Book Title: Nal Damayanti
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Purnanandvijay

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Page 87
________________ और व्यभिचारी इन्सान परस्त्री को देखते ही चलित होता है, उमा प्रकार आभूषणों को चुराने की दुर्बद्धि होते ही उसे चुराकर पहिने हु" वस्त्रों में छुपाकर भाग गया। इन्सान चाहे कितना ही चालाक हो, तथा। उसकी आंखें गुप्त में गुप्त बात को भी प्रकाशित करने में देर नहीं करत है। चोर तथा व्यभिचारी अपने अपराध को छिपाने के लाखों प्रयत्न कर तथापि उसकी आंखे, ललाट की रेखा तथा पैरों की चाल उसकी चुगल खाये बिना रह नहीं सकती। जब मैं राजपुत्री के आभूषण चुरा रह था, तब राजाजी की आंखों ने मुझे पकड़ ही लिया, क्योंकि दक्षपुरु चाहे कहीं भी बैठा हो तो भी उसकी इन्द्रिये, मन, बुद्धि चारों तर चक्कर लगाती रहती है / रंगे हाथ में पकड़ा गया और आरक्षको / मेरे हाथ पैर में बेड़ी डाल दी, राजाजी ने सली पर चढ़ाने की आज्ञ प्रयुक्त की / उसी समय सर्वथा लाचार बना हुआ मैं दिशाशून्य, किक तंव्यमूढ तथा पागल सा बन चुका था, आंखों में पानी था, हृदय पश्चाताप था। आरक्षको ने मुझे शूली पर ले जाने को प्रस्थान किया इतना होने पर भी मेरी भक्तिव्यता अच्छी होने के कारण शूली प जाते समय भी तुम्हारे दर्शन हुए और दया की याचना करने पर तुम मुझे मुक्त कराया। दूसरी बात यह है कि, जबसे तुमने तापसपुर नगर छोड़ा है, त से विह वल, व्याकुल और उदासीन बने हुए वसंत सार्थवाह ने भोजन पानी को मी त्याग दिया था, परंतु यशोभद्रसूरिजी महाराज ने संसार स्वरुप, ऋणानुबंध तथा भोग्य कर्मों की शक्ति आदि समझाकर स दिनों के बाद उपवास का पारणा करवाया / एक दिन की बात है / वह वसंत सेठ मूल्यवान पदार्थों को लेकर कुबर राजा के यहां गया,' समर्पित की अभिवन्दन किया तब खुश होकर राजाने छत्र चामर यक्त तामसपुर का राज्य समर्पित किया, तब से वह वसंत शेखर ना राजा के रुप में राज्य का संचालन करता हुआ समय पसारकर रहा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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