Book Title: Nal Damayanti
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Purnanandvijay

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Page 51
________________ पहुँचा दूं। जिससे इस भयंकर वनवास का दःख हलका भी हो जायगा। अब जैसा तुम कहो उससे मानने के लिए मैं तैयार हूँ। __दमयंती ने कहा, 'देव !' तुम्हारा कहना गलत नहीं है, परंतु सब जीवों की आचारसंहिता एक नहीं होती अतः तुमने मेरे पर कृपा करके मेरे पति की बात कही उसी से मैं वड़ी प्रसन्न हूँ, इसके अतिरिक्त दूसरी प्रसन्नता से मैं विमुख हूँ, क्योंकि मेरे लिए तुम परपुरुष होने से तुम्हारे साथ आना यह मुझे तथा मेरी खानदान की आचारसंहिता को मंजूर नहीं है / अव रही वनवास के दुःख की बात सो तो भैया / दुःख ही इन्सान के जीवन की, उसके ज्ञानविज्ञान की तथा उसकी खानदान की कसौटी है। मैं तो परमात्मा से प्रार्थना करती हूँ, 'हे प्रभो !' इसी मनुष्यावतार में मुझे हजारों प्रकार के दुःख देना परंतु उस दुःख को सहन करने की शक्ति भी देना / इसलिए तुम जाओ / मार्ग में तुम्हारा कल्याण हो। इस प्रकार शुभाशीर्वाद पूर्वक दमयंती ने राक्षस को विदा दी। उसे भी बड़ी भारी खुशी थी, अपने जीवन में स्त्रियां तो बहुत देखी थी, परंतु दमयंती जैसी नहीं, जो महासंकट में फँसी हुई है, तो भी बड़े चैन से अपने दिन को काटने में समर्थ है / धन्य है, पतिव्रत धर्म पालनेवाली को जिसके पुण्य प्रभाव से संसार में सुख, शांति तथा समाधि है / शास्त्रों में लवण समुद्र के मध्य रहे हुए शाश्वत पातल कलशों का वर्णन आता है, वे सब पवन के वेग से समय पर चलित होते है, तब उसमें रहा हुआ पानी समुद्र में गिरता है और तूफान आता है, उसे भरती (ज्वारभाटा) कहते हैं, जो बड़ी भारी खतरनाक तथा पूरे संसार को जलसमाधि कराने में पूर्ण समर्थ होती है। परंतु धर्म, धार्मिक महाव्रतों और देशविरति धर्म तथा शियल संपन्नमहापुरुषों के पुण्यप्रभाव से करोड़ों की संख्या में देवता उस समुद्र के वेग को रोक लेते हैं, अन्यथा जलप्रलय होने में कितनी देर ? यही कारण है कि, रुपवान, श्रीमंत तथा सत्ता संपन्न इन्सान से भी इन्सानियत बड़ी है / दमयंती ने P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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