________________ तीर्थ पर जाकर अपने हाथों से चढते परिणामों में रानीजीने एक-एक भगवान को तिलक लगाकर आभूषण पूजा का अद्भुत लाभ प्राप्त किया। मंदिर से बाहर आने पर चारण मुनिराज भी तीर्थयात्रा करने पधारे हैं, ऐसी जानकारी मिलने पर राजारानी ने मुनिराजों को आहार पानी देने का अभूतपूर्व लाभ लिया। और पुनः अपने महल में आये / धर्म की आराधनामें एकमत वाले राजारानी ने समाधिपूर्वक मनुष्यावतार पूर्ण किया और देवलोक में देवदेवीं का अवतार धारण किया, क्योंकि अरिहंत परमात्माओं की जल, चन्दन, दीप, धूप, फल, फुल तथा आरती मंगल दीप करनेवाला भाग्यशाली गृहस्थ भी वैमानिक देवयोनि प्राप्त करते हैं / वहाँ देवसुखों को भी क्षण विनश्वर मानकर तीर्थकरों के पंच कल्याणक की आराधना करते हैं / तथापि आयुष्यकर्म की बेड़ी के बंधन में बंधे हुए होने से "क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति" इस न्याय से उनका भी पतन सर्वर्था अनिवार्य है। तीसरा भव इसीलिए मम्मण राजा का जीव देवलोक को छोड़कर पोतनपुर नगर में धम्मिलास नाम के आभीर (रवारी) के यहाँ अवतरित हुआ जिसका नाम 'धन्य' रखा गया है, तथा वीरमती का जीव देवलोक से च्यत होकर घुसरी नामं की रवारी कन्या बनी जो धन्य के साथ विवाहित हुई / पुण्यकर्मी जीव होनेसे रबारी के अवतार में भी दम्पती, सुख सम्पन्न, हास्यशील परोपकारी, भद्रिक तथा विनीत थे / फिर भी उनका मूलपेशा (धंधा) गाय आदि जानवरोंका पालन तथा उनको चराने के लिए जंगल में जाना और सायंकाल पुनः घर पर आना। इसी नित्य क्रमानुसार वह धन्य जानवरों को चराने के लिए जंगल में जाता था। एक दिन वर्षा ऋतु का आगमन हुआ और तीन-चार दिनों तक लगातार मुसला. धार वर्षा हुई , नदीनाले भर चुके थे तथापि जंगलमें गया अपनी -C...RAaradhakTrus