________________ जन्म लेनेवाली कन्या अपने पूर्वभव में अष्टापद तीर्थपर रहे हुए 24 तीर्थकर परमात्माओं के ललाट पर रत्नजडित सुवर्ण तिलक लगाये थे, उसी पुण्य का कारण था कि, कन्याके ललाट पर अंधकारमें भी फुललाइट के माफिक प्रकाशित तथा सूर्य के समान चमकता हुआ तिलक था। मानो सुवर्ण मुद्रिका में जडा हुआ हीरा हो / गत भवों में मुनिराजों को दिये हुए दान के प्रभावसे पुण्याति शायी संतान जिस घर में भी जन्मती है, उसके घर में सब प्रकार से वृद्धि ही होती है। राजा भी धन्य, धान्य, यश, कीर्ति तथा प्रताप से द्विगुणित हुआ। . रानीजी को आये हुए स्वप्न के अनुसार पत्री का नाम दवदंती रखा परंतु आगे जाकर दमयंती के नाम से प्रसिद्ध हुई।। / दमयंती का रुपगरिमा . अहिंसा, संयम तथा तपोधर्म की पूर्वभवीय आराधना का वल ज्यादा होने से दमयंती का रुपरंग प्रशंसनीय था, लावण्य अपूर्व था, श्वासोश्वास कमलसा सुगंधी था, वेणी कालीनागण सी थी, हाथ और कान लंबे थे, ललाट अष्टमी के चंद्र के समान था, मध्यभाग मुष्टिग्राहय था, देहयष्टि शोभनीय तथा मनोहरणीय थी, दाडम के दाने के समान दांत थे, चाल हाथनी सी तथा आँखें हिरणी को शरमिंदी बनावे वैसी थी / आमुष्य तथा शरीर से दूज के चंद्र के समान बढती हुई वह कन्या जब आठ वर्ष की हुई, तब चरित्र सम्पन्न कलाचार्य (पंडित) के पास पढने का प्रारंभ हुआ। पढ़ाने वाला पंडित केवल साक्षी मात्र ही था, क्योंकि निरतिचार देशविरति धर्म आधारित होनेसे कन्या का मतिज्ञानवरणीय कर्म लगभग समाप्त था और पुनः उसके बंधन का भी लगभग अभाव' था। यही कारण था कि, दमयंती को देखते देखते सव कलाएँ हस्तगत होने में देर न लगी। शस्त्र तथा शास्त्रविद्या उपरांत कर्मग्रंथ की प्रकृतिएँ गिनने में प्राविण्य, स्याद्वाद सिद्धांत में नैपुण्य P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust