________________ परिस्थिति में से पसार होने पर भी कर्तव्यभ्रष्ट नहीं है, तामसिक तथा राजसिक नहीं है, क्योंकि अरिहंतों के तत्वों की जानकारी और उन तत्वों की तन्मयता में जीवन का अणु-अणु ओतप्रोत है / इतनी भूमिका के पश्चात अब उनके वियोगी और दुःखी संतप्त जीवन को कलिकाल सर्वज्ञ, हेमचंद्राचार्य महाराज की कलम से ही अपन जानने का प्रयत्न करेंगे। . भरनिद्रा में पड़ी हुई अपनी प्राणप्रिया दमयंती का त्याग करके नलराजा भयंकर अटवी में प्रविष्ट हुए तब थके थकाये एक वृक्ष के नीचे विश्रांति हेतु बैठ गये / अदृष्ट कर्मों के कारण इन्सान चाहे कितना भी निष्ठुर बन जावे, तथापि अवसर आने पर जब उसके आँतर (सूक्ष्म) मन में तूफान उठता है तब चिल्ला-चिल्लाकर रोने के सिवाय परमात्मा के अतिरिक्त व्यक्ति विशेष के लिए भी दूसरा मार्ग नहीं है / एखाद घंटे के बाद केवलज्ञान प्राप्त करने की योग्यतावाले भाग्यशाली जब तक वे छद्मस्थ है, तब तक छाद्मस्थिक भाव अपना नाटक किय विना रहता नहीं है, मरूदेवी माता तथा रामचंद्रजी आदि के अगणित दृष्टांत शास्त्रों मे भरे पड़े हैं / छद्मस्थ जीवनधारी अध्यात्मिक जीवन में चाहे कितना भी ऊपर आ गया होगा तो भी उसकी मोहकर्म की प्रकृतिएँ दबी हुई होने से समय होने पर आंखों में से धाराबद्ध अश्रुओं का निरोध करना बड़ा ही कठिन होता है। नलराजा भी छद्मस्थ है। अतः फुटफुट कर रोने, तथा अफसोस करने लगे और पुनः विचार ने लगे कि, मृत्युप्रापक इस भयंकरतम जंगल में दमयंती को उसके कर्मोपर छोड़ देना भयंकर अपराध है, भावदया और मानवता की क्रूर मश्करी है तथा धर्मों के रहस्यों की अनभिज्ञता है। क्या पुन: लौटकर दमयंती के पास जाकर उसके दुखों में भागिदार बनूं ? इत्यादि पवित्र तथा धर्म्य विचारों में निष्पक्षसूक्ष्म मन 'हां' कहता था, त स्वाभिमान तथा मिथ्याभिमान के शैतान चक्र में फंसा हुआ स्थूल मन 102 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust