________________ प्रत्यक्ष रुप से तो यह घटना सर्वथा निःशंक करुणा पात्र था फिर भी संसार की माया तथा उसका षड़यंत्र सबों के लिए सर्वथा परोक्ष रहने पाया है कारण कि, संसार की स्टेज पर जब सगा भाई भी दुश्मन से ज्यादा खतरनाक बन सकता है तो कृष्णकाय, भयंकरतम इस नागराज (काला सांप) का विश्वास क्या ? मैं स्वयं ही कर्मों के भारसे दबा हुआ हूँ, जिसका अंत कब होगा ? परमात्मा जाने ऐसी स्थिति में कदाच यह भी मेरा वैरी रहा तो? अथवा और कुछ प्रपंच उपस्थित हो गया तो ? इस प्रकार के विचार आये भी और गये भी क्योंकि भूत तथा भविष्य काल के भले बुरे विचार करने का काम दयालु, परोपकारी तथा मानवतावादी इन्सान का नहीं होता है, और कदाच विचार करके पैर रखे जाय तो भी कृतकर्मो का भगतान तो सर्वथा अनिवार्य है, मेरे भाग्य में यदि राज्यभ्रष्टता तथा धर्मपत्नी के वियोग के उपरांत जो कष्ट भुगतने है, वे तो हर हालत में भी भुगतने ही पड़ेंगे तो फिर जीवमात्र को अभयदान देने के प्रसंग पर आगे पीछे का सोचना सर्वथा निरर्थक है। यह समझकर राजाजीने सांप को बचाने का निर्णय कर ही लिया, परंतु स्वयं के पास कपड़े के अर्ध टुकड़े से ज्यादा कुछ भी नहीं था, अथवा परोपकारी आत्मा अपने शरीर की भी परवाह करने वाले नहीं होते हैं। बचे बचाये उतरीय वस्त्र का मोह रखकर अभयदानरुप परोपकार जैसे मानवीय कृत्यों से किनारा करना भी कायरों का अथवा अधोगामी जीवात्माओं का कर्तव्य है / ऐसा सोचकर अपने उतरीय वस्त्र के अर्ध टुकड़ेमें से आधा भाग फाड़ दिया और उसके एक किनारे (छेड़े) को वृक्ष की डाल पर उसप्रकार से बांधा, जिससे लटकते हुए दूसरे किनारे का सहारा लेकर वृक्ष की डाल पर सर्प आसानी से आ सके / ' भयग्रस्त सर्प ने उसी प्रकार किया और कुछ ऊपर आ गया, परंतु वृक्ष की डाल तक आने में समर्थ नहीं बना तब दनालु राजा स्वयं वृक्ष पर आरूढ़ होकर डाल से संलग्न वस्त्र को पकड़ा और सावधानी 106 P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust