Book Title: Nal Damayanti
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Purnanandvijay

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Page 111
________________ में उदय में आया और तुम्हें राज्यभ्रष्ट होना पड़ा, धर्मपत्नी दमयंती का चिरवियोग भाग्य में स्हा / ... स्नेहवश तुम्हारे दुःखों के दिनों में मैं भी तुम्हे कुछ सहायक बन सकूँ, इसी विचार से मैंने स्वयं अग्निज्वाला में जलते हुए सर्प का रुप लिया और बचाने के लिए तुम्हें आग्रह किया, तब तुमने मुझे बचाया और मेरे डसने से तुम सर्वथा विरुप बन गये तत्काल में तो, रक्त निकलते घाव पर डाले हुए नमक जैसा दुःख तुम्हें हो रहा है परंतु यह सब बुखार आदि दर्द में जिसप्रकार कटु औषध भी सहायक बनता है, उसी प्रकार मेरे द्वारा की हुई तुम्हारे शरीर की कुरुपत. भी समझ लेना / जिस समय समग्र भारत देश पर तुम राज्य करते थे तब तुम्हारे प्रभाव से सब राजा महाराजा तुमारी सेवा में खड़े पैर तैयार रहते थे, पुत्र! इस संसार का अटल नियम है कि, सुख के दिनों मे सबों की सहायता सुलभ है, उस समय दुश्मन भी मित्र बनकर रहता है, परंतु दुःख, विपत्ति तथा खराब दिनों में, मित्र, भाई तथा दास दासी भी पक्के दुश्मन बन जाते हैं / तुमारी इस दुःखी अवस्था को देखकर दूसरे तुमको पहचान कर कुछ भी उपद्रव न करे तुम्हे हैरान परेशान न करे यह सोचकर मैंने जान बुझकर तुमारे हित के लिए ही माया की रचना की है, जिससे तुम किसी की भी पहचान में न आ सको, इतना ही मेरा उद्देश्य है / इसलिए दुःखी बनना छोड़ दो, तथा दुखों से घबराकर संयम मार्ग स्वीकार करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि "दुख के बाद है सुख की बारी धूप के बाद है छाया" संसार की स्टेज पर बारह वर्ष तो देखते-देखते समाप्त हो जायेंगे तदन्तर राजवैभव तथा दमयंती के साथ का संसार विलास तुमारे भाग्य में आने वाले चिरकाल पर्यन्त लिखा हुआ है अत: भविष्य में आनेवाले भोगावली कर्मों को ख्याल रखकर तथा वर्तमानकालीन दुखों से भयग्रस्त बनकर संयम लेने की शीघ्रता करना भी बेकार है / फिर भी उन सुखों में तुम अपनी सुध-बुध न गमा दो तदर्थ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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