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एवं इस प्रतिकूल परिस्थिति में जैनधर्म की ध्वजा लहराने में सभी के प्रयासों को संगठित करने की आवश्यकता है। आ. संभूति सूरि जी, आ. शांति सूरि जी, आ. नन्नसूरि जी, आ. उद्योतन सूरि जी, आ. कृष्णर्षि जी, आ. धनेश्वर सूरि जी, आ. बप्पभट्टि सूरि जी, आ. गोविन्द सूरि जी इत्यादि प्रभावक आचार्यों के साथ मिलकर उन्होंने जिनशासन की महती प्रभावना की ।
समकालीन प्रभावक आचार्य
आचार्य बप्पभट्टि सूरीश्वर जी :
वे अपने युग के बहुचर्चित आचार्य थे। उनका जन्म भाद्रपद शुक्ल 3 रविवार वि. सं. 800 को गुजरात प्रदेश के डुम्बाउधि गाँव में हुआ। उनके पिता का नाम 'बप्प' एवं माता का नाम 'भट्टि' था। उनके बचपन का नाम सूरपाल था किंतु वे बप्पभट्टि के नाम से प्रसिद्ध थे। सात वर्ष की आयु में उन्होंने मोढ़ गच्छ के आचार्य सिद्धसेन के पास दीक्षा ली थी। उनका नाम मुनि भद्रकीर्ति रखा गया । मात्रा 11 वर्ष की अल्पायु में उन्हें आचार्य जैसा गरिमामयी, गंभीर एवं दायित्वपूर्ण पद मिला जिससे उनकी विलक्षण प्रतिभा पता चलती है। उनकी प्रसिद्धि सदा आचार्य बप्पभट्टि सूरि के नाम से हुई । कान्यकुब्ज (कन्नौज) प्रदेश के गोपालगिरि के राजा 'आम' को आ. बप्पभट्टि सूरि जी ने प्रतिबोधित किया और जैनधर्म की महती प्रभावना कराई।
अनेक शास्त्रार्थों में विजय प्राप्त करने के कारण उन्हें 'वादिकुंजरकेसरी' का बिरूद् प्राप्त हुआ। आकाशगामिनी विद्या के बल से वे नित्य रूप से सिद्धाचल तीर्थ में श्री आदिनाथ परमात्मा ; गिरनार तीर्थ में श्री नेमिनाथ परमात्मा ; भरूच तीर्थ में श्री मुनिसुव्रत परमात्मा ; मथुरा तीर्थ में श्री सुपार्श्वनाथ परमात्मा ; ग्वालियर ( गोपालगिरि) के जिनालय में; इन पांचों तीर्थों की चैत्य परिपार्टी करके ही अन्न-जल ग्रहण करते थे। गिरनार तीर्थ पर श्वेताम्बर परम्परा के आधि पत्य में आचार्य श्री एवं आम राजा की अच्छी भूमिका रही। कन्नौज, ग्वालियर आदि अनेक स्थानों पर उनके करकमलों से प्रतिष्ठाएं हुई। शारदास्तोत्र, वीरस्तव, चतुर्विंशतिका आदि उनकी कृतियाँ हैं। 84 वर्षों तक धर्मसंघ के दायित्व का वहन करते 95 वर्ष की आयु में भाद्रपद शुक्ला 8, वि.सं. 895 में उनका देवलोकगमन हुआ ।
महावीर पाट परम्परा
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