________________ (स्वाधीन) कर महाभयंकर, निरर्थक और सार्थक पापाचरणों से भी आत्मा इद्रियें, बुद्धि तथा मन को बचाकर उर्ध्वमुखी बनता है / 15 कर्मादानकर्म, अभक्ष्य भोजन, अपेयपान, सप्तव्यसन, असभ्यजीवन आदि दूषणो _सें जीवन में कमजोरिएँ बढ़ती है जिनसे दुर्गति की तरफ का प्रस्थान सुलभ बनता है / - पूर्व के पुण्यो का भोग करना सर्वथा अनिवार्य होने पर भी उनका भोग यदि हॉस्पिटल की नर्स के मुताविक करे, अर्थात् आठ घंटे की ड्यूटी पर वह नर्स केवल अपनी ड्यूटी को ही मद्दे नजर में रखकर प्रसूता स्त्री की प्रसूति करने पर उसके लोही पेशाब की बूंद भी उसके वस्त्र पर पड़ जाती है, तो भी उसे कछ भी नाराजी नहीं, रोष, नहीं कडवास नहीं तथा मन में खरावी भी होने नहीं पाती है, तत्पश्चात् बच्चे को स्नान, स्तनपान आदि भी प्रेम से कराने पर भी वह नर्स अपने मन में समझती है कि, बच्चा मेरा नहीं है, मेरो तो केवल ड्यूटी है उसी प्रकार पुण्य कर्मों का भुगतान चाहे लाखों-करोड़ों रुपयों में करे चांदी के थाल में भोजन करे बढ़िया वस्त्र पहने करोड़ों का व्यापार करे परंतु नर्स की तरह मन में ख्याल रखना चाहिए कि, यह मेरा' नहीं है / पुत्र-परिवार, काका-काकी, मामा-मामी, मौसा-मौसी, भाईबहन, पति पत्नी इसमें से मेरा कोई नहीं है, केवल हम सव पूर्व भव के ऋणानुबंध को समाप्त करने के लिए नाटक मंडली के मेंबर है, अपना-अपना खेल तमाशा जैसे ही पूर्ण हुआ कि,सबो को अनंत संसार में रखड़ना आवश्यक है / ऐसी परिस्थिति में जैन धर्मी इन्सान जरुर समझेगा कि, पुण्य या पाप कर्मों के भुगतने पर भी इन्द्रियो को मन को वश करने में ही मेरा कल्याण है, बड़े से बड़े बहादुर मानवो के लिए जो अशक्य है, वही अरिहंत परमात्मा के उपासको के वास्ते शक्य बन सकता है। यद्यपि सर्वविरति चारित्र तो हर हालत में भी श्रेष्ठतम है. तथापि देशविरति श्रावक धर्म में भी वह पॉवर आ जाता है, जिससे 89 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust