________________ सताप भी हुआ। मन में भय हुआ और हृदय कंपायमान बना, क्योंकि ससार में जितने भी भय है उनसे इन्सान के साथ इन्सान रणमैदान खल सकता है, परंतु यमराज से नहीं। जन्मपत्रिका में भी मारकदशा जब आती है, या मृत्यु विषयक कुछ सुनने में आता है, तव इन्सानों की हड्डियों में से पसीना आ जाता है / मुझे भी मृत्यु के भय ने घेर लया। तब सूरिजीने कहा, भाग्यवान् ! मृत्यु से भय लाने पर भी वह किसी को भी छोड़ने वाला नहीं है, अतः जिन्दगी में उन कार्यों को करन चाहिए जिससे मृत्यु से छुटकारा हो सके, इसीलिए मेरा कहना है कि तुम प्रव्रज्याधर्म स्वीकार करो / विश्वस्त बना हुआ मैंने तत्काल की वैवाहित स्त्री को तथा स्वजनों को त्याग कर दीक्षा स्वीकार की तथा गुरुजी की आज्ञा से यहां पर आया। शुक्लध्यान की धारा बढ़ने लगा और घाती कर्मों का अंत करके केवलज्ञान की ज्योती प्राप्त की वही मैं सिंहकेशरी हूँ। यथासमय सब कर्मों का क्षय करके सिद्धशला में स्थान जमा लूंगा। यशोभद्रसूरि ने कुलपति को दीक्षा दी, दमयंती ने भी दीक्षा की चना की और सूरजीने कहा, अभी तुम्हारे भाग्य में भोग्य कर्म होने से तीक्षा लेना उचित नहीं है / प्रातःकाल होते ही सूरजी पर्वत से नीचे उतर गये और तापसपुर नगर में पधारकर शांतिनाथ प्रभु के चैत्यालय चैत्यवन्दन किया और कितने ही जीवों को सम्यक्त्व प्रदान किया। गर्म ध्यान करती हुई, दूसरों को धर्म समझाती हुई दमयंती के इसी पर्वत पर सात वर्ष पूर्ण हो गये। - कर्मसत्ता की बलवता अत्यधिक होने से यद्यपि दमयंती ने धर्ममय सात वर्ष पूरे किये है, तथापिं मानसिक जीवन अपने पति की संखना में लगा हुआ था, जभी तो समय-समय पर नलराजा कहां पर हाग? कैसी स्थिति में होंगे ? ये स्मृतिएँ दमयंती को सताती रहती P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust