Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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व्यंजना समझने की क्षमता उत्पन्न हुई और एक अच्छे आलोचकके संस्कार आपमें जमने लगे । आपकी अध्यात्मवृत्ति ने आपको पवित्रता, नैतिकता और परदुःख - कातरता जैसे अमूल्य गुण दिये हैं । आपकी दृष्टि में प्रत्येक धर्मग्रन्थ पवित्र है, उसका प्रतिपद और प्रति अक्षर पवित्र है, उसमें जो ज्ञान और विचार निहित हैं, वे अपने परिवेश और परिस्थितियोंके शाश्वत मूल्य हैं । आपकी इसी आध्यात्मिक साधनाने आपको उच्चस्तरीय मानवताका विकास दिया है, हर्ष, शोकसे अप्रभावित होनेका अभेद्य कवच दिया है; जिसके बलपर आप वज्र - कठोर परिस्थितियोंमें भी प्रकृतिस्थ बने रहते हैं ।
आपका सुदृढ़ विश्वास है कि मानवभव दुर्लभ है और उसके प्रत्येक क्षणका सदुपयोग करना हमारा सर्वोपरि कर्त्तव्य है । यही कारण है कि श्री नाहटाजी एक क्षण भी व्यर्थ में खोना नहीं चाहते और न अनावश्यक बातोंमें ही उनकी रुचि है । उनकी साहित्य-साधना आध्यात्मिक साधनाका माध्यम है । कहा करते हैं कि प्राचीन भक्ति साहित्य रसास्वाद में इन्द्रियोंकी चंचलता कम होती हैं, मनको परमशान्ति मिलती है। और नरभवका सदुपयोग होता है। इसी साहित्य व्याजसे भक्तिसाधना, योगसाधना, समत्वसाधना और विकथा बचावका सुखद अवसर प्राप्त करनेके वे आदी हो गये हैं । उनका हृदय और चिन्तन इतना व्यापक, उदार और अध्यात्मकेन्द्रित हो गया है कि वे राजनीतिके रंगमंचपर अनुदिन घटनेवाली घटनाओंको विशेष महत्व नहीं देते । ऐसा प्रतीत होता है, मानों उस क्षेत्रको समझते हुए भी वे उससे नितान्त विमुख बने हुए हैं । यही कारण है कि वे दैनिक समाचार पत्र नहीं पढ़ते और न अपने पुस्तकालय में ऐसा कोई समाचार पत्र खरीदकर मंगवाते ही हैं । अगर उनके सामने कोई राजनीतिका भक्त कुछ चर्चा भी चला देता है तो वे किसी धार्मिक पत्रिकाका लेख पढ़ना आरम्भ कर देते हैं और वक्ताकी ओरसे ध्यानान्तरित हो जाते हैं । युगों बीत गये; श्री नाहटाजीने कोई सिनेमा नहीं देखा और खान-पान में, रहन-सहन में विशेष रुचि प्रदर्शित नहीं की । आपके जो विचार शतशः पत्रिकाओं में प्रकाशित होते हैं, उनका एक ही प्रबल स्वर है और वह है ' आध्यात्मिकताका स्वर' । इसलिए श्री नाहटाजी के लिए यह कथन सर्वथा सत्य और समीचीन है कि उनका जीवनरस अध्यात्म है वे उसीमें जीते हैं और उसीमें जीना चाहते हैं ।
श्री नाहटाजी अध्यात्मचर्चा करना भी चाहते हैं और सुनने-सुनानेके इच्छुक भी रहते हैं । विकथा चर्चा में वे जितने कृपण हैं; सत्कथा में उतने ही उदार, उत्साही और अतृप्त । अगर उन्हें उनकी जोड़ीका कोई पात्र; अध्यात्म प्रेमी मिल जाए तो घंटों और रात्रियाँ बिता देंगे और उससे और अधिक समय देने के लिए आग्रह करेंगे । सत्संग, तीर्थाटन और अध्यात्म-पुरुषोंके संस्मरण - अनुभव सुनाने में श्री नाहटाजीको आनन्द आता है और यह जानकर प्रसन्न भी होते हैं कि सज्जन संकीर्तन के माध्यम से वे पुण्यार्जन कर रहे हैं । नीचे हम श्री नाहटाजी के सत्संग में सुने कतिपय संस्मरण-प्रसंग उन्हींकी शब्दावली में प्रस्तुत कर रहे हैं
‘“संवत् १९८४-८५ में श्री कृपाचन्द्रसूरि और उनके शिष्य सुखसागरजीकी प्रेरणा से हम सपरिवार तीर्थयात्रापर गये । शत्रुञ्जय, पाटण और अनेक तीर्थोंके दर्शन करते हुए आबू पहुँचे और योगीराज मुनिश्री शान्तिविजयजी महाराजके दर्शन किये । देलवाड़ा जाते ये दर्शन रास्ते में हुए थे। उन्होंने फरमाया - सोते-जागते, उठते-बैठते ‘ॐ अर्हं नमः’का जाप करना चाहिये । हमने पुनः दर्शनकी इच्छा व्यक्त करते हुए योगीराज से समय माँगा तो आपने स्वर-विचारकर कहा; नहीं आना, मिलना नहीं होगा । हमने दर्शनकी प्रबल इच्छाकी पूर्ति के लिए योगीराजको दिन भर खूब ढूँढा परन्तु वे नहीं मिले। उन्होंने जो फरमा दिया था, वही हुआ और हम दर्शनसे वंचित ही रहे ।"
योगीराज के विषय में और अधिक बताते हुए श्री नाहटाजीने कहना जारी रखा "श्री योगीराजकी स्मृति विलक्षण थी । वे अलौकिक अनुभूतियोंके पुरुष थे। उनके सानिध्य में चित्त परमशान्तिसुखका अनुभव
जीवन परिचय : ४७
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