेगा जिससे मैं स्वयं उसकी परीक्षा कर सकेंगी / दमयंती की तथ्य तथा स्वीकार्य बात सुनकर प्रसन्नचित राजाजी ने कहा 'बेटी' कृतकर्मों का भुगतान चित्र विचित्र होने से तेरी वातें संभावित हो सकती है जिससे इन्सान मात्र का रुप. रंग स्वभाव तथा चाल चलन में आकाश पाताल का अंतर बन सकता है / दूसरी बात यह है कि, तुम्हारे वियोग के बारह वर्ष भी पूर्ण होने आ रहे हैं / सूर्यपाकादि, अद्वितीय कार्यों से मुझे भी अनुमानित होता है कि, वह कुब्ज नलराजा हो सकता है, अतः मैं सोच रहा हूँ कि, तेरे स्वयंवर का कल्पित बहाना लेकर दधिपर्ण राजा को आमंत्रित किया जाय क्योंकि - तेरे पर वह पहले ही से लुब्ध था, इसलिए स्वयंवर का नाम सुनकर - वह जरुर आयेगा / तथा कुब्ज को भी साथ में लाये बिना रहेगा नहीं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः बह कुब्ज यदि नलराजा ही होंगे तो स्वयंवर की बात सुनते ही उत्साहित होकर आयेंगे अतः आज चैत्र सुदि 3 है और स्वयंवर का मुहर्त पंचमी दिन का रखा जाय जिससे इतने लंबे मार्ग को कुछ ही घंटों में पार करना दधिपर्ण के वश की बात नहीं है, दूसरी बात यह है कि, अश्वों के हृदय को जानने में नलराजा ही समर्थ है इसलिए कुब्ज को साथ में लाना अनिवार्य है। भीमराजा की वात को दमयंती ने मान्य रखी और तत्काल ही दूत को सुसुमारपुर नगर को भेज दिया। सभा के बीच दूत ने कहा कि 'राजन् !' मेरी वृद्धावस्था होने के कारण ही मुझे आने में विलंब हुआ है, तो क्षमा करे हमारे राजाजी ने चैत्र सुदि 5 के दमयंती का स्वयंवर रखा है अतः आप जरुर पधारे / दूत की बात सुनकर राजा ने पूछा कि, कौन सा कारण है, जिससे दमयंती का स्वयंवर फिर से रखा गया है ? क्या नलराजा दिवंगत हुए हैं ? या और कुछ बनने पाया है। दूत ने कहा, 'प्रभो !' मुझे ज्यादा तो मालूम नहीं है, परंतु आपका अनुमान सत्य हो सकता है। राजा के पास आसीन हुए कुब्ज ने भी स्वयंवर की बातें सुनी और मनोमन खुश भी हुए क्योंकि जबतक मैं जीवित हूँ तबतक दमयंती दूसरे पुरुष को स्वप्न में भी नहीं ला सकती तथा मेरे मरजाने के बाद भी दूसरे से विवाहित बने यह असंभव है इससे मालूम होता है कि, स्वयंवर की कल्पना कृत्रिम है, केवल मेरी तपास करने का यह प्रपंच है। कुंडिनपुर यहां से 100 योजन की दूरी पर होने से चंद समय में वहां पर कैसे जाना ? इस चिंता के मारे दधिपर्ण राजा हाथ में मुंह रखकर उदासीन बैठे थे, तब कुब्ज ने पूछा, राजन् ! आपको ऐसी कौनसी चिंता सता रही है, जिससे अन्यमनस्क होकर आप गहरे चिंतन में डूब गये हैं ? तो सूचित कीजियेगा जिससे आप के नमक को खानेवाला मैं आपको चिंता मुक्त करने में सहायक बन सकुँ / तव राजाजी बोले, 'कुब्ज !' तुम 12P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानते ही हो कि नलराजा अब कथा शेष है, इसलिए दमयंती का पुनः स्वयंवरण कल का होने से मेरा जाना कैसे होगा ? और गये बिना भी चलता नहीं है क्योंकि दमयंती को धर्मपत्नी वनाना यह भी जीवन का आनन्द है। 1 मजाक, कुतूहल तथा असलियत को जानने में उत्साहित बने हुए कुब्ज ने कहा 'राजन् !' जव तक मेरे श्वासोश्वास चालू है तब तक आप किसी भी बात की चिंता न करे, मैं आपको थोड़े समय में ही कुँडिनपुर नगर की सीमा में पहुंचा सकने में पूर्ण समर्थ हूँ, केवल अश्वपाला में से दो घोड़े पसन्द कर मुखे समर्पित कीजियेगा। राजाने कहा, भैया !' तुम ही वहां पर जाकर अपनी पसन्दगी के घोड़ों को ले नाईए / कुन्ज अश्वशाला में गया और दो घोड़ों को पसंद कर बाहर लाये, और रथ में योजित किये / इस प्रकार के विरोचित कार्य को देखकर कुब्ज के बारे में पुनः शंकित हुए राजा ने सोचा कि, यह इन्सान देखने में भले ही कुब्जाकार है, परंतु इसकी आत्मा देव या विद्याधर की है अन्यथा तुफानी घोड़ों को भी वश में कर लेना वच्चों का खेल नही है। रथ को तैयारकर लेने के पश्चात कुब्ज बोला, 'राजाजी !' अव आप अविलंव रथ में बिराजिये जिससे मैं पवनवेग की गति से कुंडिनपुर नगर में पहुँचा दूं / राजाजी ने स्नान किया, मूल्यवान वेशपरिधान किया, हीरे मोती के आभूषणों से शरीर को सजाया समयसमय पर तैयार किये हुए पान को.देनेवाले आदमी को तथा छड़िदार और छत्रधारी आदमी को साथ में लिया और रथ पर आरुढ हुए। कुब्ज ने घोड़ों के शरीर पर प्यार से हाथ घुमाया और लगाम हाथ में ली, एडी लगाई और विमान से भी तेजगति वाले घोड़े पवन के तुल्य दौड़ने लगे। / परस्त्री के साथ पाणिग्रहण करने की चाहनेवाले इस राजा का लाल दुपट्टा हवा की तेजी में फर-फर करता हुआ, परस्त्री की आंख 123 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6) उसी वृद्ध पर पहले से बैठा हुआ एक पक्षी जमिन पर गिर पड़ा। इस प्रकार अपनी पुत्री दमयंती के स्वप्न की बात सुनकर हर्षित हुए भीमराजा ने कहा, 'बेटी !' आज का स्वप्न तेरे वास्ते अत्यंत शोभनीय और तत्काल फलदायी बननेवाला है ? स्वप्न में श्रृंगारसज्जित निवृत्ति (निव्वान) देवी को देखने से मालूम होता है कि, तुम्हारे पर चिरकाल से आया हुआ पापों का भारा समाप्त हुआ और पुण्योदय की राशि उदय में आने की तैयारी में है। कौशलदेश के बगीचे को देखने से उस देश का राज्य पुनः तुम्हारे हस्तगत होगा। आम्रवृक्ष पर आरूढ होने के कारण तम्हारे पति नलराजा का संगम शीघ्र ही होगा / पुष्प को सुंघने से तुम्हारा यश पुनः स्थापित होगा। तथा जो पक्षी डाल से गिरा, उससे मालूम होता है कि, कूबरराजा का पतन हाथवेंत में है / 'पुत्रि !' प्रातःकाल होने पर जो स्वप्न देखा जाता है, उसका फल चंद समय में ही मिलता है, अतः आज ही तुम्हारे पति से तुम्हारा मिलन होगा, क्योंकि अष्टांग निमित्तों मे स्वप्न शास्त्र भी सबल शास्त्र है। / उसी समय द्वारपाल ने राजदरबार में आकर भीमराज को दधिपर्ण राजा के आगमन की बात कही प्रसन्नचित्त भीमराजा भी स्वागातार्थ सामने गये और नगर प्रवेश करवाया, कुशल समाचार के आदानप्रदान के बाद भीमराज बोले कि, मुझे दमयंती के पुनः स्वयंवर की योजना निरुपाय करनी पड़ी है, एतदर्थ आपके पधारने पर मुझे आनन्द हुआ है परंतु स्वयवर में अभी 6-7 घंटे का समय है, उसमें यदि भोजन पानी हो जाय तो अच्छा रहेगा, क्योंकि भरे हुए पेट में सब दिशाएँ हरी-भरी दिखती है, मेरी इच्छा बढ़िया से बढिया रसवती के द्वारा आपको प्रसन्न करने की होने से सूर्यपाक रसोई बनवाने की इच्छा है, और उसमें आपका रसोईया होशियार है / दघिपर्ण राजा ये कुब्ज 126 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को आज्ञा दी और उसे लेकर भीमराज अपने महल में आये / दरवार में दमयंती को अपने पिता के पास बैठो देखकर प्रसन्न हुआ कुब्ज मनोमप परमदयालु अरिहंत परमात्मा का उपकार मानने लगा और भावपूर्वक परमात्मा को नमस्कार किया। भीमराज ने रसोई का सव सामान कुब्ज को दिया, और दमयंती भी उसकी सब चेष्टाएँ बड़ी सूक्ष्मता से देखने लगी / रसवती तैयार हुई और सबों ने उसका आस्वादन किया / भोजनान्तर दमयंती खुश हुई / दधिपर्ण राजा को भी खुश होना स्वाभाविक था, क्योंकि आज उसकी आंखों में कामदेव का नशा अपना प्रभाव बतला रहा था / शास्त्रकारोंने कहा कि, इन्सान की दृष्टि में जिस प्रकार का रंग लगता है, सृष्टि भी उसके लिए वैसी बन जाती है, आंख पर पीले रंग के चश्मेवाले को सृष्टि भी वैसी ही दिखती है। जव काले रंगवाले को काली दिखती है, परंतु संसार न तो पीला है न काला उसी प्रकार इन्सान के असंस्कृत मन में जव कामदेव का नशा आता है, तब स्त्रीमात्र उसके वास्ते दर्शनीय बनती है और वैराग्य का नशा जब आता है तव वही स्त्री आदर्शनीय बन जाती है, इन सब प्रसंगों में इन्सान का संस्कृत तथा असंकृत मन ही मन काम कर रहा है। स्त्री चाहे करोडाधिपति की हो, भिखारन हो, काले गोरे रंग की हो, उसके शरीर की रचना में रतिमात्र अन्तर नहीं है। हाड, सांस, मूत्र, मल, कफ, पित्त, रुधिर आदि अत्यंत गंदे पदार्थों से पूर्ण स्त्री के शरीर पर मोहांध वनकर अपनी धर्मपत्नी का द्रोह करना निंदनीय कर्तव्य है। नलराजा चाहे जीवित हो या अजीवित, तथापि दूसरे पुरुष की छांया में दमयंती खड़ी भी नहीं रह सकती है तो उसके पुनर्विवाह की बात सर्वथा अनुचित है, इस तथ्य को भी दधिपर्ण राजा ख्याल में नहीं रख सका। सह भोजनान्तर दमयंती सपने पिताजी से बोली कि, एक दिन ज्ञानी गुरु ने कहा था कि, इस समय के भारत देश में नलराजा के सिवाय सूर्यपाक रसवती का ज्ञाता कोई भी नहीं है। अतः वर्तमान समय में 127 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह कुब्ज शरीर की दुर्दर्शनीय अवस्था भले भुगत रहा हो तथापि नलराजा ही है / पूज्य पिताजी ! इसके अलावा भी इसकी परीक्षा इस प्रकार हो सकती है, यदि यह कुब्ज नलराजा रहा तो उसकी एक अंगुली के स्पर्श मात्र से मेरे रोंगटे खड़े हो जायेंगे क्योंकि हृदयगत प्रेमरस का यही महत्व है कि, सती स्त्री अपने पति के स्पर्श से रोमांचित होती है अन्यथा दूसरे का स्पर्श चाहे कितना भी हो तो भी सती को कुछ भी नहीं होता है / कितनी ही औरतों को चूड़ियां पहनानेवाला चूड़िधर चाहे किसी भी प्रकार से स्त्री का हाथ उचा नीचा करे तो भी उसके मुंह से सित्कार नहीं निकलता है, तभी तो कहा जाता है / हाथ मरोड़े चुड़िया तीडेरे मूर्ख मणियार / - अपने पति के कर विना कभी न करूँ सीत्कार / / उपरोक्त कारण से आप मेरा मानकर कुब्ज की अंगुली का मेरे शरीर से स्पर्श होने दीजियेगा। दमयंती की बात मानकर राजाजी के सवि' नय कथन से कुब्जने दमयंती के शयीर का स्पर्श किया और उसे अद्वैताननन्द होने के बाद पूर्णरुप से निश्चित हो गया कि, नलराजा का रुपान्तर ही कुव्ज है / तत्पश्चात दमयंती ने सविनय कहा कि, वनवास के समय वटवृक्ष के नीचे भरनिद्रा में पड़ी हुई मुझे त्याग कर आप पलायन हो गये थे,अब कहियेगा कि, यहां से आपका छुटकारा कैसे हो सकेगा ? अतः आप अपना असली स्वरुप प्रकट कीजियेगा क्योंकि बारह वर्ष की अवधि पूर्ण हो चुकी है / समयज्ञ कुब्ज ने भी देव के कथनानुसार अपने पास गुप्त रखे हुए श्रीफल को तोड़ा उसमें से प्राप्त हुए दिव्य वस्त्रों का तथा मंजुषा में से दिव्याभूषण का परिधान करते ही नलराजा अपने असली स्वरुप में आ गये अपने पति को प्राप्त कर प्रसन्न हुई दमयंती नलराजा से आलिंगित हुई। भीमराजा आदि को मालूम हुआ और आनन्दित बनकर उनका स्वागत किया। दधिपर्ण राजा ने अपने मानसिक गंदे भावों की माफी मांगी, सर्वत्र जयजयकार हुआ। धनदेव 128 P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थवाह भी खुश होता हुआ उपहार लेकर आया / दुःख के समय दमयंती को आश्रय देनेवाले सेठ का भीमराज ने सत्कार किया। | तदन्तर ऋतुपर्ण राजा, चन्द्रयशा रानीजी, चन्द्रावती तथा तापसपुर नगर के राजा वसंतशेखर भी उपहार लेकर आये, दमयंती ने सभी का परिचय दिया भीमराजा अतीव प्रसन्न हुए और बहुत दिनों तक उनका आतिथ्य किया / एक दिन राजदरबार में सूर्य की तरह तेजस्वी देव आया और दमयंती को जयजिनेन्द्र पूर्वक नमन कर बोला, मैं तापसपति विमलपति था / तुम्हारे उपदेश तथा आदेश से मैंने दीक्षा ली थी, तथा .. निरतिचार उसका पालन कर सौधर्म नामक पहले देवलोक में देव बना हूँ। देवी ! तुमने मुझे अरिहंत परमात्मा के धर्म की पहचान तथा परिचय कराया और मैं जैनधर्म में स्थिर बना, जिससे मैं देवयोनि प्राप्त कर सका हुँ, अन्यथा यज्ञयाग में हजारों मूक पशुओं को होमने-- वाले मेरे जैसे मिथ्यात्वी की दशा कौन-सी होती ? देवलोक के सुखों को ठुकराकर भी तुम्हारा उपकार प्रथम मानना मेरा कर्तव्य है। इतना कहकर प्रत्युपकार के रुप में सात करोड़ सूवर्णमुद्रा की वृष्टि कर वह अपने स्थान गया / भीम आदि बड़े-बड़े राजा महाराजाओ ने नलराजा का दक्षिणार्धाधि पति स्वरुप में राज्यभिषेक किया, और उनकी आज्ञा शिरोधार्य की / मेघों का घटाटोप दूर हो जाने के वाद जैसे सूर्यनारायण द्विगुणित तेजस्वी बनता है, उसी प्रकार नलराजा तथा दमयंती का प्रभाव भी द्विगुणित हुआ और राज्यव्यवस्था व्यवस्थित वनी / दाम्पत्यजीवन का रस भी बढ़ा और साथ-साथ अहिंसा, संयम तथा तपोधर्म की उपासना भी बढ़ी तथा देश में जिस प्रकार से भी बना उसी प्रकार / अहिंसा धर्म का प्रचार किया प्रजा ने सुख-शांति तथा समाधि की श्वास लिया / अन्याय, प्रपंच, डाका, मारकाट, चोरी वदमाशी के मार्ग / बंदं हुए। ___एक दिन अतुल पराक्रमी नलराजा ने अपनी चतुरंगिणी सेना को / तैयार की और अपनी पैतृकी राजधानी पर चढ़ाई करने के इरादे से P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust III Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्थान किया तथा अयोध्या नगरी को चारों तरफ से घेर ली।अन्यायी, दुराचारी, मिथ्यावादी तथा स्वार्थाध कूवर राजा के पास आत्मीय शक्ति का सर्वथा अभाव होने के कारण उसे भयग्रस्त बनना स्वाभाविक था। फिर भी वह नलराजा का छोटा भाई होने के नाते पुत्रतुल्य था, अतः नलगजा ने अपने दूत को कूबर के पास भेजा और कहलाया कि, हम दोनों भाई फिर से द्युत (जुगार) खेले क्योंकि जो तेरी लक्ष्मी है वह मेरी है और मेरी लक्ष्मी तेरी है / दूत की बात सुनकर कूबर को अन्दर में खुशी हुई, क्योंकि संभव है कि, अबकी बार भी कदाच मेरी जीत हो जाय तो इस नल को पुनः निर्वासित करने पाऊँ, परंतु इन्सान सत्ता, श्रीमंताई. रुप, चालाकी तथा युवावस्था के घमंड में भूल खा जाता है कि, पूरा संसार पुण्य और पाप के अधीन होने से हार-जीत आदि भी पराधीन है, एक समय का हारा हुआ या जीता हुआ इन्सान दुबारा हारेगा या जीतेगा इसका निर्णय करने में अच्छे से अच्छे इन्सानों ने भी भूल करी है। इन्सानीयत का खातमा करनेवाला इन्सान चाहे एक बार जीत भी जायगा तो भी, समय पर जब कभी वह हार जाता है / तव काले मुख का वनकर जीवनयापन करने के सिवाय उसके पास दूसरा मार्ग नहीं रहने पाता है, इसी कारण से अरिहंत परमात्माओं ने कहा कि, इन्सान ! दूसरे का द्रव्य कच्चे पारे के मुताबिक होने से उस पर नजर विगाड़नी महापाप है / द्युत का प्रारंभ हुआ। बारह वर्ष के पहले दाव पर दाव' हारने वाला नलराजा आज सव के सव दाव जीत रहा है और कूबर के भाग्य में सव दाव' विपरीत रहे ? दावपेंच में दूसरों को फंसाकर उनकी पचाई हुई मिलकत कब तक साथ देनेवाली है ? निराश बने हुए कूवर का पापी मन पुकार रहा था कि, मैंने जिस प्रकार बड़े माई के साथ वरताव किया था नलराजा भी मेरे साथ वैसा ही बरताव करेगा तो मेरा क्या होगा ? परंतु सब कोई भूल जाते है कि, इन्सान, इन्सान में 130 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / अन्तर है / नल तथा कूवर एक ही पिता के पुत्र है, परंतु एक पुत्र ने , अपनी आत्मा को बनाई है, जब दूसरे ने वीगाड़ी है / अफसोस, शरम तथा भयग्रस्त बने हुए अपने छोटे भाई कूवर को नलराजा ने कहा, भैया कूबर ! तुम भयभीत मत बनो / मैं तुम्हें निष्कासित नहीं करूंगा आखिर तो तुम मेरे छोटे भाई हो, अतःपूर्ववत युवराजपद को ग्रहण कर, राज्य की सेवा करो, बना बनाया भूल जाओ / कूबर गरमिदा तो / बना परंतु सच्चे अर्थ में इन्सान भी बन गया / राजनीति निपुण नल। राजा अपनी प्रजा को पुत्रवत् समझकर भविष्य में कोई भी मेरे जैसा / दुःखी बनने न पावे एतदर्थ, शराबपान, मांसाहार, परस्त्रीगमन, जुगार / आदि व्यसनों को शनैः शनैः कम कराता गया / अद्वितीय पराक्रमी होने के नाते कोई भी राजा महाराजा आदि नल की आज्ञा तोड़ने की हिम्मत करने पाते नहीं थे। इतना बड़ा राज्य संभालने पर भी नलदमयंती ! * राजारानी परमात्माओं का पूजन, गुरुओं का व्याख्यान श्रवन आदि पवित्रानुष्ठानों को बड़ी श्रद्धा से करते थे / जल, चन्दन, दीप, धूप, पुष्प, फलादि से द्रव्य पूजा करने के उपरांत दूसरे जितने जैन मंदिर थे वहां पर विशिष्ट पूजाओं की रचना करवाई। अर्थात् अष्टाहिनका महोत्सवों का प्रारंभ करवाया / अपनी प्रजा को संदेश देते हुए कहा कि, हे भाग्यशालियों, जीवन क्षणभंगुर है। काया काँच की बंगड़ी जैसी है / युवावस्था पिप्पल के पान जैसी है। श्रीमंताई नदी के प्रवाह जैसी अचिरस्थायिनी है / सत्ता हाथी के कान के समान चंचल है / शरीर का रुप रंग, बिजली के चमकारे के समान है। कौटुम्बिक जीवन - अंत में क्लेशदायी है। माया की मस्तानी सत्कर्मों को नाश करानेबाली है। विषयविलास रोगप्रद है" अतः जब तक जीवन में लोही की गरमी है, सद्बुद्धि है तबतक अद्वितीय उपकारी अरिहंत परमात्माओं के पूजन में, गुरुओं के व्याख्यान श्रवण में, दया दान में, अतिथिओं की सेवा में कभी भी प्रमाद मत करना / राजाजी के आदेश को सत्यपूर्ण मानकर प्रजा के बच्चे-बच्चे ने, अठाई महोत्सव दरम्यान पूजा, स्नात्र P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा, बड़ी पूजा, आरती, मंगलदीप आदि अनुष्ठान किये और अपने मनुष्य जीवन का लहावा लिया। इस प्रकार कितने ही हजारों वर्ष पर्वत राज्यधुरा के भार क वहन करते हुए नलराजा के पास एक दिन देवसुव को भुगतनेवाल निषधदेव (जो नलराजा के पिता था, और संयम पालकर देव बन था) आया और बोला , पुत्र ! अब तुम्हें संयम लेने का अवसर प्राप्त हुआ है, इसलिए गार्हस्थ्य जीवन का मोह छोड़कर दीक्षा लेने की तैयारी की जाय। इतना कहकर देव अन्तर्धान हुआ। जन्म-जन्म के बैरागियों को, पौद्गलिक सुखों का त्याग करने मे भी विलंब नहीं होता है, नलराजा ने तथा दमयंती रानी ने संयम लेने का निर्णय किया / भव्य पुरुषों की भवितव्यता ही सुंदर होने के कारण उसी समय बागवान (माली) ने आकर बधाई दी कि, राजन् ! उद्यान में अवधिज्ञान के मालिक जिनसेन नाम के आचार्य भगवंत अपने मुनि ओं के साथ विहार करते हुए पधारे हैं। नलराजा खुव प्रसन्न हुए और गांव (शहर) को शणगारने का आदेश देकर तथा सामंत, सेठ पुत्र परिवार के साथ राजाजी आचार्य को वन्दन करने पधारे देशना सुनकर दमयंती के साथ दीक्षा लेने की विनंती की. गुरुदेव ने तथास्तु कहा। तत्पश्चात् 'पुष्कल' नामक पुत्र को राज्यगद्दी सोपकर बड़े ठाटबाट से दीक्षा लेने के लिए पधारे शुभमुहुर्त, लग्न, नवांश तथा चन्द्र नाड़ी के समय गुरुजीने दोनों को दीक्षा दी / नल, मुनि-साधु बने / दमयंती साध्वी बनी, उत्कृष्ट भावपूर्वक संयम की साधना की जा रही है / तपश्चर्या का रंग भी जोरदार बना है, क्योंकि नूतन पापों को रोकने के ' लिए तथा पुराने पापों को निर्मूल करने के लिए तपश्चर्या के बिना दूसरा मार्ग नहीं है / संयमिनी साध्वीजी श्री दमयंती की संयम साधना खूब जोरदार रही अतः संयमस्थान शुद्धतम बनते गये, परंतु नल मुनिराज 132 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पने सूक्ष्म (आभ्यंतर) मन को स्वाधीन करने में ज्यादा सफल नहीं ने पाये अतः काली नागन से भयंकरतम भोगैषणा के मालिक बने लस्वरुप प्रथम स्वर्ग के इन्द्र महाराज के उत्तर दिक्पति कूबेर नाम का व बना तदंतर दमयंती साध्वीजी भी स्वर्गवासिनी बनकर देवायुष्य पूर्ण किया और वही दमयंती कनकवती के रुप में अवतरित हुई है। / आज तुम्हारे से विवाहित होकर नेमिनाथ प्रभु के चरणों में दीक्षित नकर मुक्तिगामिनी बनेगी। .. वसुदेवजी ! तुमने जो प्रश्न किया था कि, मनुष्ययोनि प्राप्त / स्त्री के विवाह में देव को आने का प्रयोजन कौनसा ? सो मैंने इतने भवों का मेरा तथा कनकवती का संबंध तुम्हें सुनाया है / संसार में रागदशा बड़ी ताकतवाली होने के नाते मैं भी कितने ही भवों में मेरी पत्नी 1.बनी हुई, कनकवती को पुनः प्राप्त करने की इच्छा रखें यह सब राग / का प्रबल कारण है / मैं अच्छी तरह से जानता था कि, देवयोनि का देव मनुष्यस्त्री से विवाहित होता नहीं है परंतु "स्नेहो हि याति जन्मशतान्यपि" अर्थात स्नेहपाश सैकड़ों भवों को हानि करने का कारण बनत है। - एक दिन मैं महाविदेह क्षेत्र में गया था वहां पर 'विमलस्वामी' तीर्थकर परमात्मा के श्रीमुख से जो वृत्तांत सुना था वही मैंने कहा है। इतना कहकर कुबेर देव' स्वर्ग में पधारे और वसुदेवजी कनकवती को लेकर द्वारका पधारे। हेमचन्द्राचार्य रचित त्रिषप्टि शलाका पुरुषचरित्र पर्व 8 सर्ग तिसरा - समाप्त - 133 P.P. 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