________________ कराने हेतु रोक लिया, इसप्रकार बारह घड़ी (24 मिनिट 1 घड़ी) तक मुनि को उपसर्ग किये / परंतु राजारानी लघुकर्मी होने से मुनिजी को दिया हुआ कष्ट उनके दिल में खटकने लगा। मुनिओं का तिरस्कार अपमान तथा उनके धर्मानुष्ठानों में किया हुआ अंतराय पाप ही है, ऐसा ख्याल जब दंपती के मन में आया तब मुनिराज की माफी मांगी। और पूछा कि, आप कहां से पधारे हैं ? और कहां पर पधार रहे हैं / जवाब में मुनिजी ने कहा कि, रोहितक नगर से विहार कर में इस सार्थवाह के साथ अष्टापद पर्वत पर रहे हुए अरिहंत परमात्माओं की प्रतिमाओं को वंदन करने हेतु जा रहा था. परंतु आप श्रीमानों ने मेरा साथ छुड़वा दिया। क्योंकि धर्मकार्यों में, सत्य तथा सदाचार के सेवन में अंतराय कर्म का आना स्वाभाविक ही है। राजारानी ने पश्चाताप पूर्वक आश्वासन दिया और पुन: पुन: मन, वचन तथा काया से माफी मांगी / दंपती की भद्रिकता तथा पापभीस्ता देखकर मुनिजी को आनंद आया और दयाप्रधान जैनधर्म का उपदेश दिया। अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करते इस जीवात्मा के कान में धर्म-धार्मिकता-दयाअहिंसा तथा सत्य और सदाचार आदि शब्द नहीं पड़ने के कारण ही जीव की धर्माभिमुख होना दुर्लभ माना गया है, परंतु राजारानी की भवितव्यता पक गई होने से वे धर्माभिमुख बने तथा भक्तिपूर्वक भोजन पानी का दान देकर उत्तमोत्तम लाभ लिया। फिर तो मुनिराज का सान्निध्य ही उनका परमधर्म बन गया। तथापि सात्त्विक भाव जैसा होना चाहिये था वैसा न होने से राजसवृत्ति के मालिक राजाने सब परिजनों को दूर किया और स्वयं ने ही आहारपानी का लाभ और स्वयं ने ही धर्म का लाभ प्राप्त किया। इसप्रकार कर्म के रोगों से पीडित दंपती को धर्म के ज्ञान का औषध देकर राजा के भेजे हुए इन्सानों के साथ मुनिराज ने अष्टापदतीर्थ की तरफ विहार किया। - TILI 10 P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust