Book Title: Nal Damayanti
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Purnanandvijay

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Page 130
________________ / अन्तर है / नल तथा कूवर एक ही पिता के पुत्र है, परंतु एक पुत्र ने , अपनी आत्मा को बनाई है, जब दूसरे ने वीगाड़ी है / अफसोस, शरम तथा भयग्रस्त बने हुए अपने छोटे भाई कूवर को नलराजा ने कहा, भैया कूबर ! तुम भयभीत मत बनो / मैं तुम्हें निष्कासित नहीं करूंगा आखिर तो तुम मेरे छोटे भाई हो, अतःपूर्ववत युवराजपद को ग्रहण कर, राज्य की सेवा करो, बना बनाया भूल जाओ / कूबर गरमिदा तो / बना परंतु सच्चे अर्थ में इन्सान भी बन गया / राजनीति निपुण नल। राजा अपनी प्रजा को पुत्रवत् समझकर भविष्य में कोई भी मेरे जैसा / दुःखी बनने न पावे एतदर्थ, शराबपान, मांसाहार, परस्त्रीगमन, जुगार / आदि व्यसनों को शनैः शनैः कम कराता गया / अद्वितीय पराक्रमी होने के नाते कोई भी राजा महाराजा आदि नल की आज्ञा तोड़ने की हिम्मत करने पाते नहीं थे। इतना बड़ा राज्य संभालने पर भी नलदमयंती ! * राजारानी परमात्माओं का पूजन, गुरुओं का व्याख्यान श्रवन आदि पवित्रानुष्ठानों को बड़ी श्रद्धा से करते थे / जल, चन्दन, दीप, धूप, पुष्प, फलादि से द्रव्य पूजा करने के उपरांत दूसरे जितने जैन मंदिर थे वहां पर विशिष्ट पूजाओं की रचना करवाई। अर्थात् अष्टाहिनका महोत्सवों का प्रारंभ करवाया / अपनी प्रजा को संदेश देते हुए कहा कि, हे भाग्यशालियों, जीवन क्षणभंगुर है। काया काँच की बंगड़ी जैसी है / युवावस्था पिप्पल के पान जैसी है। श्रीमंताई नदी के प्रवाह जैसी अचिरस्थायिनी है / सत्ता हाथी के कान के समान चंचल है / शरीर का रुप रंग, बिजली के चमकारे के समान है। कौटुम्बिक जीवन - अंत में क्लेशदायी है। माया की मस्तानी सत्कर्मों को नाश करानेबाली है। विषयविलास रोगप्रद है" अतः जब तक जीवन में लोही की गरमी है, सद्बुद्धि है तबतक अद्वितीय उपकारी अरिहंत परमात्माओं के पूजन में, गुरुओं के व्याख्यान श्रवण में, दया दान में, अतिथिओं की सेवा में कभी भी प्रमाद मत करना / राजाजी के आदेश को सत्यपूर्ण मानकर प्रजा के बच्चे-बच्चे ने, अठाई महोत्सव दरम्यान पूजा, स्नात्र P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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