Book Title: Nal Damayanti
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Purnanandvijay

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Page 67
________________ भयंकर राक्षसी के सामने दमयंती 2-3 कदम गई होगी और एक भयंकर राक्षसी दमयंती के सामने खड़ी हुई जिसका रुप-रंग इस प्रकार का था, शरीर श्याम था। दांत वाहर निकले हुए थे / मस्तक के बाल स्थूल, पीले और सुअर जैसे थे। नाखून सुपडे जैसे, आंखें बिल्ली जैसी, पेट वड़ा, वक्षस्थल छोटा, हाथपैर लंबे, होंठ बाहर की तरफ लटके हुए थे। उस राक्षसी ने अपने मुख को गुफा जितना लंबा चौड़ा बनाकर कहा छोकरी ! तुम बड़ी अच्छी हो, तुम्हारा मांस और हड्डी मुलायम है / मैं भी चार-पांच दिन से भूखी हूँ, तुम्हारा आना अकस्मात् हुआ और मुझे खुशी है / तो चलो तैयार हो जाओ, मैं तुझे एक ही कौर में उदरसात् कर लूंगी, जिससे तुझे कष्ट भी न होगा और मेरे जैसी भूखी को तृप्त करने का पुण्य भी प्राप्त कर लोगी। यह कहकर उसने अपना मुंह ज्यादा चौड़ा किया तथा दमयंती को पकड़ने के लिए हाथ लंबे किये / राक्षसी की बात सुनकर दमयंती को आश्चर्य इसलिए हुआ कि, मर्त्ययोनि के मानवों कि मृत्यु के समय जो अतृप्त वासना रहती है वही वासना व्यंतर की देवयोनि प्राप्त करने पर भी उसमें रह जाती है, जिससे व्यंतरयोनि के देवों का आयुष्य इसी प्रकार की गंदी चेष्टाओं में पूर्ण होता है। भ्रमज्ञान, विपरीग ज्ञान, व्यामोह ज्ञान अथवा अज्ञान के वशीभूत बने हुए मानव समाज में ऊँच-नीच तथा श्रीमंत-गरीब का वर्गीकरण अपने स्थान में जब जोरदार बनता है, तब वैषम्यवाद का राक्षस उत्पन्न होता है, बढ़ता है उसके प्रताप से दलित पतित तथा गरीब इन्सान बेमौत मरते हैं, जिसका श्राप धनिकों को लगे बिना रहता नहीं है। इसी कारण से दया के सागर, अहिंसा के पूर्णावतारी तीर्थकर परत्माओं ने संसार में मारकाट, वैर, विरोध तथा Man it's Man के 66 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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