Book Title: Nal Damayanti
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Purnanandvijay

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Page 58
________________ देव का आगमन उसी समय अपार पौद्गलिक सामग्री का मालिक, रुप में सूर्य * समान महद्धिक देव आकाश से नीचे उतरा और केवली परमात्मा को द्रव्य तथा भाव वन्दन करने के बाद अत्यन्त नम्र कोमल तथा श्रद्धा उत्पन्न करानेवाली भाषा से दमयंती को कहा, हे भद्रे ! इसी तपोवन में कुलपति का शिष्य में कर्पर नाम से प्रसिद्ध था / भिन्न। भिन्न प्रकार की तपश्चर्या करके तेजस्वी वना हुआ मैं गृहस्थों के लिए आदरणीय बन गया था। गृहस्थ भी मेरे साथ धर्म की चर्चा कर आनन्दित होते थे / पंचाग्नि तप पर मुझे ज्यादा श्रद्धा होने से खासकर आसो, चैत्र, वैशाख तथा जेष्ठ महिने की तेज धूप में इसकी साधना करता रहता था, तथा शीर्षासन में रहना, एक पैर पर खड़ा रहना आदि अनुष्ठानों में मुझे कुछ भी परिश्रम नहीं पड़ता था। सारांश कि, मेरा जोवन बाल्यकाल से संन्यासी बना हुआ होने से तप त्याग में मैं पूर्ण - मस्त रहता था / इतनी बात कहने पर सब तापसों के कान खड़े हो गये और आगे की बात सुनने के लिए तत्पर वने / देव ने कहा इतना, होने पर भी कुलपति के ये शिष्य मेरा अपमान करने में धुत्कारने में तथा गृहस्थों के सामने मुझे लज्जित करने में सदैव तैयार रहते थे मेरे साथ सभ्यता से बोलने से भी उनको एतराज था, इसलिए मुझे कुछ अपमान सा लगा और आश्रम को छोड़कर अन्यत्र चला गया, परंतु क्रोध नाम का राक्षस मेरे पीछे पड़ा हुआ होने से तापसों से वैर की वसुलात करने के भाव मेरे बढ़ते गये। क्रोध में अन्धा बना हुआ मैं कालीरात में भी बड़ी तेजी से जंगल का रास्ता काट रहा था, मन में क्रोध दावानल था, आंखों में वैर का बदला लेने का भाव था इसलिए हाथ पैर तथा मेरी चाल भी बेकाबू होने से उतावल से जाता हुआ मैं पर्वत की खीण में (खाई) जा पड़ा फलस्वरुप पत्थर की जोरदार रगड़ लगने से मेरे दांत सबके सब ट गये, निकल गये और मैं लहू-लुहान 57 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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