________________ तरफ प्रस्थान किया और चारों तरफ से उस नगरी को घेर लिया कदंब राज भी ससैन्य बाहर आया और दोनों राजाओं की सैन्य एक दूसरे पर टूट पड़ा। "इस रण मैदान में कितने ही निर्दोष मनुष्यों के तथा मूक प्राणीओं के संहार में मैं निमित्त बनूंगा। यह समझकर दयालू नलराजा ने कदंबराज से कहा. निरर्थक इतने प्राणीओं के हनन से लाभ क्या होगा? अतः अपन दोनों ही आपस में लड़े. क्योंकि अपने दोनों के युद्ध से हारजीत का निर्णय हो जाता हो तो इससे उत्तम दूसरा क्या ? कदंबराजने भी मान लिया और जंगम पर्वत के समान दोनों ही आपस में मुष्टि-मुष्टि हाथा-हाथी, तलवार, आदि से लड़े / कदंबराज ने जैसा भी कहा नलराजाने मंजूर किया फिर भी नलराजा के सामने कदंब को हार खाने की नौबत आने लगी, तब उसने सोचा, यद्यपि मैं नलराजा से हारा = जा रहा हुँ तथापि निरर्थक मृत्यु को प्राप्त होने की अपेक्षा पलायन होकर महाव्रतों का स्वीकार करना सर्वश्रेष्ट है “भविष्यकाल सुधरता हो , महाव्रतों की प्राप्ति होती हो तथा जन्म जरा और मुत्यु से छुटकारा होता हो तो पलायन भी कल्याणकारी है "ऐसा सोचकर कदंबराज रगमैदान से पलायन हुए तथा महाव्रतधारी बनकर कायोत्सर्ग मुद्रा में प्रतिमा धारण की और एक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ हो गये। नानाविध झंझटों से पूर्ण इस संसार में हार, द्रव्य हानि, पत्नीमरण, मातापिताओं का वियोग आदि तत्व सबों के लिए एकसे ही है / किसी को जीवन के आदि में दूसरे को जीवन के मध्य में और तीसरे को जीवन की सन्ध्या में आपत्तियें आये बिना रही नही है। ऐसे प्रसंगों में रोते चिल्लाते जीवन बिगाडने की अपेक्षा जिन जिन कारणों से विपत्ति आई हो वे सब कारणों को मान-अपमान की परवा किये बिना छोड़कर दीक्षित, संयमधारी बनकर परमात्मा श्री अरिहंत देव की शरण स्वीकार करना ही ज्ञान, विज्ञान तथा समझदारी का फल है / कदंबराज ने बड़ी 27 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust