Book Title: Nal Damayanti
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Purnanandvijay

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Page 129
________________ प्रस्थान किया तथा अयोध्या नगरी को चारों तरफ से घेर ली।अन्यायी, दुराचारी, मिथ्यावादी तथा स्वार्थाध कूवर राजा के पास आत्मीय शक्ति का सर्वथा अभाव होने के कारण उसे भयग्रस्त बनना स्वाभाविक था। फिर भी वह नलराजा का छोटा भाई होने के नाते पुत्रतुल्य था, अतः नलगजा ने अपने दूत को कूबर के पास भेजा और कहलाया कि, हम दोनों भाई फिर से द्युत (जुगार) खेले क्योंकि जो तेरी लक्ष्मी है वह मेरी है और मेरी लक्ष्मी तेरी है / दूत की बात सुनकर कूबर को अन्दर में खुशी हुई, क्योंकि संभव है कि, अबकी बार भी कदाच मेरी जीत हो जाय तो इस नल को पुनः निर्वासित करने पाऊँ, परंतु इन्सान सत्ता, श्रीमंताई. रुप, चालाकी तथा युवावस्था के घमंड में भूल खा जाता है कि, पूरा संसार पुण्य और पाप के अधीन होने से हार-जीत आदि भी पराधीन है, एक समय का हारा हुआ या जीता हुआ इन्सान दुबारा हारेगा या जीतेगा इसका निर्णय करने में अच्छे से अच्छे इन्सानों ने भी भूल करी है। इन्सानीयत का खातमा करनेवाला इन्सान चाहे एक बार जीत भी जायगा तो भी, समय पर जब कभी वह हार जाता है / तव काले मुख का वनकर जीवनयापन करने के सिवाय उसके पास दूसरा मार्ग नहीं रहने पाता है, इसी कारण से अरिहंत परमात्माओं ने कहा कि, इन्सान ! दूसरे का द्रव्य कच्चे पारे के मुताबिक होने से उस पर नजर विगाड़नी महापाप है / द्युत का प्रारंभ हुआ। बारह वर्ष के पहले दाव पर दाव' हारने वाला नलराजा आज सव के सव दाव जीत रहा है और कूबर के भाग्य में सव दाव' विपरीत रहे ? दावपेंच में दूसरों को फंसाकर उनकी पचाई हुई मिलकत कब तक साथ देनेवाली है ? निराश बने हुए कूवर का पापी मन पुकार रहा था कि, मैंने जिस प्रकार बड़े माई के साथ वरताव किया था नलराजा भी मेरे साथ वैसा ही बरताव करेगा तो मेरा क्या होगा ? परंतु सब कोई भूल जाते है कि, इन्सान, इन्सान में 130 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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