Book Title: Nal Damayanti
Author(s): Purnanandvijay
Publisher: Purnanandvijay

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Page 16
________________ हैं तथा मैं इसी भव में मोक्ष प्राप्त करुंगी। अतः आपका मेरा छ:-छः भवों का संबंध इस सातवें भव' में छूट जावे तो भी आप अपनी उदारता मत छोड़िये, ऐसा कहकर राजकन्याने अपना मस्तक कुवेर को झुका दिया / समझदार देवने भी वसुदेव से अपनी मुद्रिका ले ली। तब वसुदेव भी अपने असली स्वरुप में परावर्तित हो गये / यह देखकर दिल में खुशीयां मनाती हुई राजकन्या ने झांझर की झनाकार के साथ अपनी वरमाला वसुदेव के गले में स्थापित की तब आकाशस्थ देव देवीओंने भी कनकवती के मस्तकपर पुष्पों की वर्षा की। प्रसन्नचित्त कुबेरने भी राजकन्या के घर पर सुवर्गमुद्रा की वर्षा की और विधि विधान पूर्वक राजकन्या का हस्तमिलाप वसुदेव के साथ सम्पन्न हुआ। तदन्तर वसुदेव ने कुबेर से पूछा कि, मनुष्य कन्या के स्वयंवर में आप जैसे देव को आने का प्रयोजन मुझे कुतुहलसा लग रहा है, अतः कृपाकर आपके आनेका कारण बतलावें जिससे कुछ भी जानने को मिलेगा / तब कुबेर ने अपना तथा कनकवती का पूर्वभवीय संबंध इसप्रकार कहा : इसी भारत देश में स्थित 24 तीर्थकरों के शरीरप्रमाण अर्हत् बिम्बों में समलंकृत अप्टापद महातीर्थ के समीप संगर नामका नगर है। उसमें मम्मण नाम का राजा तथा वीरमती नाम की राणी थी। एक दिन अपनी वीरमती पत्नी के साथ वह राजा शिकार करने के लिए जिस रास्ते से जंगल में जा रहा था, उसी मार्ग पर से एक बड़ा भारी सार्थवाह (व्यापारी) अष्टापद तरफ जाते हुए दृष्टिगोचर हुआ। सम्यग्दृष्टि और सम्यग्बोध न होने के कारण हाथी, घोड़े, उंट, बलद, बैलगाड़ीएँ तथा पैदलचलनेवालों को जाने दिया, परंतु सब के पीछे चलनेवाले एक मुनिराज को देखकर राजारानी के मन में दुर्भाव हुआ, और सोचा कि शिकार के वास्ते जाते हुए मुझे इस साधु का अपशकुन हुआ, ऐसा समझकर परमपवित्र मुनिराज को सार्थवाह के टोले से छूटा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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