________________ 1 चोर की बातें सुनकर दमयंती बोली, 'पुत्रक !' असार संसार का यही स्वरुप है कि, जीवमात्र अपने-अपने स्वार्थों की माया में जीवन पूर्ण करे, तो भी मेरी सलाह यदि तुम्हें रुचिकर लगे तो इस मायावी सार की माया से मुक्त बन जाओ। उसने कहा, 'पूज्य माताजी ! बापका वचन मैं सोलह आना स्वीकार करता हूँ, मतलब कि, दीक्षा देने के लिए पहले से ही मैंने निर्णय कर लिया था। कर्म संयोग से उसी समय पृथ्वी को पवित्र करते हुए दो मुनिराज अचलपुर नगर में धारे और गोचरी के समय दमयंती के प्रांगण में पधारे मुनिराज को खकर प्रसन्नचित्त दमयंती ने श्रद्धा भक्ति तथा उत्साहपूर्वक दोष हित अन्नपानी वहोराया, मुनिराज ने धर्मलाभ दिया / इस तरह तिदिन मुनियों की वैयावच्च करके दमयंती ने उत्तमोत्तम लाभ हासिल कया। एक समय उसने मुनिजी से कहा, प्रभो ! यदि यह इन्सान आपको तदान के योग्य लगे तो उसे दीक्षा दीजिये। जिससे षट्काय की वराधनामय इस संसार से इसका निस्तार सुलभ बने / उत्तर में मुनिजिा ने कहा, भद्रे ! जो इन्सोन तुम्हारी आंखों से पसार हो चुका है। सकी योग्यता में किसी को भी संदेह रखने की आवश्यकता नहीं है, थिति तुम्हारी बात मान कर इस भाग्यशाली को दीक्षा देने के लिए तयार हूँ, उसी समय उसे देवमंदिर में ले जाकर दीक्षा विधी का रंभ किया और वह मुनि बना। - इस प्रकार वनवास दरम्यान में दययंती ने जिस प्रकार से दूसरे नावों का हित हो सके, उसे तन, मन तथा धन से किया। उसमें भी मथ्यात्व से घोरतिघोर अंधकार में से दूसरे जीवों को सम्यकदर्शन के काश में लाना, अज्ञानरुपमृत्यु से बचाकर सम्यक् ज्ञान का अमृतपान राना तथा दुराचार मिथ्याचार रुप दावानल से बचाकर सम्यक् बारित्ररुपी अमृतवर्षा से प्लावित करना यही उत्तमोत्तम अभयदान है। दूसर दानो से क्षणिकतप्ति होती है, जब रत्नत्रयी की आराधना जीव P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust