________________ सार्थवाह से मिलन उस समय एक सार्थवाह इसी जंगल में पड़ाव डाले था, उसके आदमी लकड़ी, छाने तथा पानी लेने के लिए जंगल में घूम रहे थे, उनकी दृष्टि में दमयंती आई और वे बोले, भद्रे ! इस भयंकर जंगल में देवी के रुप रंग को धारण किये तुम कौन हो ? तब सती ने कहा, मै मनुष्यस्त्री हूँ, सार्थ से भ्रष्ट होने के बाद मैं एकाकिनी इधर-उधर रखड रही हूँ। मेरी इच्छा तापसपुर नगर में जाने की है, अतः आप मुझे वहां पर पहुँचा देने का कष्ट करें। नौकरों ने कहा, जिस दिशा में सूर्य अस्त होता है उसी को लक्ष्य में रखकर चली जाओगी तो तुम्हारे इष्ट स्थान पर पहुँच जाओगी / हम रास्ता बतलाने में समर्थ नहीं है। यहां से काम पूर्ण होने पर हमारा प्रस्थान होगा, तुम यदि हमारे साथ चलती हो तो कोई शहर में छोड़ देंगे / दमयंती उनके साथ चली / सार्थवाह का नाम धनदेव था, परोपकारी व हितबुद्धि क होने से सस्वागत दमयंती से पूछा, तुम कौन हो ? कहां से आई हो ? और कहां पर जाना है ? भीमराजा की पुत्री दमयंती ने कहा, " मैं बनियं की पुत्री हूँ, मेरे पति के साथ यहां आई थी, परंतु मेरे कर्मों की वक्रत के कारण निद्रावस्था में मुझे छोड़कर मेरे पति अन्यत्र चले गये हैं तुम्हारे सेवकों ने मुझे कहा और मैं आई हूँ / अतः हे महाभाग। मुझ किसी नगर में पहुँचा दो / सार्थवाह ने कहा हम अचलपुर नगर तर जायेंगे। हे धर्मपुत्री ! तुम भी मेरे साथ चलो हम तुम्हे पुष्प की तरः ले चलेंगे, इसप्रकार स्नेहपूर्ण सार्थवाह ने दमयंती को अच्छे वाहन में बैठ दिया और आगे चलने के लिये प्रस्थान किया। चलते-चलते पर्वत के पान की एक नदी के किनारे पुनः पड़ाव डाला भोजन पान का कार्यक्रम समा होने के बाद जब सांयकाल हुआ, तब धर्मगोष्ठी करने हेतु सब एक हुए भांति-भांति की चर्चा होने के पश्चात दमयंती बोली ,वन में, रणशत्रु के बीच में, समुद्र में, अग्नि के मध्य में, पर्वत पर, या और किस 70 P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust