________________ . और सिंहासन पर आसीन हुए। वसुदेव राजा भी आये और देव के पास में रखे हुए सिंहासन पर बैठ गये और भी राजा तथा राजकुंवर अपनी-अपनी योग्यतानुसार विराजे / अभी भी कदाच विस्मृत तथा विस्मय बनकर राजकन्या मेरे गले में वरमाला डाले उस आशय से रत्नजडित मुद्रिका (वीटी) अपने हाथ से निकालकर वसुदेव की अगुली में पहिना दी तब उनका रुपरंग-वेष बोलना तथा देखावा सव देव के जैसा हो जाने से आश्चर्य से जनता ने निर्णय किया कि, देवने अपने दो रुप बनाये हैं अर्थात् देव तथा वसुदेव एक से ही दिखने लगे। उसी समय संपूर्ण श्रृंगार से सुशोभित राजकन्या हाथ में वरमाला लेकर मंच पर आई और चारों तरफ दृष्टि घुमाकर देखा परंतु हृदय का सम्राट, आंखों का तारा, मस्तिष्क का मुकुट वसुदेव राजा जब दृष्टि गोचर न हुआ तब हिरणी सी विहवल बनी हुई राजकन्या रोने की स्थिति में आ गई / दासी ने कहा कि, राजपुत्री! शीघ्रता से किसी भी राजकुंवर को पसंदकर अपनी वरमाला उनके गले में स्थापित करने में देर लगाना ठीक नहीं है / तब कन्या ने कहा कि, 'हे दासी !' जिसको मैं वर बनाना चाहती हुँ वे दिखाई नहीं दे रहे हैं / क्योंकि वर की पसंदगी इच्छानुसार होती है, ऐसा कहकर चिताविष्ट कन्या ने सुवर्ण सिंहासन पर आसीन कुबेर को देखा तव आँखों में पानी लाती हुई कन्या प्रणामपूर्वक बोली, 'हे देव ! मैं आपकी पूर्वभवीय पत्नी हुँ ऐसा मानकर आप मेरी मश्करी न करें। लग्नेच्छु कन्या की मश्करी करना आप जैसे विवेकी और समझदार को उचित नहीं है / मैं हृदय से वसुदेव को ही वर बनाने के लिए इच्छुक हैं। अतः आप मेरे पर का मोह छोड़ दीजिए क्योंकि आप भी दूसरे भव में मोक्ष पधारनेवाले P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust