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________________ में क्या रहने पाता ? हे मातृस्वरुपा दमयंती ! अरिहंतों के धर्म की आराधना से प्राप्त हुई इस उच्चस्तरीय स्थिति में आप ही मूल कारण होने से देवलोक के वैषयिक सुख भुगतने के पहिले यदि तुम्हारे दर्शन न करने पाऊं तो मेरे जैसा बेकदर, बेईमान, बेरहम, बेफिक्र तथा बेमर्याद दूसरा कौन ? इसप्रकार कहकर उस देव ने अपनी देवमायासे सात करोड़ सुवर्ण की वर्षा की तथा ऋणमुवत बनकर बिजली की चमक की तरह जैसे आया था वैसे स्वर्गलोक में गया। अरिहतों के धर्म की आराधना का प्रत्यक्ष फल जानकर ऋतुपर्ण राजा संतुष्ट हुए और जैनधर्म को स्वीकार किया। ..... न जैनधर्मप्राप्त इन्सान यदि एकांत में बैठकर थोड़ा-सा सोचे और अपने जीवन में नये पापों का त्याग तथा जूने पापों को धोने का मार्ग स्वीकार करें तो किसी को कुछ भी हानि नहीं होती है, क्योंकि निरर्थक पापों के त्यागस्वरूप बारह व्रतों के स्वीकार करने पर भी व्यापार व्यवहार बंद करने की आवश्यकता नहीं है, केवल मानसिक जीवन में पापमार्ग (पापस्थानक) पाप ही है, जिनके सेवन से आत्मा वजनदार वनकर दुर्गति तरफ प्रयाण करती है / इतना एकरांर (दृढ विश्वास) कर लें तो उसका छुटकारा होने में ज्यादा विलंब नहीं होता है। . अवसरज्ञ हरिमित्र बटु ने ऋतुपर्ण राजा से हाथ जोड़कर कहा, 'हे राजन !' आप श्रीमान का तथा भीमराजा का बहुत बड़ा सौभाग्य है कि, दमयंती की प्राप्ति बड़े लंबे समय के बाद होने पाई है / आपकी भाणेज होने के नाते आपका प्यार उसपर होना स्वाभाविक है, उसी तरह इसकी जनेता और जनक भी दमयंती की प्राप्ति होने पर अत्यधिक खुश होंगे यह निर्विवाद है, अतः विना विलंब दमयंती को मेरे साथ भेजने की कृपा करें / चंद्रयशा रानीजी ने भी कहा, स्वामीनाथ ! , बटुक की वात पर ध्यान देकर यथाशिघ्र बड़े ठाटबाटसे दमयंती को भेज देने में P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036461
Book TitleNal Damayanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnanandvijay
PublisherPurnanandvijay
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size90 MB
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