________________ सम्यग्ज्ञान के प्रकाश में 'यह मेरे किये हुए कर्मों का फल है' यह समझकर सम्यगद्रष्टा अपनी आत्मा को नीचे नहीं पड़ने देता है। राजा रानी पैदल चले और बहुत थकने के बाद एक वृक्ष के नीचे बैठे / दमयंती भी थक गई थी, भूख, प्यास भी सता रही थी, वन के काले वृक्षों को देखकर भय से व्याकुल थी फिर भी मेरे पति का वियोग न होने पावे इसकी चिंता में गुमसुम बैठी हुई दमयंती को देखकर राजा भी बड़े दुःखी हुए, पेड़ के पत्तों से पवन किया तथा पलास के पत्तों का ग्लास बनाकर उसमें पानी लाया और पिलाया। हताश हुई दमयंती ने कहा 'चारों तरफ से भयानक जंगल कितना लंबा है ? जिसे देखकर मेरा हृदय धूज रहा है, मानो ! मेरे कलेजे के टुकड़े हो रहे हैं / आश्वासन देते हुए नल बोले, प्रिये ! तुम मत घबराओ जंगल चाहे छोटा हो या बड़ा मेरे शरीर में जब तक श्वास है तब तक तुम्हें चिंता करने की आवश्यकता नहीं है, इतना बोलते हुए राजाजी की आंखों में पानी भर आया, तब पश्चाताप करते हुए राजा ने सोचा अरिहंत परमात्माओं ने जुगार को बड़ा भारी पाप कहा है, प्रारंभ में वह मजेदार लगता भी हो परंतु दीमक के कीड़े की तरह जब वह व्यसन इन्सान की बुद्धि तथा आत्मा को व्याप्त कर लेता है, तब प्राय: कर सबों की दशा मेरे जैसी ही होती होगी ? का , दमयंती की विहवलता अरिहंत परमात्माओं के शासन को श्रद्धापूर्वक मानते हुए भी मैं मेरी आत्मा को दुर्व्यसन से रोक न सका, तब मोह तथा मिथ्यात्व के नशे में उन्मत बने हुए इन्सानों के किये जा रहे पापों का फल कितना भयंकर होगा। इसकी कल्पना भी हैये को घूजा देती है / नलराजा ने कहा, 'प्रिये ! सौ योजन की इस भयंकर अटवी में केवल पांच योजन का रास्ता अपन पार कर सके हैं। तम धीरज धरो! तेरे मेरे पाप P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust 38