________________ भयकर स्थान में फंसे हुए इन्सान को पूर्वभवीय पुण्य ही साथीदार वनता है, अन्यथा उसकी पढ़ाई, चालाकी, सफाई आदि उससे विश्वासघात करने में देर नहीं करते / पुण्य भी विशेष तथा सामान्य रुप से दो प्रकार का है. जिसमें प्राणातिपात, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह का त्याग हो अथवा उसके त्यागी की सेवा हो वह विशेष पुण्य कहलाता है, फलस्वरुप आनेवाले भवों में उसे अच्छा खानदान, रुपसंपत्ति, तथा भौतिक साधन प्रचुर मात्रा में मिलने से आर्तध्यान रहित वह पुनः जैनधर्म की आराधना करके उत्तरोत्तर कल्याण परम्परा प्राप्त करेगा। सामान्य पुण्य से भी मनुष्यावतार मिलेगा परंतु हिंसक और निंदतीय खानदान, कद्रुप शरीर, गंदे स्थानों में मकान तथा खानपान की असहय तंगी आदि से उसका जीवन उन-उन पदार्थों को प्राप्त करने की लालसा में आर्तध्यानी और रौद्रध्यानी बनकर रोते-रोते जीवन को समाप्त करेगा। अतः संसार की माया को बिजली के चमकारे जैसी समझकर धर्मध्यान की भावना में जीवनयापन करना ही मनुष्य जीवन का, बुद्धि का, ज्ञान-विज्ञान का फल है / छोटा बच्चा भी समझ सके ऐसी दमयंती की बातें सुनकर सब के सब अत्यधिक प्रसन्न हुए / सेठ को बडा भारी आनन्द इसलिए हआ कि, वनवास के समय में भी ऐसा सुपात्र जीव अपने बीच में अतिथि रुप में आया है। दमयंती के प्रति सबों का सदभाव बढ़ने पाया। इस प्रकार धर्मगोप्ठी समाप्त हात ही सब अपने-अपने स्थान पर गये और परमात्मा का ध्यान करते हो निद्राधीन हुए। अहोरात्र में दिन तथा रात्रि के कार्यक्रम योगी और भागो के पृथक् होते हैं / भोगी दिन के समय कार्यरत होता है, और रात में निद्राधीन बनता है. जब योगी दिन में कुछ निद्रा करता है और रात में परमात्मा का ध्यान, आत्मा के चितवन तथा संसार के स्वरुप का मनन करता हुआ रात्रि पूर्ण करता है। इस सार्थ में भी एक भाग्यशाला गृहस्थ बड़े मधुर स्वर से नमस्कार महामंत्र का उच्चारण कर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust