Book Title: Nal Damayanti
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Purnanandvijay

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Page 59
________________ वन गया, भयंकर पीड़ा को 6-7 दिन तक भुगतने तथा भूख और प्यास के मारे मैं अर्धमृत-सा बन गया, तथापि तापसों ने मेरी खबर नहीं ली। मेरा क्रोध भी उनपर चौगुना हो गया और क्रोध से धमधमाते हुए मेरे मन में लेश्या भी बिगड़ने लगी और मेरा चले तो मैं उनको जीवित भी नहीं रहने दूं। इस प्रकार क्रोध की माया में दुर्ध्यान करता हुआ मैं मरा और तापसों पर अत्यधिक क्रोध होने के कारण आश्रम के पास ही काले सर्प के अवतार में अवतरित हुआ। पूर्व भव की क्रोध की माया ने मुझे इस भव में भी न छोडा अतः आश्रमवासी तापसों को देख देखकर मेरा क्रोध मर्यादा से बाहर हो जाता था, तब फणा चढाकर उनको डंख देने का निर्णय मैंने किया / जिस समय मेरे अणु-अणु में क्रोध की ज्वाला भड़क रही थी, आंखों में लालास आ चुकी थी, लोही के बूंद-बूंद में अपमान का बदला लेने का भाव बन चुका था / नमस्कार महामंत्र का प्रभाव - उसी समय तापस तथा सार्थवाह के सामने आप जो नमस्कार महामंत्र का पाठ बोल रही थी, उसे सुनकर मेरी गति मंद पड़ गई। नमस्कार महामंत्र के अक्षर मेरे कान में पड़ते गये और मेरा मन मानों पवित्र बनता गया / जैसे कोई मंत्रवादी अपने मंत्रोच्चार से सर्प को बांध लेता है, उसी प्रकार मुझे भी इन मंत्राक्षरों ने मेरे लोही को ठंडा कर दिया, बदला लेने की भावना समाप्त हुई, तथा आत्मा में तूफान मच गया कि, 'वैर का बदला वैर से, क्रोध का बदला क्रोध से, तथा अपमान का बदला अपमान से लेना इस भव को तथा परभवों को भी विगाड़ने वाला होता है / " ऐसा ख्याल आते ही मैं समाधिस्थ बना और गुफा में चला गया, तथा निर्दोष वृति से जो भी मिला उससे निहि करता रहा / जिस गुफामें था उसके पास की गुफा में आप थीं। जितनी भी चर्चा चलती उसे मैं ध्यान से सुनता था। एक दिन धर्म के रहस्य को समझाते हुए आपने कहा, जीव हिंसा करना महापाप इसलिए है कि, मरन P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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