Book Title: Nal Damayanti
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Purnanandvijay

View full book text
Previous | Next

Page 112
________________ मैं तुम्हें समय-समय पर सावधान करता रहुंगा और जव दीक्षा लेने का समय उपस्थित होगा तब तुम्हे जागृत करूँगा। उपरोक्त बाते करने के बाद उस देवने कहा, पुत्र ! यह श्रीफल (नारियल) तथा मंजुषा को तुम ग्रहण करो तथा अपने प्राणों के तुल्य उसकी रक्षा करना / सावनानी पूर्वक रहना। अरिहंत परमात्माओं को भूलना मत और जब तुम्हे यह विश्वास हो जाय कि, अब प्रकट होने में कुछ भी भय नहीं है तब श्रीफल को तोड़ देना जिसमें से देवदूष्यादि वस्त्रों की प्राप्ति होगी और मंजुषा में से आभूषण मिलेगे, जिसका परिधान करने पर तुम अपने असली स्वरुप में पुनः आ जाओगे / नलराजा को बड़ा आनंद हुआ / देव को कृतज्ञतापूर्वक नमस्कार किया, तथा अनजान में जो भी कटु वचन कहे थे उसकी माफी मांग कर बोले कि, देव ! तुम्हारी पुत्रवधु दमयंती इस समय कहां पर है ? जिस वटवृक्ष के नीचे मैंने उसे त्याग दिया था तो क्या अभी वहीं पर है या अन्यत्र चली गई है ? उत्तर में देव ने दमयंती का सव वृतांत सुनाया और कहा, समय आनेपर वह अपने पिता के घर पर सुखपूर्वक चली जायेगी। अतः उसकी चिंता किये बिना आप अपने दुःखमय समय में सावधान रहना / देव ने फिरसे कहा, वत्स ! इस भयंकर वन में दुःखी बनने की अपेक्षा तुम जहां पर भी जाना चाहो वहीं तुम्हे पहुंचा दूं तब नल ने सुसुमार नगर में जाने की इच्छा व्यक्त की और देव ने राजाजी को उस नगर की सीमा मे छोड़ दिया और स्वयं अपने देवलोक में गये। कुब्ज (वामन) के रुप में सर्वथा कद्रुप शरीरधारी नलराजा सुसुमारनगर के बाहर नंदनवन के सदृश बगीचे में इधर उधर फिरते हुए उनकी नजर सिद्धायतन के समान, अत्यन्त रमणीय एक चैत्य - (जिनेश्वर परमात्मा के मंदिर) पर पड़ी और खुशी के मारे मंदिर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus

Loading...

Page Navigation
1 ... 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132