Book Title: Nal Damayanti
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Purnanandvijay

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Page 66
________________ बोलनेवाला इन्सान परोक्ष ही रहा / शब्दवेधी वाण अपने लक्ष्य की दिशा में आता है, उसी प्रकार जिस दिशा से शब्द आ रहे थे, दमयंती भी उसी तरफ दौड़ी बड़ी तेजी से दौड़ी। जिस पर्वत की गुफा में अगणित उपकार पूर्वक सात वर्ष विताये थे, उसका तनिक मोह रखे विना वह पर्वत से नीचे उतर रही है और जंगल की तरफ बड़ी तेजी से जा रही है / उसके जीवन का लक्ष्य एक ही है, मेरे पति ! मेरे स्वामीनाथ ! मेरे हृदय के मालिक ! नलराजा है उसके अलावा मेरा कौन ? भयंकर जंगल में वह आ तो गई, परंतु नलराजा तो दूर रहे, शब्द बोलने वाला भी दिखलाई नहीं दिया मानो। आराम से रहती हुई दमयंती को स्थान छुड़ा देने के आशय से ही किसी दुश्मन ने अनुकूल शब्दों का प्रयोग किया है / जंगल जंगल ही होता है, जिसका प्रत्येक प्रदेश, नदी, नाला, बड़े बड़े झाड, पत्थर, बाघ, सिंह, अजगर से व्याप्त होता है / एक बार रास्ता भूल गये, फिरसे उसकी प्राप्ति दुर्लभ बन जाती है, यूथ भ्रष्ट हरिणी सी दशा दमयंती की हुई / चारों सरफ नजर लगाने पर भी अव शब्द भी सुनाई नहीं दिये / बोलनेवाला तथा नल राजा भी दिखाई नहीं दिये / उसी समय दमयंती को बड़ा भारी आघात लगा, तापसनगर भी छुटा, उनका साथ और सगे भाई जैसा वसंतसेठ का साथ भी छुट गया, अब क्या होगा? नहीं पति मिले न स्वजन मिले, अब उभय भ्रष्ट दमयंती थककर एक स्थान पर बैठ गई। दुःख के अतिरेक से जमीनपर लोटने लगी। रोने लगी और पुनः पुनः जोर जोर से रोने लगी। मानो ! क्रुध्द भाग्य भी दुर्बलों का शिकार करने का शौकिन वन गया है / अब मैं क्या करूँ ? कहां पर जाऊं ? पति के -मिलन की तरह उस गुफा का रास्ता मिलना भी असंभव था, क्योंकि जिस तेज गति से वह जंगल तरफ आई थी उसमें मार्ग का ख्याल रखना मुश्किल था, फिरभी हिम्मत रखकर तापसपुर की तरफ जाने का विचार करके उसी तरफ पुनः कदम उठाये। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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