________________ वाला जीव मारनेवाले का शत्रु बनता है और आनेवाली भवपरंपरा म उसका बदला जरुर लेता है, अतः सव जीवों के प्रति अभयदान का भावना ही श्रेष्ठ धर्म है / शरीर की पुष्टि, जीभ की परवशता, धर्म को अनभिज्ञता तथा संप्रदाय की व्यामोहता के कारण की हुई, जीवहिसा कभी भी धर्म का स्वरुप लेती नहीं है। परंतु पापोत्पादक, पापवर्धक तथा पापपरंपरक ही वनी रहती है। मनुस्मृति में मनु महाराज ने भी कहा, 'जीव' मारनेवाला, मरानेवाला, मांस बेचनेवाला, पीरसनेवाला, पकानेवाला और खानेवाला भी जीव हत्या के पाप का भागीदार है / साफ-साफ सुनाई हुई ऊपर की बातों पर भी मैंने सोचा कि, मेरा अवतार हिंसक होने से आजपर्यंत मैंने कितने ही निर्दोष जीवों को काटा, मारा तथा खाया है, इसलिए मेरे जैसा पापी दूसरा कौन ? अव मेरी क्या गति होगी ? ऐसा विचार करते मुझे कुछ ज्ञात होने लगा कि, “इन तापसों को मैंने कहीं पर देखा जरुर है" इन विचारों - में जव मैं तन्मय बन गया तव मेरे ज्ञानावरणीय कर्मों की परंपरा कुछ टूटने लगी और जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हुआ। इस ज्ञान से मेरा पूर्वभव तथा उनकी करणी स्पष्ट रुप से दिखने लगी। अज्ञान के कारण देवदुर्लभ मनुष्यावतार, तपस्वी जीवन, पंचाग्निसेवन, रुद्राक्षमाला आदि अनुष्ठान भी मेरे क्रोध के कारण बेकार हुए, जिससे संन्यासी अवस्था से भ्रष्ट होकर निकृष्टतम हिंसक अवतार मिला / यह सब क्रोध का फल है, ऐसा निर्णय करने पर मुझे संसार की माया काली नागिन सी दिखने लगी, जीवन विजली के चमकारे जैसा, आयुष्य नदी के प्रवाह-सा लगा - और मुझे वैराग्य उत्पन्न हुआ। अब से एक भी पाप करने का अवसर - मिलने न पावे इसलिए खान-पान आदि पापजनक तथा पापजन्य माया को छोड़कर मैंने अनशन प्राप्त किया। उसी के प्रताप से मेरा हिंसक - अवतार खतम हुआ और अरिहंतों का ध्यान करते मैंने देव अवतार प्राप्त किया / इस समय मैं पहले देवलोक में देव बना हूँ / शास्त्रकारों P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust