Book Title: Nal Damayanti
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Purnanandvijay

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Page 74
________________ वनेगा, इस तव चौवीसी में ओगणीसवें मल्लिनाथ प्रभु के दर्शन करने के बाद प्रव्रज्या, केवल ज्ञान और मोक्ष को तुम प्राप्त करोगे। तव से मैंने मल्लिनाथ प्रभु का विंब वनवाया, तथा बड़ी श्रद्धा से उनकी पूजा, पाठ करता हूँ। तत्पश्चात् श्रावकजी ने पूछा, 'हे भगिनी !' आप कौन है ? कैसे पधारी ? तत्र दमयंती ने पति के वियोग आदि का सव वृतांत कह दिया। श्रावक भी करुणाजनक वृत्तांत सुनकर अश्रुपूर्ण नयनों को साफकर मेरे दःख में समवेदना प्रगट कर बोला कि, 'हे वहन !' शोक संताप मत करो, कर्मों का फल भुगतना अनिवार्य है। धनदेव सेठ पिता के तुल्य है तथा मुझे भाई समझना, यहीं पर रहो और धर्म की आराधना सुखपूर्वक करो, दुःखों का अन्त करने में धर्य के अतिरिक्त दूसरा कोई समर्थ नहीं है। - क्रमशः चलते हुए अचलपुर नगर भी आ गया दमयंती को वहीं पर जोड़कर सार्थवाह आगे बढ गया। - सतीत्व का अचिन्त्य प्रभाव पुनः एकाकिनी बनी हुई दमयंती भी दिशाशून्य हरिणी की तरह कुछ आगे बड़ी और एक वाव को देखकर तृषा की शांति करने इतु वाव में उतरी और अन्तिम पगथिये पर पानी पीने को बैठ गई, रधोने के इरादे से दमयंती ने अपना पैर पानी में रखा / उसी समय एक मगर आया और उस पैर को मुंह में रखकर दमयंती को खिंचने लगा / दमयंती को ख्याल आया कि मेरा पैर किसी जलजन्तु ने पकड़ रखा है। कुदरत का भी न्याय है कि, दुःखियों के ऊपर ही एक दुःख पूरा होने भी नहीं पाता तब तक दूसरा दुःख टूट पड़ता है। इन्सान मात्र के लिए संकट के समय में नमस्कार महामंत्र ही चमत्कारी बनता है / जैसे ही दमयंती ने नमस्कार मंत्र का प्रारंभ किया, उसी समय परमात्मा की मेहरबानी समझो कि मगर को बगासा आया और उसने अपने पैर को खिचकर उपर लिया। मृत्यु के मुख से बची हुई उसने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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