________________ तदंतर राजारानी ने भी व्रतधारिओं के साथ अपना संसर्ग बढा दिया, बारह व्रतों की आराधना में मन को लगा दिया। कृपण इन्सान जैसे अपने धन में हानि नहीं होने देता है, उसी प्रकार राजारानी ने अपने व्रतों में अतिचारों को लगने नहीं दिया, कदाच प्रमादवश अतिचार लगे ही तो सामायिक प्रतिक्रमण पूर्वक मिच्छामि दुक्कडं और फिर से अतिचार लगने न पावे उसके लिए सावधानी पूर्वक व्यवहार करने का निर्णय किया। एक दिन रानी वीरमती को जैनधर्म में ज्यादा स्थिर करने के लिए शासनदेवी आई और रानी को अष्टापद पर्वत पर ले गई। वहाँ पर देव-देवेंद्रों से पूजित भगवंतो की भव्यातिभव्य प्रतिमाओं को देखकर तथा भावपूर्वक वन्दन कर प्रसन्नीभूत रानीजी पुनः अपने महल में आई। भविष्य में केवल ज्ञान की मर्यादा में आनेवाले जीवों को तपश्चर्या आदि द्वारा अपने कर्मों का घात करने का भाव अत्युतकट हो जाता है। तभी एक-एक परमात्मा की आराधना हेतु 24-24 आयंवील किये अर्थात् 24424 = 576 आयंबील तप तथा बीच बीच में बेला तेला भी करने में प्रमाद नहीं किया / तीर्थस्थानों की यात्रा जिनबिबों का पूजन, मुनिओं का सेवन साते क्षेत्रों में धनव्यय तथा दया, दान आदि सत्कार्य जैनत्व में स्थिर कराने के हेतु माने गये हैं / एक दिन रानीजी को विचार आया कि. यद्यपि भरत चक्रवर्ती ने निर्माण किये जिन मंदिर में तथा बिंबों में अब कुछ भी करने का शेष नहीं रहा है, तथापि उनके ललाट पर रत्नजड़ित सुवर्ण तिलक यदि गवा दिये जाय तो मूर्ति की चमक द्विगुणित हो जायगी, ऐसा नमझकर राजा से कुछ भी लिए बिना अपने में से ही अच्छे कारीगरों = पास तिलक करवाये और शासनदेवी की सहायतासे परिवार सहित P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust