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___ आ. वज्रसेन सूरि जी के चारों प्रमुख शिष्यों से श्रमणों की 4 शाखाओं का उद्भव हुआ। वि.सं. 136 में निवृत्ति कुल, नागेन्द्र कुल, विद्याधर कुल एवं चन्द्र कुल की स्थापना हुई। आ. वज्रसेन सूरि जी ने चन्द्र को समर्थ एवं प्रतापी जाना एवं चन्द्र कुल की भविष्य में सुविशालता तथा सुदीर्घायु व शासन प्रभावना में सहयोग को देखते हुए चन्द्र सूरि जी को अपनी पाट पर स्थापित किया। वि.सं. 150 में वज्रसेन सूरि जी का कालधर्म हो गया। अतः उनकी भावना को मूर्त रूप देते हुए विद्यागुरु आचार्य यक्षदेव सूरि जी ने चंद्र मुनि को आचार्य पदवी प्रदान की तथा वज्रसेन सूरि जी का पट्टधर घोषित किया। ___चंद्र सूरि जी का विहार क्षेत्र कोंकण, सौराष्ट्र, आवंती, मेदपाट तथा मरुधर प्रांत तक रहा। शासन की महती प्रभावना करते हुए इन्होंने अनेक मुमुक्षुओं को मोक्ष मार्ग का पथ प्रदर्शित किया तथा संयम प्रदान किया। विशाल शिष्य समुदाय होने पर धीरे-धीरे इनका गच्छ निग्रंथ गच्छ का नाम चन्द्र गच्छ ही पड़ गया। अनेकानेक प्रभावक आचार्य इनकी परम्परा में हुए। अन्य कुल के श्रमण-श्रमणियों के हृदय में भी चन्द्र सूरि जी के प्रति बहुत बहुमान का भाव था। किसी भी साधु-साध्वी को दीक्षा देते समय गर्व से कहा जाता - तुम्हारा कोटिक गण, वज्र शाखा तथा चन्द्र कुल है। अपने 23 वर्ष के युगप्रधान (आचार्य) काल में चन्द्र सूरि जी ने अनेक कार्य किए तथा सर्व महत्त्वपूर्ण - भविष्य की श्रमण परम्परा के लिए सुंदर नींव रखी। कालधर्म :
स्व-पर कल्याण की उत्तमोत्तम भावना से युक्त आ. चन्द्र सूरि जी का कालधर्म वीर निर्वाण संवत् 643 अथवा 650 में हुआ। 67 वर्ष । 74 वर्ष की आयु में अपनी पाट पर आ. समन्तभद्र सूरि जी को बिठाकर वे देवलोक की ओर गतिमान हुए।
आचार्य भद्रबाहु भी इनके काल में हुए। वे निमित्त तथा ज्योतिष विद्या में पारंगत थे। उनके भाई वराहमिहिर भी विद्वान थे, किन्तु अहं भाव से पुष्ट थे। जैनाचार्य भद्रबाहु ने अपने ज्ञानबल से जिनशासन की महती प्रभावना की। उनके भाई वराहमिहिर मृत्यु प्राप्त कर व्यन्तर देव बने। उन्होंने पृथ्वीतल पर लोगों पर उपद्रव करना चालू किया। उस उपद्रव से क्षुब्ध जनमानस को शान्ति प्रदान करने के लिए आचार्य भद्रबाहु ने पार्श्वनाथ जी की स्तुति स्वरूप विघ्नविनाशक 'उवसग्गहरं स्तोत्र' की रचना की। यह स्तोत्र अत्यंत चमत्कारी सिद्ध हुआ।
महावीर पाट परम्परा