________________ अभक्ष्य, अपेय, निंदनीय व्यापार, व्याज में गबन आदि का त्याग करना दुर्लभ वनता नहीं है। विदर्भ देश के राजा भीमराज के मन में उपरोक्त विचारों की परंपरा आई और गई, उनकी धर्मपत्नी (दमयंती की मां) पुष्पदंती भी उसी समय जयजिनेन्द्रपूर्वक नमस्कार करने पधारी थी। शोकमग्न राजाजी को देखकर रानीजी ने कारण पूछा और उन्होंने नल दमयंती की शोचनीय दशा की बातें कही, जिसे सुनकर रानीजी की आंखों से श्रावण महिने की मेघधारा जैसी अश्रुबुंदे गिरने लगी और बेहोश हो गई। दास, दासी, मंत्री सेनापति आदी की दौड़धाम होने लगी, सभी के दिल में अपार वेदना थी, दिमाग बेकरार था, वातावरण इतना गंभीर बन गया कि, सबके सब किंकर्तव्मूढ़ से बन गये थे / तव मंत्रीजी ने कहा राजन् ! ऐसी परिस्थिति जव कभी भी वनने पावे तव धैर्य रखना ही श्रेयस्कर है, जिससे आगे का कर्तव्य धर्म ख्याल में आ सके। प्रभो! आपत्तिएँ, तो इन्सान पर ही आती है / सुवर्ग भी अग्नि में तप जाने के वाद तथा हथोड़े की मार खाने के बाद मूल्यवान बनने पाता है / उसी प्रकार न्यायनिष्ठ, सत्यवादी तथा धर्मनिष्ठ इन्सानों की भी परीक्षा होती है, उसके पश्चात् ही ब्रह्मचारीयों का ब्रह्मचर्य धर्म, न्यायनिष्ठों का न्यायधर्म तथा सत्यवादियों का सत्यधर्म संसार के इन्स नों के लिए प्रशंसित बनता है, माननीय बनता है, अतः मेरा मानकर, दमयंती को अच्छी तरह पहचान सके वैसे दूत को तपास करने हेतु भेजे जिससे संभव है कि, कहीं न कहीं थोड़े या ज्यादा समाचार मिलेंगे ही, राजाजी को यह बात ठीक लगी और हरिमित्र नाम के राजवटुक को बुलाकर सब प्रकार के आदेश दिये गये क्योंकि यह राजबटुक जन्म से ही दमयंती को अच्छी तरह जानता हुआ होने से दमयंती चाहे किसी भी स्थिति में रही होगी तो भी उसे पहचानने में राजवटुक को कुछ भी कठिनाई नहीं आयेगी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust