Book Title: Nal Damayanti
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Purnanandvijay

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Page 57
________________ का पार न रहा / शीघ्रता से पर्वत की भूमि पर आई और द्वादशावर्थ वन्दन तथा स्तवन किया और योग्य स्थान पर बैठ गई / उसी समय केवली भगवंत के दीक्षागुरु श्री यशोभद्रसूरिजी भी सिंह केशरी मुनि को केवल ज्ञान हुआ है, यह सुनकर वहाँ पधार गये और केवली को वन्दन कर यथायोग्य स्थान पर बिराजमान हुए। - करुणासागर केवली भगवंत ने हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह क्रोध, मान, माया, लोभ, परपरिवाद, राग, द्वेष, पैशून्य, अभ्याख्यान मायामृषावाद तथा मिथ्यात्व आदि अधर्म के मर्म को भेदनेवाली धम देशना देते हुए फरमाया कि, अनंतभवों में भटकते हुए जीवों को मान वता युक्त मानव अंवतार की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है / जब कि राधावेध अवसर के समान उसे प्राप्त करने का प्राप्त हुआ है / तो श्रेष्ठतम् अपना मनुष्य जीवन सफल बने वही उपाय ढूंढने चाहिए, समझने चाहिए और उसको जीवन के अणु-अणु में उतारने चाहिए / अत्यंत परिश्रम से लगाये हुए बगीचे की रक्षा जिस प्रकार विवेकी व बुद्धिशाली करता है, उसी प्रकार जब तक इंद्रिये कमजोर न पड़े, शरी शिथिल न होने पावे, तथा आयुष्यकर्म सहायक बना रहे तब तक कर्मों से, पापों से मुक्ति प्राप्त करवाने वाले दया प्रधान जैन धर्म के आराधना करना ही मनुष्य जीवन का फल है अन्यथा क्षणभंगुर भौतिक पदार्थ इन्सानियत को नाश करके मृत्यु को भी विगाड़नेवाले बनेंगे श्रोताओं के कान में अमृतसमान जैन धर्म का उपदेश देकर केवली ने तापसों के गुरु कुलपति से कहा, दमयंतीने आपको जैनधर्म की रुपरेख जो बतलाई है, वह सत्य है, क्योंकि अरिहंतों के प्ररुपित धर्म के रास्तेपन चलनेवाले व्यक्ति. मिथ्याभाषण करते नहीं हैं। दमयंती सती है जन्म से जैन धर्म की उपासिका है। जिसके जीवन का चमत्कार तुमने प्रत्यक्ष देख लिया है। इसके हुंकार में वह शक्ति है, जिससे सार्थवाह की रक्षा कर पाई है, अतः भयंकर अरण्य में रहने पर भी देव-देवं आदि उसका सान्निध्य करते हैं। P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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