________________ समझदारी पूर्वक संयम स्वीकारा और संसार की माया को सर्वथा भूलकर ध्यानस्थ बने। __नलराजा को जब विदित हुआ कि, ' युद्ध से विरक्त (पलायन) होने पर भी कदंबराज महाव्रतधारी बनकर कायोत्सर्ग में स्थित हो गय है, तब खूब प्रसन्न बने हुये नलराज ने कदंब मुनि को प्रदक्षिणा तथा वन्दन करके कहा 'हे मुनिराज ! ' निश्चित है कि, आपश्री से में हार कबूल करता हूँ कि, आँखोंके सामने की पृथ्वी पर से मोह उतारकर परलोकरुपी पृथ्वी पर आसक्त बने हुए, आपसे मेरी प्रार्थना है, आप अपनी पृथ्वीको पुनः स्वीकार करें और मुझे माफी बक्षावे / महाव्रतों की आराधना में मन को एकाग्र किये हुए धीर-वीर-गंभीर मुनिराजने नलराजा की लरफ देखा भी नहीं और जवाब भी दिया नहीं। क्योंकि "दृष्टि बदल जाने के बाद सृष्टि भी बदल जाती है " इस न्याय से कदंबराज की पाँच मिनिट के पहिले संसारपर विजय प्राप्त करने की दृष्टि थी और अब अपनी आत्मा पर ही विजय प्राप्त करने की दृष्टि हुई है इस कारण से सांसारिक इच्छाओं से सर्वथा पर हुए मुनि के लिए राजा और रंक सुवर्ण तथा पत्थर, मान तथा अपमान में कुछ भी अन्तर नही होता है / नलराजा ने भी कदंव मुनि की स्तुति की और उनके ही जयशक्ति नामके पुत्र को राज्यगादी पर बैठा दिया उसके पश्चात् दक्षिणार्ध भरत के सब राजा महाराजाओं ने नलराजा का भरतार्धपतिरूप से अभिषेक किया / जयजयकार की ध्वनिओं से आकाश भी गूंज उठा। भक्तिसभर देश देश के राजा, नलराजा के चरण में आये और अपना दासत्व स्वीकार करके, उपहार में जो भी लाये थे वह समर्पित किया। अपनी धर्मपत्नी दमयंती के साथ आनंद पूर्वक समय पसार करते हुए राज्यधुरा को बड़ी सावधानी से चला रहे थे। चाणाक्य के नीतिसूत्र में स्वाभाविक दुश्मन के रूप से सगे भाई को ही संबोधित किया है, अर्थात् स्वार्थ की. माया बीच में आते ही अपवाद (CP.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust