Book Title: Nal Damayanti
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Purnanandvijay

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Page 80
________________ दमयंती दासियों के साथ नगर तरफ चलने लगी / वे पुनः बोली, तुम हमारी महारानीजी की पुत्री हो, अतः हमारे लिए भी पूज्या बनने पाई हो अतः तुम्हारा गौरव रखना हमारा आद्य कर्तव्य रहेगा / विनय पूर्ण भाषा सम्पन्न दासीयों की तरफ दमयंती प्रेमल बनी। व्यक्ति का दिमाग प्रतिक्षण नये-नये संकल्पों को करता रहता है, दमयंती की जनेता पुष्पदंती की सगी भगिनी यह चन्द्रयशा रानीजी थी इसीलिए उसके हृदय में आनन्द और संकोच का प्रादुर्भाव एक ही साथ इआ। आनन्द इसलिए कि, मौसी का घर मेरा ही घर है, आज इधर पा रही हूँ तो कलह तेरी माता तथा पिता का भी मिलना सुलभ बनेगा कोच इसलिए की मस्तकपर विपत्तियों के मेघ पूर्ण ताकत से तोफान कर रहे हो तो सगे स्नेहियों के घर पर जाना भी जोखम है। इतना ग्याल रखकर दमयंती ने निर्णय किया कि, मुझे खूब संभलकर अप्रकाशित ही रहना है / इसप्रकार के संकल्प आये गये और राजमहल भी आ या, रानीजी स्वयं महल के मुख्य द्वार तक आ गई थी, दमयंती ने भी रानी को जयजिनेन्द्र पूर्वक नमन किया, और महल में प्रवेश किया। जसे देखकर उसे आनंद का पार न रहा। पूछताछ करने पर दमयंती ने कहा मैं वणिक्पुत्री हूँ पति के साथ ग्रामान्तर कर रही थी, तब थकी हुई मैं जब एक वृक्ष के नीचे निद्राधीन थी, तब मेरा पति मुझे छोड़कर अन्यत्र चला गया है / बात सुनकर रानीजी गद्गद् हो गई। दमयंती को छाती से लगाई और बोली, बेटी ! किये कर्मों की जाल अवश्य भोक्तव्य होने से उसके उदयकाल में धीरज रखना ही उत्तम उपाय है / क्योंकि "बिपत्ति बडन को होत है छोटे से अति दूर" तुम्हारा ललाट ही जाहिर करता है कि, तुम सामान्य स्त्री नहीं हो क्योंकि विनयविवेक की प्रादुर्भुति विशेष में ही होती है, सामान्य में नहीं / अब तुम इस बात का ख्याल रखना यह मकान तुम्हारा ही है। धर्म, देवदर्शन, मुनि तथा साध्वी समागम, सामयिक, ध्यान, जाप, दानपुण्य आदि सब P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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