________________ - राक्षस की पराजय / रास्ते में एक राक्षस मिला जिसका शरीर निम्नलिखित था, बालपीले थे / हाथ के नाखुन कातर जैसे थें / तालवृक्ष के तुल्य लंबे तथा पतले पैर थे। अमावस्या की रात जैसा शरीर श्याम था। सिंह के चाम से शरीर आवृत्त था। ऐसे भीषणाति भीषण राक्षस को देखकर दमयंती को भय लगना स्वाभाविक था, परंतु जो आत्मसंयमी है / इन्द्रीय स्वाधीन है / मन, धर्म की मर्यादा में है / व्यापार तथा व्यवहार सत्यमय है। भाषा में विवेक तथा जीवन में विनय है / तथा लोही की बूंद बूंद में धार्मिकता है। उसके पास भय भी लाचार तथा बेचारा बन जाता है। राक्षसने दमयंती से कहा, तीन चार दिनों से मैं भुख के मारे पीडित हूँ और विना परिश्रम के आज तुम मिल गई हो तो में तेरे शरीर का भक्षण करके पारणा करूँगा / और संतुष्ट बनुंगा / तुम्हारे जैसा कोमल शरीर आज तक किसी का भी देखने में आया नहीं है, अतः तुम्हारा भक्षण करते हुए मुझे देर भी न लगेगी। तब धैर्य की धारण करती हुई दमयंती ने कहा, 'राक्षस ! प्रथम मेरी बात सुन लो फिर उसका विचार करो उशके बाद तुम्हें जो उचित लगे वही करना इतनी प्रस्तावना के बाद बड़ी मक्कमतापूर्वक दमयंती बोली, . जातस्य हि ध्रुवं मृतुरकृतार्थस्य मृत्यु भीः / आजन्म परमार्हत्याः कृतार्थास्तु सा न मे // परस्त्रियं माँ स्पृश मा स्पृशन्नपि न नंदसि / मामाकोशेन मूढात्मन्नेषास्मि विमृश क्षणम् // राक्षस पहिले तू इतना समझ ले कि, " राक्षस, देवयोनि का देव होने से वह कभी भी पशु का या नर का मांस खाता नही है "फिर भी निकृष्टतम व्यंतरयोनि का देव यदि कुछ करे तो वह केवल पशु या नर हत्या का ही भागीदार बनेगा, परंतु मांस का खानेवाला वह कभी भी बनता नहीं है, इस प्रकार की जैनी वाणी को मिथ्या करने की ताकत किसी में P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust