Book Title: Nal Damayanti
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Purnanandvijay

View full book text
Previous | Next

Page 62
________________ "हे कुलपति, मुझे भी संसार चक्र से बाहर निकालने वाले ये यशोभद्रसूरिजी जो मेरे दीक्षागुरु हैं, वे तुम्हें महाव्रत देंगे अतः निःशंक बनो। उपरोवत कथन पर खुश तथा विस्मित बने कुलपति ने फिर से पूछा, 'हे केवलज्ञानिन् प्रभो !' आप फरमाइए कि, राजकुटुंब में जन्मे हुए आपको वैराग्य कैसे हुआ ? दीक्षा क्यों तथा कैसी परिस्थिति में स्वीकारी ? उत्तर में केवली ने कहा, 'हे कुलपति !' चरमावर्त तथा अचरमावर्त रुप से संसारी जीव के दो भेद हैं / आज पर्यंत जो जीवात्मा चरमावर्त में प्रविष्ट नहीं हुआ है, उसको उत्तम खानदान आदि धर्मसामग्री मिलने पर भी उसे आत्मसात् करने में उन्हें थोड़ा भी रस नहीं है। जबकि अकाम तथा सकाम निर्जरा द्वारा इन्सान के बहुत कुछ पाप कर्म खतम हो जाते हैं, तब उसे चरमावर्ती कहते हैं। जिससे उन जीवों को अरिहंतों का पूजन, पाठ, सामायिक, प्रतिक्रमण, नवकारशी आदि तप की प्राप्ति होती है, उसमें से जो आसन्नभव्य होते हैं, उन्हें दीक्षा की प्राप्ति तथा उसकी आराधना सुलभ बनती है। | मैं कोशल देश के नलराजा के छोटे भाई कूबर राजा का पुत्र हूँ। जब मैं यौवन' अवस्था में आया तव संगानगरी के केशरी नाम के राजा ने बन्धुमती नाम की अपनी पुत्री का सगपण मेरे साथ किया / मैं भी मेरे पिता की आज्ञानुसार उससे हस्तमिलाप करने हेतु बड़े आडम्बर पूर्वक वहाँ गया / वर राजा बनकर तोरण पर आया, पश्चात् लग्नमंडप में आया और बड़े हर्षोल्लास पूर्वक मेरा लग्न (विवाह) हुआ। रुपवती था लज्जावती कन्या को पत्नीरुप में प्राप्त करने का मुझे बड़ा आनंद था गौरव' था। दहेज में मुझे अपस्मित धनराशी मिली फिर भी मच्छी स्त्री मेरे घर आई उसका मुझे ज्यादा आनंद था। हीरे-मोती गादि का जेवरात और वस्त्रादि तो मेरे पिता के पास भी बहुत था, पथवा मैं भी द्रव्य कमाने की दक्षता रखता था, परंतु दहेज को नजर i रखकर लग्न करना, वह लग्न की क्रूर मश्करी (मजाक) है, संसार 61 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

Loading...

Page Navigation
1 ... 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132